सुबह की पहली आहट अभी ठीक से हुई भी न थी कि सीमा की आँख खुल गई। अलार्म की हल्की-सी आवाज़ उसके लिए दिन की शुरुआत का संकेत थी, पर जब वह बिस्तर से उठी तो देखा कि उसके सास-ससुर, प्रकाश जी और सुशीला जी, पहले ही जाग चुके थे। सुशीला जी ने हमेशा की तरह अपनी और प्रकाश जी की चाय बना ली थी। सीमा जैसे ही रसोई में पहुँची, सुशीला जी ने प्यार से पूछा, “बेटा, तू चाय पियेगी?”
सीमा ने मुस्कुराकर जवाब दिया, “नहीं माँ जी, आपको तो पता है, मैं सुबह-सुबह चाय नहीं पीती। मैं थोड़ी देर बाद लूँगी।”
सीमा अपने पति अजय, अपने दो बच्चों—आशीष और रिया—और अपने सास-ससुर के साथ एक पुश्तैनी घर में रहती थी। उनका यह घर तीन कमरों, एक रसोई और एक बड़े से आँगन वाला था। आँगन के ठीक सामने, घर के बाहर की ओर एक हरा-भरा तुलसी का पौधा था, जो पूरे घर में एक सकारात्मक ऊर्जा और पवित्रता का संचार करता था। उनका घर भले ही पुराना था, पर सुशीला जी और सीमा की मेहनत से हमेशा बिल्कुल साफ-सुथरा रहता था, और इस घर में सीमा का परिवार आपस में बहुत प्यार और तालमेल के साथ एक-दूसरे से मिलजुलकर रहता था।
थोड़ी देर में, सीमा अपने बच्चों, आशीष और रिया, को जगाने पहुँची। बच्चे थोड़ी देर नखरे दिखाते रहे, पर माँ की प्यार भरी डाँट से अंततः जाग गए। दोनों बच्चे फिर अपना-अपना बैग लगाने लगे और स्कूल के लिए तैयार होकर नाश्ते की मेज पर आ गए। जितनी देर में सीमा बच्चों को तैयार कर रही थी, उतनी देर में सुशीला जी ने रसोई में सब्जी काटकर रख दी थी। सीमा ने फटाफट से सब्जी बनाई और साथ में गरमागरम पराठे भी सेक दिए।
नाश्ता परोसते हुए सुशीला जी ने सीमा से कहा, “सीमा, तुम भी बच्चों के साथ बैठकर थोड़ा नाश्ता कर लो।” सीमा टालने लगी, “नहीं माँ जी, मुझे बाद में करना है।” पर सुशीला जी ने अपनी आँखें दिखाते हुए कहा, “नहीं! ज़्यादा नहीं तो कोई बात नहीं, थोड़ा सा नाश्ता कर लो, और अगर कुछ नहीं तो दूध तो पी ही लो।” सीमा को दूध पीना पसंद नहीं था, और यह देखकर आशीष और रिया दबी-दबी हँसी हँसते थे, क्योंकि माँ जी का यह हर रोज़ का नियम था। वह बच्चों के साथ सीमा को भी दूध पीने को देती थीं, और सीमा हमेशा की तरह मुँह बनाती, पर माँ जी की डाँट के आगे पी जाती।
बच्चों के टिफिन पैक करके उनके हाथों में दिए गए। ठीक तभी, प्रकाश जी भी आ गए और बोले, “बेटा, बस आने का समय हो गया। चलो बच्चों, मैं तुम्हें बस स्टॉप तक छोड़कर आता हूँ।” उनके जाते ही, सीमा के पति, अजय, भी तैयार होकर नाश्ते की मेज पर आ गए। सीमा ने उन्हें नाश्ता परोसा और उनका लंच पैक करके दिया। अजय भी फिर अपने ऑफिस के लिए निकल गए।
अब घर में सिर्फ तीन लोग बचे थे: सीमा, सुशीला जी और प्रकाश जी। प्रकाश जी, सुबह की सैर के बाद थोड़ा थक जाते थे, तो वह अपने कमरे में जाकर थोड़ी देर आराम करते। इधर, सीमा और सुशीला जी अब इत्मीनान से नाश्ता करने बैठीं। सुबह की भागदौड़ में उन्हें ठीक से खाने का समय नहीं मिला था। चाय की चुस्कियों और नाश्ते के साथ, वे दोनों घर-परिवार की बातें करने लगीं।
दोपहर का समय था। सीमा घर के काम निपटा रही थी और रसोई में भोजन की तैयारी कर रही थी। तभी उसके फोन की घंटी बजी। वह फोन पर बात करते हुए शुरू में तो हँस रही थी, उसके चेहरे पर खुशी साफ झलक रही थी। पर थोड़ी ही देर में उसकी हँसी गायब हो गई और उसकी जगह एक हल्की-सी चिंता की लकीर उसके माथे पर उभर आई। वह कुछ सोच में पड़ गई।
सुशीला जी, जो पास ही बैठकर सब्ज़ियाँ साफ कर रही थीं, उन्होंने सीमा के चेहरे पर आते-जाते भावों को गौर से देखा। “क्या बात है बेटा? अभी तो इतनी खुश लग रही थी, और अब अचानक इतनी परेशान क्यों दिख रही है?” सुशीला जी ने ममता भरे स्वर में पूछा।
सीमा ने थोड़ा टालने की कोशिश की, “नहीं माँ जी, ऐसी कोई बात नहीं है।”
“बेटा, तुम मुझे जानती हो। तुम्हारी माँ हूँ मैं। तुम्हारे चेहरे पर जो भी भाव आते हैं, मैं तुरंत पहचान लेती हूँ,” सुशीला जी ने उसके पास आकर उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा। “अगर कोई परेशानी है तो मुझसे कहो, शायद कोई हल निकल आए।”
सीमा ने लंबी साँस ली और धीरे से बोली, “माँ जी, वो दीदी का फोन आया था।” उसकी आवाज़ में थोड़ी हिचकिचाहट थी। “मेरी बड़ी बहन, कविता दीदी, इस हफ़्ते हमसे मिलने आ रही हैं। अपने परिवार के साथ।”
सुशीला जी के चेहरे पर मुस्कान आ गई। “अरे, तो इसमें चिंता की क्या बात है? यह तो खुशी की बात है! आने दो उसे।”
“माँ जी, मैं उस बात से परेशान नहीं हूँ,” सीमा ने थोड़ा झुककर कहा, “दरअसल… आप तो कविता दीदी की आदत जानती हैं ना? उन्हें हर चीज़ में कमियाँ निकालने की आदत है। मुझे अच्छा नहीं लगेगा अगर वह यहाँ आकर आप लोगों को या घर को लेकर कुछ कहें, या बच्चों के सामने कोई बात करें।”
सुशीला जी ने प्यार से सीमा का हाथ थामा और हल्की-सी मुस्कान के साथ कहा, “बेटा, कोई बात नहीं। किसी-किसी की आदत होती है। और हमें क्या फ़र्क पड़ता है? हम जैसे हैं, वैसे ही अच्छे हैं। कोई दिक्कत नहीं है, तुम चिंता मत करो। उसे आने दो।”
सुशीला जी की बातों से सीमा को थोड़ी राहत मिली, पर उसके मन के किसी कोने में अभी भी एक हल्की-सी आशंका दबी हुई थी।
वह दिन भी आ गया जब कविता अपने परिवार के साथ सीमा से मिलने आने वाली थी। दोपहर के वक़्त एक चमकदार गाड़ी सीमा के पुश्तैनी घर के सामने आकर रुकी। गाड़ी से सबसे पहले कविता उतरी, उसके बाद उसके दोनों बच्चे, मीत और जिया, उतरे। दोनों बच्चे उतरते ही जैसे ही घर की ओर बढ़े, उनके माथे पर पसीना झलकने लगा।
कविता घर के अंदर आते ही सीमा से गले मिली। “कैसी है मेरी बहन? बहुत दिनों बाद मिलना हो रहा है!” उसने कहा, पर उसकी नज़रें पूरे घर का एक त्वरित जायज़ा ले रही थीं।
अरे दीदी जीजा जी नहीं आए क्या? सीमा ने मुस्कुराते हुए पूछा,
कविता ने कहा _ “तुम्हे तो पता है उनके ऑफिस में कितना काम होता है। इतना ट्रैवल करके कैसे आते? उनकी कोई ज़रूरी मीटिंग थी, तो मैं बच्चों के साथ ही आ गई।”
मीत और जिया, अंदर आते ही लगभग एक साथ चिल्लाए, “मम्मी, कितनी गर्मी है! बहुत गर्मी लग रही है!”
सीमा ने तुरंत पास पड़ा कूलर चालू किया, और ठंडी हवा का एक झोंका कमरे में फैल गया।
“सीमा, तेरे घर में एसी नहीं है क्या?” कविता ने पूछा, अपनी साड़ी के पल्लू से हवा करते हुए। “अगर किसी कमरे में लगा हो तो एसी चला दे बड़ी गर्मी है। थोड़ा आराम से बैठेंगे।”
सीमा ने विनम्रता से कहा, “नहीं दीदी, एसी तो नहीं है। पर कूलर है। आप इधर आँगन की तरफ़ आकर बैठ जाओ, यहाँ कूलर की बहुत ठंडी हवा लगती है। बहुत आराम मिलेगा।”
कविता ने थोड़ी झुँझलाहट के साथ देखा, पर फिर लंबी साँस लेकर आँगन की ओर बढ़ी और एक कोने में सोफे पर बैठ गई। उसने अपने चेहरे पर उड़ते बालों को हटाया और आसपास देखा।
सीमा तुरंत पानी ले आई, स्टील के चमचमाते गिलास में। मीत और जिया ने गिलास देखते ही नाक-भौंह सिकोड़ी। “मम्मी, ये क्या? हम ऐसे ग्लास में पानी नहीं पीते ? हम इसमें नहीं पिएँगे!”
कविता ने एक नज़र सीमा पर डाली, फिर बच्चों से कहा, “बेटा, यहाँ ऐसे ही बर्तन मिलेंगे, कोई बात नहीं, इसी में पी लो।” उसने बच्चों को डाँटने की बजाय, जैसे स्थिति को स्वीकार करने का संकेत दिया।
कुछ देर बाद, सीमा उनके लिए नींबू पानी बनाकर लाई, जो उसने घर पर ताज़े नींबू से बनाया था। मीत और जिया ने गिलास देखते ही फिर वही बात दोहराई, “मम्मी! हम तो सिर्फ़ कोल्ड ड्रिंक पीते हैं। ये नींबू पानी हमें नहीं पीना।”
कविता ने सीमा की ओर देखा, “देख सीमा, ये आजकल के बच्चे हैं। इन्हें कोल्ड ड्रिंक के अलावा कुछ और पसंद ही नहीं आता।”
तभी, प्रकाश जी, जो पास ही बैठे सारी बातें सुन रहे थे, बोले, “कोई बात नहीं बेटा, आजकल के बच्चों को कोल्ड ड्रिंक ही पसंद है। पास में दुकान है, मैं अभी जाकर ले आता हूँ।” इतना कहकर, प्रकाश जी कोल्ड ड्रिंक लेने बाहर चले गए।
दोपहर के खाने का समय हुआ। सीमा ने अपनी बहन और बच्चों के लिए बड़े प्यार से खाना बनाया था – पुलाव, गरमागरम पूरियाँ, छोले, मटर-पनीर की सब्ज़ी, और साथ में रायता व खीर। उसने मेज पर सारा खाना सजा दिया।
मीत और जिया ने थाली में परोसा गया खाना देखते ही मुँह बनाया। “मम्मी , ये सब क्या? हम ये सब नहीं खाते। ये बहुत ऑयली और हेवी खाना है। हमें तो सिर्फ़ पिज़्ज़ा और बर्गर ही खाना है।”
कविता ने सीमा की ओर देखते हुए कहा, “अरे सीमा! तूने इतना सारा खाना बनाया, बच्चों के लिए कुछ ढंग का बना लेती। इन्हें ये सब पसंद नहीं आता।”
सीमा ने फिर भी शांत भाव से कहा, “कोई बात नहीं दीदी।” तभी प्रकाश जी वापस आ गए। “सीमा, बेटा, पास में ही पिज़्ज़ा की दुकान है। मैं अभी ले आता हूँ। तब तक तुम यह वाला खाना तो खाओ।” बच्चों ने थोड़े नखरे के साथ कुछ पूरियाँ और सब्ज़ी खाई, पर उनका मन नहीं लगा। कुछ ही देर में प्रकाश जी पिज़्ज़ा पास्ता लेकर आए और बच्चों ने वह मजे लेकर खा लिया।
खाने के बाद, मीत और जिया तुरंत अपने-अपने मोबाइल फोन निकालकर एक किनारे जाकर बैठ गए और उनमें मग्न हो गए। इस बीच, सीमा के बच्चे, आशीष और रिया, अपना खाना खत्म करने के बाद, अपनी-अपनी थालियाँ उठाईं और चुपचाप सिंक में रख आए। फिर वे दोनों कविता के बच्चों के पास गए, उनसे कुछ देर बातचीत करने की कोशिश की, पर मीत और जिया ने ज़्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई। आख़िरकार, आशीष और रिया अपने कमरे में चले गए और अपनी किताबों के साथ पढ़ाई में लग गए।
यह सब देखकर कविता ने अविश्वास भरी नज़रों से सीमा की ओर देखा। “सीमा, तेरे घर में ये बच्चे… अपने खाने के बर्तन ख़ुद उठाकर रख रहे हैं? और ये सब काम, लाना-जाना, तेरे घर में क्या मेड नहीं आती है क्या काम करने के लिए? तू अपने बच्चों से भी काम करवा रही है!”
सीमा ने हल्की-सी हँसी के साथ जवाब दिया, “दीदी, काम कितना होता है? मैं खुद ही कर लेती हूँ और बच्चों को भी बचपन से ही अपना काम करने की आदत डाल दी है।”
कविता ने सिर हिलाया। “तूने पता नहीं कैसे अजीब-सी आदत डाली है अपने बच्चों को। मेरे बच्चे तो खाना खाकर एक किनारे चले जाते हैं, सारा काम करके मेड ख़ुद ही चली जाती है। और तू तो पूरा दिन बस काम में ही लगी रहती है।”
कुछ देर बाद, जब कविता और सीमा बातें कर रही थीं, सुशीला जी ने प्यार से कहा, “बेटा सीमा, मैं थोड़ी देर अपने कमरे में आराम करने जा रही हूँ। एक-दो घंटे बाद आऊँगी। तुम दोनों बहनें बैठकर बातें करो।” यह कहकर वह मुस्कुराती हुई अपने कमरे की ओर चली गईं।
सुशीला जी के जाते ही, कविता ने तुरंत अपनी आवाज़ थोड़ी धीमी की और सीमा की ओर मुड़कर बोली, “सीमा, यह सब तो ठीक है, पर मुझे यह बता। तेरे सास-ससुर तेरे साथ ही रहते हैं इस छोटे से घर में? तेरा गुजारा कैसे चलता है?” उसकी आवाज़ में हैरानी और थोड़ी सहानुभूति थी।
सीमा ने सहजता से जवाब दिया, “दीदी, तीन कमरे हैं, गुजारा आराम से हो जाता है। एक में मम्मी-पापा जी रहते हैं, एक में हम और अजय रहते हैं, और एक कमरा बच्चों का है।”
कविता ने हँसते हुए कहा, “अरे, तेरे बच्चे अब बड़े हो रहे हैं। इन्हें दो कमरों की ज़रूरत तो पड़ेगी अलग-अलग। अगर तू अपने सास-ससुर वाला कमरा अपने एक बच्चे को दे दे और दूसरा कमरा दूसरे बच्चे को, तो तेरा आराम से गुजारा चल सकता है। और यह जितना खर्चा तू अपने सास-ससुर पर करती है, अगर उसकी जगह तू अपने घर के रखरखाव पर ध्यान दे, तो तेरे घर में थोड़ी सुख-सुविधा का सामान भी आ सकता है।” वह रुककर सीमा के चेहरे के भाव देखने लगी। “कैसे ध्यान रख लेती है तू इन लोगों का? सारा दिन तेरे सर पर बैठे रहते होंगे। तेरा मन कैसे लग जाता है इतना काम करते हुए? ऊपर से तेरे घर में कोई मेड भी नहीं लगी हुई है, सारा काम तू अकेली कर रही है! क्या फायदा? और ऐसे कैसे गुजारा कर रही है यहाँ?”
सीमा ने शांति और दृढ़ता से कविता की आँखों में देखा। “नहीं दीदी, मेरे घर में सब बहुत अच्छे हैं। यह सब मेरा परिवार है। और घर में जगह छोटी हो या बड़ी, असली जगह तो परिवार के आपस में दिल में होनी चाहिए। और घर का क्या है? हमारा गुजारा तो बड़े आराम से हो जाता है। जब बच्चे थोड़े और बड़े होंगे, तब की तब देखी जाएगी। अभी फिलहाल तो हमारा काम चल ही रहा है, और हमारी जो आमदनी है, उस हिसाब से यह घर बिल्कुल ठीक है। और वैसे भी, बिना एसी के भी हमारा गुजारा ठीक से हो पा रहा है, देखिए, कूलर से कितनी अच्छी हवा आ रही है।”
कविता ने सीमा की बात को अनसुना करते हुए अपनी बात शुरू की, “देख सीमा, मेरे घर में मेरे दोनों बच्चे तेरे बच्चों से बस थोड़े-थोड़े ही बड़े हैं। हमारे फ्लैट में चार कमरे हैं। एक में मैं और मेरे हसबैंड रहते हैं, एक में मेरे सास-ससुर रहते हैं, और दो कमरे मेरे बच्चों के हैं।” उसने आगे कहा, “अब अगर कोई रिश्तेदार या गेस्ट आता है, तो उनके लिए जगह नहीं बनती है। इसलिए मैं तो सोच रही हूँ कि अपने सास-ससुर को वृद्धाश्रम के अंदर भेज दूं या फिर उनको उनके गांव वाले घर में रहने के लिए भेज दूंगी। फिर उनका जो कमरा है, वह खाली हो जाएगा तो कोई गेस्ट आएगा, या कभी हमें अलग कमरा चाहिए तो आराम से चल जाएगा। वैसे भी, बड़े चिक-चिक करते हैं।”
कविता की बात सुनकर सीमा की आँखें हैरानी से फैल गईं। “दीदी!” उसने अविश्वास भरी आवाज़ में कहा, “बड़े-बुजुर्गों के बिना घर, घर कैसे लगेगा? घर में उनकी बातें ही नहीं होंगी, तो कैसा लगेगा? मुझे तो मम्मी जी और पापा जी के होने से बहुत आराम होता है। मम्मी जी सुबह से मेरी मदद करती हैं, और पापा जी बच्चों को स्कूल लेने-छोड़ने चले जाते हैं। उनका भी अपना काम होता है और आपस में हम लोग कितना प्यार से रहते हैं, मिलजुलकर। बड़ों का आशीर्वाद सर पर हो तो कोई भी मुसीबत पता भी नहीं चलती है।”
कविता ने सीमा को लगभग डाँटते हुए कहा, “तू तो पागल है सीमा! तेरे अंदर तो ज़रा सी भी अकल नहीं है। ये सब तेरे से मीठा-मीठा बोलकर, तुझे पागल बनाकर, सारा दिन तुझसे काम करवाते हैं। अगर तू इन्हें वृद्धाश्रम भेज दे तो तू भी महारानी बनकर रहे अपने घर के अंदर!”
थोड़ी देर बाद, कविता अपने बच्चों के साथ अपने घर के लिए वापस चली जाती है। उसके जाने के बाद, सीमा कुछ देर तक सोचती रही कि कैसे इंसान सुख-सुविधाओं के पीछे रिश्तों की अहमियत भूल जाता है।
कविता के जाने के कुछ ही दिनों बाद, शहर का मौसम अचानक बदल गया। आसमान में गहरे, स्याह बादल छा गए और कई दिनों से लगातार मूसलाधार बारिश हो रही थी। शुरुआत में तो लोगों को लगा कि यह मानसून की सामान्य बारिश है, पर धीरे-धीरे स्थिति बिगड़ने लगी। शहर की निचली बस्तियों में पानी भरना शुरू हो गया और सड़कें जलमग्न होने लगीं। चारों ओर एक अजीब-सी बेचैनी फैल गई।
बाजारों से ज़रूरत का सामान गायब होने लगा। दूध, सब्ज़ियाँ, और अन्य खाद्य पदार्थ शहर तक पहुँच नहीं पा रहे थे, जिससे कीमतें आसमान छूने लगीं। बिजली आपूर्ति भी अनियमित हो गई थी, और कई इलाकों में घंटों तक बिजली गुल रहती थी। टीवी और रेडियो पर लगातार मौसम विभाग की चेतावनी आ रही थी कि एक भीषण चक्रवाती तूफान ‘जलधारा’ तट की ओर तेज़ी से बढ़ रहा है और अगले 24 घंटों में शहर से टकरा सकता है।
सरकार ने स्थिति की गंभीरता को भाँपते हुए आपातकालीन घोषणाएँ करनी शुरू कर दीं। लाउडस्पीकरों पर और न्यूज़ चैनलों पर बार-बार चेतावनी दी जा रही थी कि तूफान और उसके साथ आने वाली भारी बारिश से भीषण बाढ़ की आशंका है। लोगों से अपील की जा रही थी कि वे अपने घरों को तुरंत खाली कर दें और सरकार द्वारा बनाए गए राहत शिविरों (शेल्टर होम्स) में चले जाएँ, जो सुरक्षित ऊँचाई पर बनाए गए थे।
शहर में अफ़रा-तफ़री का माहौल था। लोग अपने ज़रूरी सामान और कागज़ात समेटकर सुरक्षित जगहों की ओर भाग रहे थे। यह एक ऐसी घड़ी थी जहाँ धन-संपत्ति या बड़े घर का कोई मोल नहीं था, क्योंकि हर कोई अपनी जान बचाने और सुरक्षित रहने की कोशिश कर रहा था। सीमा का छोटा पुश्तैनी घर भी सुरक्षित नहीं था, और कविता का आलीशान फ्लैट भी अब किसी काम का नहीं रह गया था, क्योंकि संचार और यातायात व्यवस्था पूरी तरह ठप हो चुकी थी। अब सब एक ही नाव पर थे, जहाँ केवल जीवन बचाना सबसे बड़ी प्राथमिकता थी।
कविता और उसका परिवार, जो अपने आलीशान फ्लैट में एसी और सुख-सुविधाओं के आदी थे, पहले तो किसी होटल या किसी दूर के रिश्तेदार के घर जाने की सोचने लगे, जहाँ वे अपनी सुविधाओं से समझौता न कर सकें। संजय ने कई जगहों पर फोन घुमाया, पर या तो होटल फुल थे या बाढ़ के पानी और गिरे हुए पेड़ों के कारण सड़कें ब्लॉक हो चुकी थीं। कोई भी टैक्सी या कैब मिलना नामुमकिन था, और उनकी अपनी महंगी गाड़ी भी ऐसी परिस्थितियों में बेकार थी।
बच्चों, मीत और जिया, ने भी शुरू में बहुत हंगामा किया। “मम्मी, हम कहाँ जाएँगे? हमारे कमरे में एसी नहीं है? हमें पिज़्ज़ा कब मिलेगा?” उनकी चिड़चिड़ाहट ने कविता और संजय की चिंता और बढ़ा दी। वे समझ नहीं पा रहे थे कि इतने बड़े फ्लैट में रहते हुए भी वे इतने असहाय क्यों महसूस कर रहे थे।
जब कोई और रास्ता नहीं बचा, और सरकारी घोषणाएँ ज़्यादा ज़ोर पकड़ने लगीं, जिसमें लोगों को नज़दीकी राहत शिविरों (शेल्टर होम्स) में जाने का निर्देश दिया जा रहा था, तब मजबूरी में कविता और संजय ने सरकारी शेल्टर होम में जाने का फ़ैसला किया। उनके पास अपनी जान बचाने और सुरक्षित रहने के लिए अब कोई और विकल्प नहीं था। बड़े-बड़े अपार्टमेंटों में रहने वाले कई अन्य लोग भी उन्हीं की तरह हताश होकर शेल्टर होम की ओर चल पड़े थे।
उधर, सीमा का परिवार भी अपने पुश्तैनी घर को छोड़कर सरकारी राहत शिविर की ओर बढ़ रहा था। उनके घर में भी पानी भरने लगा था। प्रकाश जी और सुशीला जी ने अपने ज़रूरी कागज़ात और कुछ कपड़े समेटे। उनके चेहरे पर चिंता थी। वे एक-दूसरे का हाथ थामे, शांत भाव से शेल्टर होम की ओर चल पड़े। आशीष और रिया भी माता-पिता और दादा-दादी का हाथ पकड़े, चुपचाप उनके साथ चल रहे थे। उन्हें अपने घर के छूटने का दुख था, पर परिवार के साथ होने का संतोष भी।
शहर के एक बड़े सामुदायिक केंद्र को अस्थायी राहत शिविर में बदल दिया गया था। हॉल में सैकड़ों लोग थे—कुछ अपनी छोटी-मोटी गठरियाँ लिए बैठे थे, कुछ ज़मीन पर चादर बिछाए थे, और कुछ दीवारों से टिके, अपनी किस्मत पर विचार कर रहे थे। चारों ओर एक अजीब-सी खामोशी थी, जो कभी-कभी बच्चों के रोने या किसी के खाँसने की आवाज़ से टूट जाती थी। बुनियादी सुविधाएँ थीं—कुछ पानी के टैंकर, सामुदायिक शौचालय, और सीमित मात्रा में भोजन के पैकेट।
सीमा का परिवार एक कोने में अपनी जगह बनाकर बैठ गया था। प्रकाश जी और सुशीला जी एक-दूसरे का हाथ थामे बैठे थे, उनके चेहरे पर शांति और संतोष था। आशीष और रिया, भले ही अपने घर से दूर थे, पर दादा-दादी और माता-पिता के पास होने से सुरक्षित महसूस कर रहे थे। सीमा और अजय ने मिलकर अपने छोटे से सामान को व्यवस्थित किया। उन्हें शिकायत नहीं थी, क्योंकि वे जानते थे कि इस मुश्किल घड़ी में एक-दूसरे का साथ ही सबसे बड़ी दौलत है। सुशीला जी ने अपने पास रखे थोड़े सूखे मेवे बच्चों को दिए, और प्रकाश जी ने आसपास के लोगों से बातचीत शुरू कर दी, उनका हाल-चाल पूछने लगे।
कुछ ही देर बाद, कविता का परिवार भी वहाँ पहुँचा। मीत और जिया, शिविर के माहौल को देखकर तुरंत चिड़चिड़ाने लगे। “मम्मी, ये कैसी जगह है? यहाँ कितनी गर्मी है! हमें अपने कमरे में जाना है! यहाँ मच्छर हैं!” उनकी ऊँची आवाज़ से कुछ लोगों ने उनकी तरफ़ देखा। कविता और संजय के चेहरे पर साफ परेशानी और हताशा दिख रही थी। उन्हें ज़मीन पर जगह बनाने में भी दिक्कत महसूस हो रही थी। वे अपने महंगे कपड़े और जूते देखकर भी अजीब लग रहे थे, क्योंकि यहाँ हर कोई साधारण कपड़ों में था।
संजय ने अपने फोन को बार-बार चेक किया, पर कोई नेटवर्क नहीं था। कविता ने पानी के लिए लाइन में लगने से मना कर दिया, “मैं इस गंदे पानी को कैसे पीऊँगी?” मीत और जिया ने भोजन के पैकेट को देखते ही मुँह सिकोड़ लिया, “ये क्या है? हमें ये नहीं खाना! हमें पिज़्ज़ा चाहिए!” कविता ने उन्हें समझाने की कोशिश की, पर बच्चे मानने को तैयार नहीं थे। वे सिर्फ़ शिकायत कर रहे थे और अपने माता-पिता को और परेशान कर रहे थे।
कविता ने जब सीमा के परिवार को देखा, तो उन्हें शांत और संतुष्ट देखकर उसे थोड़ी हैरानी हुई। सीमा ने मुस्कुराकर कविता को देखा और पास आने का इशारा किया। कविता और संजय अनिच्छा से उनके पास आए।
“कैसी है दीदी? सब ठीक है?” सीमा ने पूछा।
कविता ने लंबी साँस ली, “ठीक क्या है सीमा? ये कैसी जगह है? न एसी, न ढंग का खाना, न पानी। बच्चे भी परेशान हो रहे हैं। पता नहीं कब ये सब ठीक होगा।”
सीमा ने धीमे से कहा, “दीदी, मुश्किल तो है, पर कम से कम हम सब साथ तो हैं। यही सबसे बड़ी बात है।”
कविता ने सीमा की बात पर ध्यान नहीं दिया, उसकी नज़रें अभी भी अपने बच्चों पर थीं जो लगातार शिकायत कर रहे थे। उसे अब भी लग रहा था कि ये सब बस कुछ दिनों की परेशानी है, और जैसे ही वे अपने आलीशान घर लौटेंगे, सब ठीक हो जाएगा।
राहत शिविर में गुज़रे हर दिन के साथ, कविता के मन में एक नया अहसास गहराता जा रहा था। वह अपनी बेटी जिया और बेटे मीत को देखती, जो लगातार शिकायत कर रहे थे। कभी उन्हें खाने-पीने की चीज़ों से दिक्कत होती, तो कभी उन्हें फोन न मिलने या एसी न होने की शिकायत होती। वे अपनी माँ-पिता को लगातार परेशान कर रहे थे, और हर छोटी-मोटी असुविधा पर उनका चिड़चिड़ापन बढ़ जाता था।
वहीं, दूसरी ओर, सीमा के बच्चे, आशीष और रिया, अपनी उम्र में कविता के बच्चों से थोड़े छोटे होने के बावजूद, हालात को कहीं ज़्यादा बेहतर तरीके से समझ रहे थे। वे अपना खाना ख़ुद खाते, अपने बर्तनों का ध्यान रखते, और अपने माता-पिता को बेवजह परेशान नहीं करते थे। वे जानते थे कि यह मुश्किल घड़ी है और इसमें शिकायत करने से कुछ नहीं होगा। वे धीरज से अपने माता-पिता और दादा-दादी के साथ बैठे रहते, कभी कोई कहानी सुनते, तो कभी आसपास के बच्चों के साथ शांति से खेलते। कविता ने महसूस किया कि सीमा ने अपने बच्चों की परवरिश कहीं ज़्यादा अच्छे तरीके से की थी। उसके अपने बच्चे तो जैसे दिखावे की दुनिया में उलझ गए थे, जहाँ सुख-सुविधाओं के बिना वे एक पल भी नहीं रह सकते थे।
कविता की नज़रें बार-बार अपने सास-ससुर पर भी जाती थीं। उसे याद आता था कि कैसे उसने उन्हें वृद्धाश्रम भेजने का विचार किया था, यह जानते हुए भी कि उन्हें यह बात कहीं-न-कहीं पता चल गई होगी कि कविता उन्हें पसंद नहीं करती। लेकिन इसके बावजूद, उसके सास-ससुर ने एक बार भी कोई शिकायत नहीं की थी। वे शांत भाव से हर परिस्थिति का सामना कर रहे थे। वे खुद लाइन में लगकर भोजन और पानी लाते, और सबसे पहले अपने बेटे संजय, कविता और बच्चों का ध्यान रखते। वे प्यार से उन्हें समझाते, उन्हें हिम्मत देते, और कोशिश करते कि उन्हें कम से कम तकलीफ हो।
यह सब देखकर कविता का मन अंदर ही अंदर बदलने लगा। उसके दिल में एक अजीब-सी कसक उठ रही थी। उसे अपनी सोच पर शर्मिंदगी महसूस हो रही थी। वह मन ही मन यह बात स्वीकार कर रही थी कि उसने जीवन में बहुत बड़ी गलती की थी। उसने अपने बच्चों को सिर्फ़ भौतिक सुख दिए थे, जबकि सीमा ने उन्हें जीवन के असली मूल्य सिखाए थे—धैर्य, संतोष, और रिश्तों की अहमियत।
कविता ने अपने मन में दृढ़ निश्चय कर लिया था कि एक बार जब वे इस आपदा से निकल जाएँगे और अपने घर लौटेंगे, तो वह अपने सास-ससुर से ज़रूर माफ़ी माँगेगी। उसे पता था कि अपने बच्चों को सही संस्कार देना थोड़ा मुश्किल होगा, क्योंकि उसने खुद ही उन्हें इस तरह बिगाड़ा था। पर उसने ठान लिया था कि वह कोशिश ज़रूर करेगी। अब उसे समझ आ गया था कि असली घर दीवारों से नहीं, बल्कि परिवार के प्यार, त्याग और एकजुटता से बनता है।
अगले दिन सुबह, राहत शिविर में एक सुकून भरी खबर गूँजी। सरकारी अधिकारियों ने घोषणा की कि चक्रवाती तूफान ‘जलधारा’ का प्रकोप थम गया है और शहर में जलभराव भी काफी कम हो गया है। लोगों को अब अपने-अपने घरों को लौटने की अनुमति थी। चारों ओर एक खुशी की लहर दौड़ गई, और लोग अपने-अपने सामान समेटने लगे।
शेल्टर होम से निकलते हुए, कविता और सीमा एक-दूसरे के गले लगीं और विदा ली। दोनों परिवार अपने-अपने घरों की ओर रवाना हो गए।
कुछ दिनों बाद, जब जीवन फिर से पटरी पर लौटने लगा, तो सीमा के पास कविता का फोन आया। कविता ने सीमा और उसके पूरे परिवार को अपने घर पर खाने पर बुलाया। सीमा थोड़ी हिचकिचाई। उसे याद था कि कविता को दिखावा कितना पसंद था, और उसे डर था कि कहीं उसे या उसके परिवार को अजीब महसूस न हो। उसने अपनी सास, सुशीला जी, को अपनी चिंता बताई।
“माँ जी, दीदी ने खाने पर बुलाया है,” सीमा ने कहा।
सुशीला जी ने मुस्कुराते हुए कहा, “बेटा, जब उसने प्यार से और बार-बार बुलाया है, तो चले जाते हैं।
जब सीमा का परिवार कविता के फ्लैट पर पहुँचा, तो दरवाज़ा खुला था और अंदर का नज़ारा देखकर वे एक पल के लिए हैरान रह गए। कविता का फ्लैट बहुत भव्य था और माहौल में एक अद्भुत गर्माहट थी। ड्राइंग रूम में कविता अपनी सास के साथ बैठी हुई थी और दोनों हँस-हँसकर बातें कर रही थीं। एक सोफ़े पर कविता के ससुर, मीत और जिया के साथ बैठकर टीवी देख रहे थे। बच्चों के हाथ में कोई फ़ोन नहीं था।
यह देखकर सीमा के चेहरे पर एक सुखद आश्चर्य फैल गया।
कविता तुरंत उठी, उसने अपनी बहन को गले लगाकर गर्मजोशी से स्वागत किया। फिर उसने अपने सास-ससुर का, और उसके बाद अजय, प्रकाश जी और सुशीला जी का अभिवादन किया। थोड़ी देर औपचारिक बातचीत के बाद, कविता ने अपने बच्चों, मीत और जिया, को बुलाया। बच्चों ने भी सीमा और उसके परिवार का अभिवादन किया।
थोड़ी देर बातें करने के बाद, कविता ने कहा, “चलिए, खाना लगा देते हैं।”
तभी उसकी सास ने कहा, “बेटा, मैं तुम्हारी मदद करती हूँ।”
कविता ने मुस्कुराकर कहा, “नहीं माँ जी, आप यहीं सबके साथ बैठिए। मैं अभी लेकर आती हूँ।” कविता ने अपनी मेड के साथ मिलकर सारा खाना खुद परोसा और डाइनिंग टेबल पर सजाया। उसने बच्चों के लिए छोटे-मोटे स्नैक्स के साथ, सारा खाना घर पर ही बनाया था।
खाने की मेज पर, बच्चे बहुत खुश थे। सभी आपस में मिलजुलकर बैठे थे, बातें कर रहे थे और हँस रहे थे। कविता के बच्चे भी सीमा के बच्चों के साथ घुलमिलकर बातचीत कर रहे थे। बातों-बातों में वक़्त का पता ही नहीं चला। खाने के बाद, कविता के बच्चे, मीत और जिया, सीमा के बच्चों, आशीष और रिया, को अपने साथ खेलने के लिए ले गए। कविता और सीमा के सास-ससुर भी आपस में बातें करने लगे।
फिर सीमा का हाथ पकड़कर कविता उसे अपने कमरे में ले गई।
कविता ने सीमा का हाथ थामे रखा। “सीमा, मुझे याद है, जब तुम पिछली बार तुम्हारे यहाँ आई थी, तो मैंने तुमसे बहुत कुछ कहा था और मैंने कितनी ग़लत धारणाएँ पाल रखी थीं।” उसने एक गहरी साँस ली। “मुझे लगा था कि मेरा बड़ा घर, मेरी सारी सुख-सुविधाएँ… यही जीवन का सार है। मैं समझती थी कि परिवार के साथ रहने से बस काम और ज़िम्मेदारियाँ बढ़ती हैं।”
उसने अपनी नज़रें ज़मीन पर गड़ाईं और फिर सीमा की ओर देखा। “पर उस बाढ़ में, जब सब कुछ छिन गया था, तब मुझे समझ आया कि ये आलीशान दीवारें कुछ नहीं हैं। मेरे बच्चे, जो एक पल भी फ़ोन या एसी के बिना नहीं रह सकते थे, वे कितने बेबस हो गए थे। और इधर तुम्हारे बच्चे… इतनी मुश्किल में भी कैसे शांत और समझदार बने रहे।”
कविता की आँखें नम हो गईं। “मुझे यह भी अहसास हुआ कि मैंने माँ जी और पापा जी को वृद्धाश्रम भेजने के बारे में सोचा था। मैं बस उन्हें अपने घर से निकलना चाहती थी चाहे वह अपने गांव वाले घर में जाए चाहे कहीं और। लेकिन वे तो उस मुश्किल घड़ी में भी मेरा और मेरे बच्चों का सबसे बड़ा सहारा बने रहे, जबकि मैं सिर्फ़ अपनी सहूलियत देख रही थी।”
सीमा ने शांति से अपनी बहन का हाथ थामा। उसने कुछ कहा नहीं, बस उसे देखा, उसकी आँखों में बहन के प्रति स्नेह और समझ थी।
कविता ने अपना सिर उठाया, उसकी आँखों में अब पश्चाताप की जगह एक नई दृढ़ता थी। “मुझे अपनी ग़लती का अहसास हो गया है, सीमा। मैं जानती हूँ कि मैंने बच्चों को बहुत लाड़-प्यार देकर बिगाड़ा है, उन्हें जीवन की सच्चाइयों से दूर रखा है। पर अब… मैं बदलूँगी। मैंने घर लौटते ही माँ जी और पापा जी से अपने व्यवहार के लिए माफ़ी माँगी।” उसने थोड़ा रुककर बताया, “और तुम यकीन नहीं करोगी, उन्होंने क्या कहा? उन्होंने कहा कि ‘अरे बेटा, माफ़ी की क्या बात है? तुम तो हमारे बच्चे हो, बच्चों से कभी-कभी गलतियाँ हो ही जाती हैं।’ उनकी बात सुनकर मेरा दिल भर आया।”
कविता ने आगे कहा, “मुझे लगा था कि बच्चों को सुधारना बहुत मुश्किल होगा, क्योंकि उन्हें अब आदत पड़ चुकी थी। पर तुम यकीन नहीं करोगी, जब से माँ जी और पापा जी ने बच्चों के साथ समय बिताना शुरू किया है, उन्हें कहानियाँ सुनाते हैं, उनके साथ खेलते हैं… बच्चों ने ख़ुद ही फ़ोन छोड़ दिए हैं। वे पहले अकेले रहते थे, इसलिए फ़ोन में लगे रहते थे। माँ जी और पापा जी ने उनकी जितनी भी बुरी आदतें थीं ना, वे सब इतनी प्यार से छुड़वा दी हैं। मुझे तो अब यकीन नहीं होता कि ये मेरे ही बच्चे हैं! उनके प्यार और धैर्य से मेरे बच्चे धीरे-धीरे काफ़ी समझदार और शांत हो गए हैं।”
कविता ने सीमा का हाथ थामते हुए अपनी बात समाप्त की, “मैं अब बहुत ख़ुश हूँ सीमा। मुझे अब पूरी तरह से समझ आ गया है कि बड़ों का आशीर्वाद क्या होता है। और घर सिर्फ़ महँगी दीवारों या आलीशान सुख-सुविधाओं से नहीं बनता, बल्कि परिवार में रहने वाले दिलों के आपसी प्यार, सम्मान और एकजुटता से बनता है।”
दोनों बहनें कुछ पल के लिए चुप्पी साध गईं, एक-दूसरे की आँखों में देखते हुए। उनकी खामोशी में गहरा स्नेह और समझदारी थी, जो उन्हें हमेशा के लिए एक नई और सच्ची डोर से बाँध गई थी।
समाप्त
प्रतियोगिता के लिए कहानी_ विषय_ घर दीवारों से ही परिवार से बनता है
मीनाक्षी गुप्ता