एक कठोर कदम – गीता वाधवानी

 यहां सुमित्रा जी का बिल्कुल मन नहीं लग रहा था। वह पूरी तरह कोशिश कर रही थी कि मन लग जाए पर नई जगह पर मन लगने में कुछ समय तो लगता ही है, वह पुरानी यादों से जितना दूर होने की कोशिश करती थी,उतना ही उनमें उलझती जाती थीं। 

        पलंग पर लेटे हुए आज भी वह अतीत के सागर में गोते लगा रही थीं। उनके पति गोवर्धन दास, एक हंसमुख और जिंदा दिल व्यक्ति थे। दो बेटे अतुल और विपुल एक हंसता खेलता परिवार, गोवर्धन दास जी का नारियलों का व्यापार खूब फलाफूला था। दोनों पुत्रों को खूब पढ़ाया लिखाया,दोनों की जॉब लग गई और धूमधाम से विवाह भी हो गए बड़े बेटे अतुल की पत्नी का नाम था श्रेया और विपुल की विशाखा। 

         आज अतुल अपने पिता के सामने आकर खड़ा हो गया और कहने लगा-” पापा, 20000 दीजिए ना, मेरी कार का बड़ा खर्चा सामने आ गया है। ”  

 गोवर्धन दास जी ने पैसे दे दिए फिर छोटा बेटा विपुल आ गया और कहने लगा-” पापा मुझे 10000 दीजिए बाइक बनवानी है। ” 

 गोवर्धन दास जी ने उसे भी पैसे दे दिए, फिर दोनों बहुएं भी आ गई” पापा जी शॉपिंग करनी है “कह कर पैसे ले गई। 

 सुचित्रा जी ने गोवर्धन जी से कहा-” आप क्यों इनको इतने रुपए दे देते हैं, यह अब स्वयं कमा रहे हैं अपने खर्च खुद उठाएंगे, आप अपने लिए भी तो कुछ रखिए, व्यापार में इतनी मेहनत करते हैं,बुढ़ापे के लिए कुछ ना कुछ जमा पूंजी आवश्यक है। ” 

      गोवर्धन दास जी हंसकर कहते -” अरे पगली, तू क्यों इतनी चिंता करती है। बच्चों के लिए ही तो कमा रहा हूं और बहुएं भी तो बेटियां ही हैं, और फिर मुझे अपने बच्चों पर पूरा विश्वास है मुझे बुढ़ापे की कोई चिंता नहीं। ” 

 सुचित्रा जी चुप हो जाती क्योंकि उन्हें भी अपने संस्कारों पर पूर्ण विश्वास था। 

      एक बार काम पर जाते समय गोवर्धन दास जी का बहुत भयानक एक्सीडेंट हो गया और उनके सिर में गंभीर चोटे आई। किसी ने उनके मोबाइल से, जो उनकी जेब से निकाल कर बाहर गिर गया था उनकी पत्नी को फोन करके दुर्घटना के बारे में बताया। सुचित्रा तुरंत अतुल के साथ दुर्घटना स्थल पर पहुंच गई और उन्हें कार में अस्पताल ले गई। डॉक्टर साहब ने तुरंत गोवर्धन जी को इंजेक्शन लगाया और उनके गांव की जांच की और सिर के चोटों की जांच करने के बाद सर्जरी बताई। 

 सर्जरी तो सफल हो गई लेकिन गोवर्धन जी कोमा में चले गए। धीरे-धीरे उनका शरीर कमजोर होता जा रहा था। डॉक्टर साहब ने कहा था कि वह हिलडुल नहीं सकते ना ही बोल सकते हैं लेकिन सब कुछ सुन सकते हैं। सुचित्रा जी पूरा-पूरा दिन उनके पास बैठी रहती थी उनसे बात करती थी कि शायद वह कोमा से बाहर आ जाए लेकिन कुछ लाभ नहीं हो रहा था। गोवर्धन जी का व्यापार ठप हो चुका था और उधर इलाज में पैसा पानी की तरह बह रहा था। दोनों बेटे और बहुएं कभी-कभी उन्हें देखने आ जाते थे। 

         सुचित्रा जी को धीरज बांधने की जरूरत थी, उन्हें रोने के लिए एक कंधे की जरूरत थी, जो कि उन्हें अब तक नहीं मिला था। तब एक दिन उनकी कामवाली मालती अस्पताल में बाबूजी को देखने आई, वह गोवर्धन जी को बाबूजी कहती थी। तब सुचित्रा जी उसके सामने खुद को रोक न सकी और फूट-फूट कर रो पड़ी। मालती ने उन्हें बहुत हिम्मत बधाई और कहा कि बाबूजी जल्दी ठीक हो जाएंगे। 

        एक बार सुचित्रा जी अपने साफ कपड़े लेने घर आई तो उन्होंने सुना कि दोनों बहुएं बात कर रही थी। 

 श्रेया-” मम्मी जी को तो देखो, पैसा पानी की तरह बहती जा रही है पापा जी के इलाज पर।” 

 विशाखा -” हां हां, बच्चों के बारे में तो कुछ सोच ही नहीं रही, ऐसा कब तक चलेगा क्या पता पापा जी होश में आएंगे भी या नहीं, ऐसे तो सब कुछ खत्म हो जाएगा। ” 

    तब सुचित्रा जी ने दोनों को बहुत डांटा और कहा-” शर्म आनी चाहिए तुम दोनों को, वह तो तुम दोनों को अपनी बेटियों की तरह मानते हैं और तुम दोनों——–, कितनी घटिया सोच है तुम्हारी। ” 

     वैसे ही सुचित्रा की अस्पताल के खर्चे को लेकर परेशान थी ऊपर से बहू की बातें सुनकर उनका दिल दुख से भर उठा। 

 उन्होंने सोचा था कि बैंक अकाउंट में 15 लाख है इलाज हो जाएगा लेकिन खर्च होता ही जा रहा था, उन्होंने जान पहचान वालों से 20 लाख उधार लिए थे और 5 लाख के अपने गहने भी बेच दिए थे। एक बार उन्होंने दोनों बेटों को अस्पताल में पैसे जमा करने के लिए कहा तो दोनों ने सिर्फ एक-एक जमा किया और फिर पीछे हट गए, कहने लगे हमारे पास पैसे कहां है। 

       एक बार दोनों भाई गोवर्धन दास जी के कमरे में अस्पताल में होने वाले खर्च को लेकर बातें कर रहे थे, गोवर्धन दास जी के कोमा में होते हुए भी, वह सब कुछ सुनने में समर्थ थे इसीलिए उनके बंद आंखों से आंसू बहने लगे और उसी दिन शाम को वह जिंदगी की जंग हार गए और कोमा में ही सदा के लिए इस संसार से विदाई ले ली। 

 सुचित्रा जी टूट चुकी थी, पैसा समाप्त हो गया था, कारोबार चौपट हो गया था। 5 महीने गोवर्धन जी कोमा में थे। अब दोनों भाई मकान के बंटवारे को लेकर रोज लड़ने लगे थे। सुचित्रा जी को इस बात की हैरानी थी कि दोनों बहुएं उन्हें अपने पास रखने के लिए लड़ रही थी, उन्हें लगा कि शायद गहनों का लालच होगा, लेकिन कहने तो उनके पास थे ही नहीं सिर्फ एक पतली सी चेन बची थी। 

 फिर एक दिन उन्होंने बड़ी बहू श्रेया को अपनी सहेली से फोन पर बात करते हुए सुना,” अरे यार कैसे आऊं घर के काम से फुर्सत ही नहीं मिलती, पहले तो जब पापा जी थे मम्मी जी सब कुछ संभाल लेती थी, हमें तो पता भी नहीं चलता था कि घर का काम कब हो गया, अब तो मैं बहुत व्यस्त हो गई हूं, उन्हें मनाने में लगी हूं कि मेरे साथ रहने लगे, मेरा मेड का खर्चा भी बच जाएगा और मुझे समय भी मिल जाएगा घूमने के लिए। ” 

 सुचित्रा की अकेलेपन से वैसे ही परेशान थी और अब बच्चों के व्यवहार से आहत थीं। उन्होंने अब बच्चों को सबक सिखाने के लिए एक कठोर कदम उठाने का निर्णय ले लिया था। उन्होंने एक रात दोनों बेटों को बुलाया और कहा-” मैं यह घर बेचना चाहती हूं तुम लोग अपने लिए किराए का घर ढूंढ लो, तुम्हारे पास तो पैसे हैं नहीं तुम दोनों ने ही कहा था पापा के इलाज के समय, वरना यह घर में तुम्हें ही बेच देती।” 

 बेटे-” लेकिन मन ऐसा क्यों, हम कहां जाएंगे, यह घर हमारा है बंटवारा कर दीजिए। ” 

 सुचित्रा-” नहीं यह घर मेरा है, तुम्हारे पापा के इलाज में कर्ज लिया था, वह मुझे चुकाना है, बोलो तुम लोग चुकाओगे क्या? और मैं वृद्ध आश्रम में रहने का फैसला कर लिया है वहां भी कुछ पैसे जमा करने होंगे मैं तुम्हारी पत्नियों की नौकरानी बनकर नहीं रहना चाहती। ” 

 श्रेया-” आप वृद्ध आश्रम क्यों जाना चाहती हैं हमने तो आपसे नहीं कहा” 

 सुचित्रा-” तुम दोनों चुप ही रहो। ” 

 आखिरकार दोनों बेटों को अपने लिए किराए का घर लेना ही पड़ा। सुचित्रा जी ने घर बेचकर कर्ज चुका दिया और वृद्ध आश्रम में बाकी पैसे दान कर दिए। एक ऐसा कठोर कदम उठाने में उन्हें बहुत तकलीफ हुई थी पर उन्हें सबक सिखाना जरूरी था। एक सोने की जो चेन उनके पास बची थी, वह उन्होंने मालती को उसकी बेटी के लिए दे दी। मालती उनके वृद्ध आश्रम जाने पर बहुत रो रही थी और वह चेन भी लेना नहीं चाहती थी। 

 तभी अचानक वृद्ध आश्रम में उनके कमरे में साथ रहने वाली आरती ने उन्हें आवाज लगाई, तो वे अतीत की यात्रा से लौट आई, और अपने वृद्ध आश्रम के साथियों के साथ मन लगाने की कोशिश करने लगीं। 

 दोस्तों, यह था एक मां का कठोर कदम, जो कि उनके लिए आसान नहीं था लेकिन स्वाभिमान के लिए जरूरी था। 

 स्वरचित अप्रकाशित गीता वाधवानी दिल्ली 

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