“बिलकुल फाइनल है बाबूजी! अब चाहे सूरज पश्चिम से निकले या इंद्रदेव मूंगफली बेचने आ जाएँ, हमारी ललिता का रिश्ता उसी के साथ तय है। मेरी मर्जी के बिना इस घर में पंखा भी नहीं घूमता, फिर रिश्ते की बात ही क्या!”
पंडित बृजकिशोर शुक्ला ने अपनी चाय का घूँट भरा और अखबार को जोर से हिलाते हुए वाक्य पूरा किया। उनकी धर्मपत्नी शकुंतला देवी ने आँखों में आँसू भरकर देखा। यह पचासवीं बार थी जब वे अपनी बेटी ललिता के रिश्ते को ‘फाइनल’ घोषित कर चुके थे।
“पर पंडित जी,” शकुंतला ने स्वर को कोमल बनाते हुए कहा, “कल ही तो आपने कहा था कि डॉक्टर वाला लड़का ही सर्वोत्तम है क्योंकि ‘Health is Wealth’। आज आप कह रहे हैं कि आईएएस वाला… ये तो हुई न एक मुँह दो बात।”
“अरे! स्थितियाँ परिवर्तनशील हैं, प्रिये!” पंडित जी ने अखबार नीचे रखा, “कल मैंने सोचा, डॉक्टर की आय स्थिर रहती है। आज अखबार में पढ़ा कि आईएएस अधिकारी का तबादला महानगर में हुआ तो… उसकी ‘अनौपचारिक आय’… अस्तु, मैं उस विषय में नहीं जाना चाहता। सार यह है कि राष्ट्र सेवा भी हो जाए और ऐश्वर्य भी, तो क्या बुरा है?”
यह सुनकर ललिता, जो पास ही सोफे पर बैठी उपन्यास पढ़ रही थी, मुस्कुरा दी। “पापा, आप तो महान कूटनीतिज्ञ हो। चर्चिल भी आपसे सीख लेते। आपकी बातों का कोई भरोसा नहीं। सुबह कहते हो अंडा खाओ, प्रोटीन है। शाम को कहते हो, अरे! अंडा तो तामसिक है, यजुर्वेद में लिखा है।”
पंडित जी अपनी बेटी की बात सुनकर खिसियाए से हो गए। “बेटा, ज्ञान की कोई सीमा नहीं होती। नवीन शोध सदैव होते रहते हैं। मैं स्वयं को अपडेट रखता हूँ। इसे ‘ एक मुँह दो बात’ मत कहो, इसे ‘परिस्थितियों के अनुरूप नए सिरे से विचार करना’ कहते हैं।”
अगले दिन ऑफिस से लौटे तो उनका चेहरा कुम्हलाया हुआ था। शकुंतला देवी ने चिंतित स्वर में पूछा, “क्या हुआ? कोई बुरी खबर है?
“बुरी नहीं… किंतु… अत्यंत सोचनीय है,” पंडित जी ने अपना बैग कोने में रखा, “आज बॉस ने बताया कि कंपनी की हालत ठीक नहीं। लेयर ऑफ्स (छंटनी) की आशंका है।”
“हे भगवान!” शकुंतला देवी हाथ जोड़कर बैठ गईं।
“इसलिए,” पंडित जी ने गंभीर स्वर में कहा, “मैंने एक निर्णय लिया है। ललिता का रिश्ता उसी नौजवान से कर दो जो अपना पारिवारिक कारोबार संभालता है। व्यवसाय ही भविष्य है। नौकरी तो दासता है। मैंने तो अपनी जिंदगी इस दासता में गँवा दी। ललिता ने आकर कहा, “पर पापा, कल तो आप कह रहे थे कि बिजनेस में रिस्क ज्यादा है। बाढ़, अकाल, महामारी, टैक्स-रेड… सबका खतरा।”
“तू समझती नहीं है बेटा,” पंडित जी ने उसे डपटा, “जोखिम ही जीवन का स्वाद है। रिस्क है तो डिस्क है! नो पेन, नो गेन। यह सुनकर ललिता और शकुंतला देवी एक दूसरे का मुँह देखने लगीं। पंडित जी का ‘मुँह दो बात’ का रोग अब महामारी का रूप ले चुका था।
एक शाम, पार्क में बैठे-बैठे पंडित जी के पड़ोसी और सहकर्मी श्री वर्मा ने पूछा, “क्या हुआ बृजकिशोर, इतने उदास क्यों हो? रिश्ते की कोई टेंशन है?” पंडित जी ने एक लंबी साँस भरी। “वर्मा साहब, जिंदगी एक पहेली है। एक धोखा है। हम समझते हैं कि हम नियंत्रण में हैं, परंतु वास्तव में हम महज कठपुतलियाँ हैं।”
“अच्छा! तो आज दार्शनिक बन गए हो?” वर्मा जी हँसे।
“नहीं,” पंडित जी गंभीर हो गए, “आज सुबह मैंने बेटी से कहा कि जीवन में ऊँचे लक्ष्य रखो। दोपहर में मैंने सोचा, नहीं, साधारण रहकर भी सुखी जीवन जिया जा सकता है। अब बताओ, कौन सी बात सही है?”
वर्मा जी मुस्कुराए। “दोनों सही हैं, बृजकिशोर। ऊँचे लक्ष्य रखना अच्छा है, पर अगर वो नहीं मिले तो साधारण जिंदगी में सुख ढूँढना भी उतना ही अच्छा है। असली मुसीबत तो तब है जब तुम अपनी हर बात से पलट जाओ। तुम्हारा ‘ एक मुँह दो बात’ होना तुम्हारी सोच का विस्तार नहीं, तुम्हारे डर और अनिश्चितता का प्रतीक है। तुम हर पल दूसरों के विचारों और खबरों से प्रभावित होकर अपना मन बदल लेते हो।” पंडित जी स्तब्ध रह गए। वर्मा जी ने आगे कहा, “जीवन का उद्देश्य सिर्फ सही फैसला लेना नहीं है, बल्कि अपने फैसले को सही साबित करने का साहस जुटाना भी है। सच्चाई यह है कि कोई भी रास्ता पूरी तरह सुरक्षित नहीं है। नौकरी हो या व्यवसाय, प्रेम विवाह हो या अरेंज्ड, हर जगह थोड़ा जोखिम तो है ही। पर जो डर के मारे बैठ जाता है, वो जीवन के स्वाद से वंचित रह जाता है।”
उस शाम पंडित बृजकिशोर शुक्ला बहुत देर तक चुपचाप पार्क की बेंच पर बैठे रहे। वर्मा जी की बातें उनके दिमाग में गूँज रही थीं।अगले दिन सुबह, नाश्ते की मेज पर उन्होंने सबको इकट्ठा किया। “सुनो,”उन्होंने ठहर कर कहा, “मैंने एक निर्णय लिया है।”
शकुंतला देवी और ललिता की निगाहें मिलीं। एक और नया फैसला। “मेरा निर्णय है,” पंडित जी ने कहा, “कि अब से मैं कोई निर्णय नहीं लूँगा।”
सब हैरान। “मतलब?” ललिता ने पूछा।
“मतलब यह कि ललिता का रिश्ता तुम लोग मिलकर तय करो। मैं सिर्फ इतना चाहता हूँ कि लड़का अच्छा हो, पढ़ा-लिखा हो और तुमसे प्यार करे। बाकी चाहे वो डॉक्टर हो, आईएएस हो या व्यवसायी। मेरा ‘ एक मुँह दो बात’ का चस्का अब छूट गया है।”
कमरा एक पल के लिए सन्नाटे में डूब गया, फिर ललिता की खिलखिलाहट से भर गया। “वाह पापा! ‘कोई निर्णय नहीं लूँगा’… यह भी तो एक निर्णय हुआ ना!”
पंडित जी पहले तो चौंके, फिर अपनी इस नई उलट-पलट पर खुद ही ठहाका मारकर हँस पड़े। उस दिन उन्होंने समझा कि जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई यही है कि कभी-कभी अपनी ही बेवकूफी पर हँस लेना भी एक उद्देश्य हो सकता है। और बाकी सब… महज ‘ एक मुँह दो बात’ है।
डॉ० मनीषा भारद्वाज
ब्याड़ा (पंचरुखी ) पालमपुर
हिमाचल प्रदेश
#एक मुँह दो बात (मुहावरा और कहावत प्रतियोगिता )