रविवार की सुबह थी। धूप अलमारी के काँच पर सरकती हुई जैसे बीते वक़्त को सहला रही थी। काव्या अपने पुराने सूट-कपड़े जमाने में लगी थी, और पास ही बैठी अन्वी कुछ सोच रही थी — वो अब 12वीं पास करके प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रही थी। लेकिन किताबों के बीच उसकी दुनिया बस वही नहीं थी। उसे पिज़्ज़ा, पास्ता, केक जैसी चीज़ें बनाना अच्छा लगता था। यूट्यूब पर रेसिपी देखती, फिर कुछ माँ से पूछकर उन्हें अपने ढंग से ट्राय करती। उसी बहाने वो माँ के पास बैठती, और कई बार सवाल कर देती — “माँ, दही जमाते वक़्त ऊपर ढकना ज़रूरी होता है क्या?”
काव्या हल्के से मुस्कुरा देती थी — वो सवाल रेसिपी का नहीं होता था, रिश्ते का होता था।
अलमारी के सबसे पीछे रखे एक कोने में अन्वी की नज़र पड़ी — जहाँ कुछ पुराने रजिस्टर और डायरी थीं। उसने एक डायरी निकाली — थोड़ी पीछे दबाकर रखी हुई थी, जैसे किसी राज़ को छुपाकर रखा जाता है। कवर पर हल्दी के जिद्दी दाग थे, जो शायद यूँ ही नहीं लगे थे, वो रसोई में बहते हुए आँसुओं और हँसी का हिस्सा थे। उस डायरी से एक महक आ रही थी — मिट्टी की, माँ के आँचल की, और चूल्हे की आँच पर चढ़ते वक्त की। अन्वी ने जैसे ही पन्ने पलटे, शब्दों के बीच कुछ और था — जैसे कोई आत्मा उसमें रह गई हो।
“चना दाल की खिचड़ी”, “लौकी के कोफ्ते”, “नारियल की बर्फ़ी”… ये रेसिपियाँ थीं, पर उनके साथ भावनाएँ थीं। कहीं लिखा था — “अगर मन बहुत थका हो, तो मूँग की दाल में थोड़ा घी और अदरक डालना — थकान उतर जाएगी।” कहीं एक कोने में पेंसिल से लिखा था — “ये रेसिपी माँ ने उस दिन बताई थी जब मैंने पहली बार अकेले चाय बनाई थी।”
काव्या चुपचाप बैठ गई। वो डायरी उसकी माँ सारिका की थी। जो उन्होंने अपनी माँ से सीखी थी। लेकिन यह कोई आम डायरी नहीं थी — यह उनकी ज़िंदगी की सबसे आत्मीय जगह थी। काव्या को याद आया, 1995 का वो वक़्त, जब वो खुद दसवीं में थी। माँ के साथ रसोई में बैठकर वो हर नई सब्जी की कहानी सुनती थी — कभी आलू-टमाटर की महक में कोई पुरानी याद, कभी बेसन की सब्जी में कोई भूली हँसी। वो सिर्फ रेसिपी नहीं माँगती थी, वो पूछती थी — “माँ, इसमें आपकी माँ क्या डालती थीं?” और सारिका का चेहरा चमक उठता था।
“इसमें ज़रूरी नहीं कितनी मिर्च है, ज़रूरी है कि कौन खा रहा है। रसोई में स्वाद से ज़्यादा यादें पकती हैं,” सारिका अक्सर यही कहतीं।
काव्या अब धीरे-धीरे डायरी के पन्ने पलट रही थी — उसमें कहीं उसकी माँ का लहजा था, कहीं उसकी अपनी हैंडराइटिंग भी थी, जब उसने कुछ खास दिन पर कोई रेसिपी माँ से लिखवाई थी — “माँ, इसमें नाप लिखो न प्लीज़।” और माँ कहतीं, “तेरा मन सही हो, तो नमक अपने आप ठीक लगता है।” काव्या सीखना चाहती थी, माँ सिखाना चाहती थीं, और ये डायरी दोनों की साझी कहानी थी।
अन्वी अब भी वहीं बैठी थी — वो देख रही थी कि कैसे माँ की आँखें भरी जा रही हैं। वो धीमे से बोली — “माँ, क्या मैं इसमें कुछ रेसिपीज़ अपनी भी लिख सकती हूँ? शायद जब मैं बड़ी हो जाऊँ और इसे खोलूँ, तो आपकी तरह मेरे भी आँसू मुस्कुरा जाएँ।”
काव्या ने उसकी ओर देखा — जैसे वक्त गोल घूमकर वहीं आ गया था। उसने डायरी का पिछला पन्ना खोला। वहाँ माँ सारिका की लिखावट में हल्की-सी एक पंक्ति थी — धुँधली, पर गूंजती हुई —
“कुछ राज़ कभी ज़ुबान से नहीं, रेसिपी में खुलते हैं। जो बात हम कह नहीं पाए, वो हमने स्वाद में डाल दी। यही हमारा ‘राज़ खोलना’ था।”
काव्या की उँगलियाँ वहीं ठहर गईं। उसके लिए ये सिर्फ डायरी नहीं थी — ये माँ के जाने के बाद भी उनकी मौजूदगी थी, जो हर त्यौहार, हर ख़ास दिन पर उसके साथ खड़ी रही। उस डायरी ने कितनी बार उसे संभाला, जब वह पहली बार अकेले रसोई में उतरी, जब पहला त्यौहार बिना माँ के आया, जब बेटी के जन्म पर कुछ खास पकाना था — हर बार उसी डायरी ने कहा था, “डर मत, मैं हूँ न।”
और आज, इतने सालों बाद, जब अन्वी ने उसे फिर से थामा — तो जैसे उसके भीतर तीन पीढ़ियों की मुस्कान और आँसू एक साथ बोल उठे।
क्योंकि उसमें तो वो राज़ थे जो आज के यूट्यूब में कहाँ होते हैं — वहाँ स्वाद मिल जाता है, पर भावना नहीं।
प्रिय पाठकों।
उम्मीद है ये कहानी आप सभी को अच्छी लगेगी।
ज्योति की कलम से🖊️
“राज़ खोलना मुहावरा आधारित”