घर दीवार से नहीं परिवार से बनता हैI – प्रतिमा श्रीवास्तव : Moral Stories in Hindi

घर दीवार से नहीं परिवार से बनता है सुलोचना,पर तुम तो रात दिन कोई ना कोई जाल ही बुनती रहती हो। कभी मम्मी – पापा के खिलाफ तो कभी मेरे भाई बहन और उसकी नई नवेली दुल्हन रागिनी के खिलाफ। मैं चुपचाप रहा इतने दिनों तक की शायद तुम्हें परिवार की अहमियत कभी ना कभी जरूर समझ में आएगी लेकिन आज जब पानी सिर से ऊपर हो गया तो मुझे बीच में बोलना पड़ा। मैंने तुमसे सिर्फ यही उम्मीद रखी थी कि तुम इस परिवार को अपना बना लो लेकिन तुम्हारे मायके की अमीरी और हमारे साधारण रहन सहन हमेशा हमारे बीच की दीवार बनते ही रहे हैं।

राघव से आज देखा नहीं गया कि सुलोचना ने जिस तरह मां से बात की और उनके तजुर्बे की बेइज्जती की।

तीज के त्योहार पर जब सासू मां जानकी जी ने अपने साथ – साथ दोनों बहूओं के लिए साड़ी और श्रृंगार का समान ले आईं थीं और जब उन्होंने दिया तो रागिनी ने बड़े ही सम्मान से लिया और जानकी जी का पैर छूकर आशीर्वाद लिया और जब सुलोचना को दिया तो सड़ा सा मुंह बनाकर बोली कि,” मम्मी जी ये क्या उठा लाईं ओल्ड फैशन का और ये रंग कितना गहरा है। मैं तो ऐसे कपड़े अपनी कामवाली को भी ना दूं।”

बहू ” तीज में हरा ही पहना जाता है। अच्छा चलो दुकान से पसंद कर लो अपने मन का” जानकी जी ने बड़ी शालीनता से कहा।

“छी वो गली के मोड़ वाली… आपने कैसे सोचा की मैं इतनी सस्ती साड़ी पहनूंगी।आप तो रहने ही दीजिए मेरी मम्मी ने मुझे दस हजार की साड़ी भेजी है। मैं तो वही पहनूंगी” सुलोचना जानकी जी का अनादर करती हुई कमरे में चली गई।

ये तो शगुन है, अगर बहू थोड़ी देर को पहन लेती तो क्या जाता। हमारे यहां सास देती है बहू को श्रृंगार का समान और उसी से पूजा होती है, लेकिन हर वर्ष की तरह इस साल भी सुलोचना ने ना तो रीति रिवाज का मान रखा ना ही जानकी जी की भावनाओं का । जानकी जी मन ही मन में सोचती हुई कमरे में आ गई।

राघव ने सब कुछ सुन लिया था क्योंकि वो आफिस से तुरंत आया था और ड्राइंग रूम में जूते खोल रहा था।इस बात से सुलोचना और जानकी जी अंजान थीं। राघव  सुलोचना के इस व्यवहार से बहुत आहत हुआ कि सुलोचना बड़ी बहू है घर की लेकिन कभी भी ऐसा कुछ नहीं करती की वो इस परिवार को बांध कर चले।कल को रागिनी पर क्या असर पड़ेगा वो तो अभी – अभी आई इस घर में। अगर वो भी इसी का देखा – देखी व्यवहार करने लग गई तो ये घर तो बिखर जाएगा। मम्मी ने कितनी अच्छी तरह से हर रिश्ते को संभाला है और परिवार तो सबको लेकर चलती आईं हैं।

कमरे आते ही राघव ने सुलोचना से कहा कि,” सुलोचना तुम्हारी नादानियां मैं माफ करता आ रहा था कि तुम संभल जाओगी लेकिन शादी के तीन साल हो गए फिर भी तुम में कोई बदलाव नहीं आया। तुम मां के दिए गए कपड़े को थोड़ी देर को पहन लेती तो क्या हो जाता? “

अच्छा ” तो मम्मी जी ने आते ही आपसे मेरी शिकायत लगा दी।”

“नहीं सुलोचना… मां ने आजतक तुम्हारे खिलाफ कुछ भी नहीं कहा है क्योंकि वो परिवार की अहमियत समझतीं है। मैंने सबकुछ अपने कानों से सुना है ‌। तुम जिस मायके की धौंस देती हो ना वो सिर्फ एक हवेली है जिसकी दीवारों पर शानदार रंग रोगन तो लगा है लेकिन उस घर में खुशियां कहीं भी नहीं है। तुम्हारे भाई – भाभी जिनको की रिश्तों की कदर ही नहीं है जो मम्मी – पापा को इस उम्र में छोड़ कर अलग रहने चले गए और नौकर चाकर के भरोसे छोड़ दिया उन्हें और तुम सिर्फ उनसे पैसे लेने जाती हो और कभी भी उनकी चिंता तुम्हें नहीं होती है। तुम्हें पता भी है कि वो कितने बीमार थे।”

“बीमार थे ” सुलोचना चौंकते हुए बोली।

हां!” मैं आफिस से लौटते समय अक्सर जाता हूं उनसे मिलने और तभी मैंने उनको जा कर डाक्टर को दिखाया और दवाइयां लाई, जिससे वो जल्दी स्वस्थ हो जाएं। परसों जब मैं देर से आया था तो वहीं से आया था, तुमको बताना चाहा तो तुमने मेरी बातों पर ध्यान ही नहीं दिया और अपनी सहेली से गपशप करती रही।”

घर चार दीवारी से कभी नहीं बनता है उसमें रहने वाले लोगों से बनता है जो दुख – सुख में एक दूसरे के साथ होते हैं, जहां हम अपने मन की बातें कर सकते हैं और दूसरों के मन को भी समझते हैं। रही बात धन दौलत की तो खुशियां इससे कभी नहीं मिलती है। उससे शान शौकत भले ही बढ़ जाती है समाज में लेकिन अपनों के साथ से बढ़ कर कीमती कुछ भी नहीं है। उम्मीद है तुम जरूर समझोगी और अब तुम से छोटी बहू भी घर में आ चुकी है तो तुम जैसा करोगी वैसा आचरण वो भी करेगी। बुरा ना मानना जैसे तुमने मां के साथ किया वैसा कल छोटी बहू तुमसे बात करेगी तो सोचो तुम्हें कैसा लगेगा।

सुलोचना का दिमाग काम करना बंद हो गया था उसे लगा कि मेरे माता-पिता की देखभाल राघव करते हैं और मुझे बिना जताए।वो दामाद होने के बावजूद बेटे की जिम्मेदारी निभा रहे हैं और मैं बहू होकर इस घर को कभी भी अपना नहीं समझ सकी।ओह मैं कितनी ना समझ हूं… अरे नहीं नहीं मैं तो जानबूझ कर ऐसा करती आ रही थी। मुझे हमेशा से लगता था कि मेरे माता-पिता ने कैसे घर में शादी कर दी।इसी बात को लेकर मैं उनसे भी नाराजगी जताती थी। जबकि मां हमेशा कहतीं थीं बेटा नसीबों से ऐसा परिवार और पति मिलता है पर मैं कभी समझ ही नहीं सकी।

अब देर नहीं करनी चाहिए और मम्मी जी से जाकर माफी भी मांगनी है और सुहाग का सामान भी लूंगी सम्मान के साथ।

सुलोचना ने जानकी जी से माफी मांगी और कहा,” मम्मी जी मुझे माफ कर दीजिए और हां आज पूजा में मैं आपकी दी हुई साड़ी ही पहनूंगी।”

अरे बहू!” कोई बात नहीं… तुम जो पहना चाहो पहन लो।”

“नहीं मम्मी जी मैंने बहुत गलतियां की है लेकिन आज से आपसे वादा है करती हूं कि अब से आपका दिल नहीं दुखाऊंगी।”

आज की शाम सुलोचना बहुत खुश थी।आज की पूजा  उसने दिल से किया और घर में बहुत ही खुशनुमा माहौल था। ये खुशी अंदर से थी जो उसके चेहरे की चमक में दिखाई दे रही थी और परिवार की अहमियत उसे समझ में आ गई थी। दोनों बहूओं ने मिलकर पूजा किया और सास – ससुर का आशीर्वाद लिया।

सचमुच में जहां परिवार को दिल से अपनाया जाता है वहां छोटी – बड़ी परेशानियां और कम – ज्यादा कभी भी बीच में नहीं आता है। राघव भी बहुत खुश था, उसके सिर से बोझ हट गया था क्योंकि वो महसूस कर रहा था कि सुलोचना अब इस घर को अपना मान चुकी है। सभी ने मिलकर पूजा की खाना खाया और खुशी – खुशी अपने कमरे में चले गए।

एक खूबसूरत सुबह के इंतजार में जहां मनभेद नहीं था रिश्तों के बीच बल्कि मन मिल चुका था।

                            प्रतिमा श्रीवास्तव

                            नोएडा यूपी  

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