सूरज ढलने को था। आम के बगीचे की छाँव में, धूल भरी गलियों से उठती गरमाहट कुछ कम हुई थी। मैं, एक शहरी लेखक, पुराने कुएँ के पास चबूतरे पर बैठा, कॉपी पर कुछ ठीक कर रहा था। तभी आवाज़ आई:
“साब! ये कागज-कलम लेके क्या खोजते रहते हो? ज़मीन में गड़ा मिलता है क्या?”
मुड़ा तो देखा – जाहिल चाचा। पचास बरस के आसपास, चेहरे पर मिट्टी और पसीने की लकीरें, आँखों में एक अजीब सी चमक, जैसे किसी गहरे कुएँ का पानी। साधारण सा धोती-कुर्ता, पैरों में चप्पल नहीं।
“अरे जाहिल चाचा! बैठिए न।” मैंने जगह बनाई, “खोजते तो हैं… पर ज़मीन में नहीं। जीवन में कुछ सच ढूँढ़ने की कोशिश है।”
जाहिल हँसा, उसकी हँसी में कर्कशता थी, पर एक मिठास भी। बैठते हुए बोला, “सच? वो तो हम जैसे अनपढ़ के पास भी होता है, साब। बस, कागज पर उतारने की कला नहीं आती।”
“कैसा सच, चाचा?” मैंने पूछा, उत्सुकता से।
“देखो साब,” उसने एक टहनी तोड़ी, उसे मरोड़ते हुए, “जीवन… ये उस बैलगाड़ी जैसा है। दो पहिए – एक खुशी, एक गम। बिना गम के, खुशी का स्वाद नहीं आता। जैसे नमक बिना दाल फीकी।” उसकी आँखें कहीं दूर तक जाती लगीं, “मेरा छोटा बेटा… बुखार से चल बसा। क्या कहूँ उस दुख का? पर साब, उसी दुख ने सिखाया कि जो है, उसकी कदर करो। बड़ा बेटा अब शहर में मज़दूरी करता है… उसकी एक चिट्ठी, एक मुस्कुराता फोटो, तो लगता है जैसे जीवन का सार उसी पल में समा गया। खट्टा-मीठा… बिल्कुल आम के अचार जैसा।”
“पर चाचा,” मैंने टोका, “जीवन का उद्देश्य क्या है? बड़े-बड़े विद्वान इस पर किताबें लिख देते हैं।”
जाहिल चाचा का ठहाका गूँजा, “हाँ साब! उद्देश्य? वो तो बहुत सीधा है। सुबह उठो, मेहनत करो, अपनों को पेट भर खाना दो, किसी की मदद कर दो अगर बन पड़े तो , रात को चैन की नींद सो जाओ।” उसने अपना मोटा हाथ मेरे कंधे पर रखा, “यही तो असली पढ़ाई है। बाकी सब… बातें हैं। उद्देश्य? वो तो हर सांस में बसा है – जीना। बस जीना। अच्छे से जीना।”
“पर चाचा, सच्चाई क्या है? दुनिया तो झूठ से भरी पड़ी है।” मैंने उसकी सरलता को चुनौती देना चाहा।
उसकी आँखें चमकीं, जैसे कोई गहरा राज़ बताने वाला हो, “सच्चाई? साब, सच्चाई वो पानी है जो कुएँ में तल पर होता है। ऊपर से देखो तो अँधेरा लगता है। डर लगता है। पर जब डुबकी लगाते हो, जोखिम उठाते हो, तो पता चलता है… वही पानी तुम्हें जीवन देगा।” वह गंभीर हो गया, “हमारा सच? वो यही मिट्टी है, ये पेड़ हैं, ये लोग हैं। बाहर की चकाचौंध… वो तो बुलबुले हैं। फूट जाते हैं। असली सच यहीं है। इन आँखों में, इन हाथों की मेहनत में, इन रिश्तों की गरमाहट में।”
चुप्पी छा गई। दूर से किसी गाय के बछड़े का रंभाना सुनाई दिया। जाहिल चाचा ने धीरे से कहा, “साब, तुम्हारी किताबें ठीक हैं। पर जीवन की किताब… वो तो हम जैसे जाहिलों के दिल पर लिखी होती है। कभी खट्टी, कभी मीठी लाइनें। पढ़ने के लिए डिग्री नहीं, दिल चाहिए। समझने के लिए सिर नहीं, अनुभव चाहिए।”
वह उठा, अपनी पीठ थपथपाई, “अब चलता हूँ। बकरी का बच्चा बाँधना है।” कुछ कदम चलकर रुका, मुड़ा, “और साब… उद्देश्य ढूँढ़ने बाहर मत भटकना। वो तुम्हारे भीतर ही है। जैसे इस पुराने आम के पेड़ की जड़ें ज़मीन में। बस, उसे महसूस करो।”
वह धीरे-धीरे गली में खो गया। मेरी कॉपी खाली थी। पर मेरा मन… एक अजीब सी गहरी, खट्टी-मीठी भावना से भर गया था। जाहिल चाचा के शब्द, उसके अनुभवों की गंध लिए हुए, कागज के सफ़ेद पन्नों से कहीं ज़्यादा स्पष्ट थे।
लेखिका का दृष्टिकोण –
जीवन का उद्देश्य भव्य लक्ष्यों में नहीं, बल्कि मेहनत, प्रेम और जिम्मेदारी के छोटे-छोटे पलों में बसा है। सच्चाई चकाचौंध में नहीं, बल्कि सादगी, संवेदना और धरती के सीधे स्पर्श में निहित है। यह यात्रा खट्टी (दुःख, कठिनाई) और मीठी (प्रेम, संतोष) दोनों अनुभवों से बुनी हुई है। असली ज्ञान किताबों में नहीं, बल्कि जीवन के कठोर अनुभवों और सरल हृदयों की गहराई में मिलता है। जाहिल चाचा जैसा साधारण व्यक्ति भी अपने अनुभवजन्य बोध से जीवन के इन गूढ़ सत्यों को उजागर कर सकता है। सच्चा ज्ञान वही है जो हमें जीना सिखाए, न कि सिर्फ़ सोचने पर मजबूर करे।
डॉ० मनीषा भारद्वाज
ब्याड़ा (पंचरूखी) पालमपुर
हिमाचल प्रदेश ।
# साप्तहिक विषय – जाहिल