“सुनो नीरा,अपने लाड़ले से कह देना।अब घर खर्च थोड़ा बढ़ा दे,पत्नी आ गई है घर में।मुझसे उम्मीद ना रखे कि मैं उसका भी खर्च उठाऊंगा।और हां,बिजली का बिल,गैस सिलेंडर,और साप्ताहिक बाजार की जो जिम्मेदारी सौंपी है मैंने उसे,वो वैसी ही रहेंगी।”
निरंजन जी की कर्कश आवाज सुनकर नीरा को बहुत बुरा लगा आज।अभी -अभी तो शादी हुई है सुबोध (बेटे) की।नई नवेली दुल्हन के सामने अपने ही बेटे का अपमान होता देखकर आंसू निकल आए थे मां के।पति की तरफ आंखें तरेर कर कहा”कभी तो मीठा बोल दिया करो बेटे के लिए।जब देखो तब आग उगलते रहतें हैं।नई बहू जाने क्या सोचेंगी,आप के बारे में।अरे इतना जहर तो”
“हां-हां बोलो ना रुक क्यों गईं?सांप हूं ना मैं जहरीला।तभी तो जहर उगलता हूं।अगर तुम सब को यही लगता है ,तो यही सही।हूं मैं सांप।मुझे सात तारीख तक सारे हिसाब पुख्ता चाहिए।शादी की है,तो पत्नी की जिम्मेदारी भी साहबजादे को उठानी पड़ेगी।
मेरी पेंशन से तुम्हारा और मेरा खर्च आराम से हो जाता है।समझ गई ना।नौ बजने को आए ,अभी तक लाड़ला उठा नहीं होगा आपका।देख लीजिए,जब उठने की तबीयत करें,तब बता दीजिएगा।मेरे घर में मेरे हिसाब से रहना पड़ेगा।बस।”नीलांजन जी के अंगारे भीषण ज्वलनशील थे।जिस पर पड़ रहें होते,उसके कान से खून आना शुरू हो जाए।
नई बहू(मालती)चाय की ट्रे लेकर आई,तो नीरा ने अपनी नजरें नीची कर लीं।पक्का इसने मेरी और ससुर जी की बातें सुन लीं होगी।क्या सोचती होगी हमारे बारे में।छि:छि: अपनी नजरों में ही गिर गई मैं आज।ऐसे कड़वे बोल वाले ससुर की परिकल्पना तो की नहीं होगी,इसने। ट्रे मेज पर रखकर वह चुपचाप दो कप सास-ससुर की ओर बढ़ा दी।
जाने को हुई तो ससुर जी ने थोड़े कम गंभीर होकर कहा”देखो बहू, तुम सुबोध को बिस्तर में चाय देने की आदत मत डालो।बरसों से तुम्हारी सास को भी यही समझाते रहे गया,पर ये तो मदर इंडिया है ना।इसे तो बेटे की मिजाज़ पुरसी करना भला लगता है।
पर यह आज से तुम्हारी परीक्षा है,कि तुम सुबोध को चाय सबके साथ यहीं दोगी।तुम्हें कोई परेशानी तो नहीं होगी ,ना बहू?सर पर पिता का हांथ पड़ते ही मालती को स्वर्ग मिल गया मानो।छह साल में पिता को खोने वाली ,घर की सबसे छोटी बेटी को दोबारा पिता के मिलने का अहसास हुआ।
सुबोध और उनके पिता के मध्य शीत युद्ध लंबे समय से चल रहा था।पिता बिजली विभाग से रिटायर हुए थे।नौकरी रहते ही अपना घर और बेटी की शादी की जिम्मेदारी निभा चुके थे।छोटा बेटा भोपाल में नौकरी करता था।बड़े बेटे को घर से बाहर जाकर रहना कभी पसंद नहीं था।ऊपर से मां भी उसे दूर भेजना नहीं चाहती थी।घर के पास ही एक जनरल स्टोर खोलकर खुश रहता था वह।पिता की पेंशन अच्छी थी,जिससे घर के अधिकतर खर्च निकल आते थे।निरंजन जी समझ चुके थे कि बेटा जानबूझकर जिम्मेदारियों से भागने का आदी हो चुका है।
सुबोध को अपनी मां से पैसे मांगने में कभी झिझक नहीं हुई।अब शादी के बाद पत्नी के खर्चे भी जब सामने आने लगे,तो बौखलाने लगा था।साल भर में एक बेटी का पिता बन गया था सुबोध।पिता के ताने सुबह -शाम सुनते-सुनते थक गया था वह।पत्नी से एक दिन कह ही दिया उसने”तुम मेरे साथ अलग रह लोगी ना।सुबह सबेरे घर में किच किच शुरू कर देतें हैं पापा।ना समय देखते हैं, ना जगह।सर चीज का हिसाब मांगते हैं।तुम्हारे आने के बाद से उनकी हिटलरी ज्यादा बढ़ गई है।तुम अपने मायके चली जाओ अभी।मैं किराए का घर ढूंढ़कर तुम्हें ले आऊंगा।”मालती ने सीधे शब्दों में अपनी असहमति जता दी,तो सुबोध के आत्मसम्मान को फिर ठेस लगी।थक कर ठेकेदारी में काम करने लगा।इतनी कड़ी मेहनत ज़िंदगी में पहली बार कर रहा था वह।पिता की पारखी नजरों से कुछ छिपा नहीं था।पहली बार मुंह में गुटखा दबाकर घर आते ही पिता ने खूब खबर ली और कह दिया”इस घर में किसी भी प्रकार का नशा वर्जित है।घर में रहना हो ,तो नियम मानना पड़ेगा।दोबारा गुटखा खाकर आने की हिम्मत मत करना।”पिता बन चुके बेटे के लिए पिता द्वारा अपमानित होना अब असहनीय हो गया था।मालती के मायके से सुबोध पैसे मंगवाने लगा था ।बाजार में भी उधार हो गया था उसका।
बेटी अब दो साल की हो चुकी थी।मालती इस बार भी मायके आई तो मां से कुछ आर्थिक मदद की बात की।मालती की मां ने निरंजन जी को बताना जरूरी समझा।बेटी को छोड़ने आने के बहाने बात कर लेगी,ऐसा उन्होंने सोचा।मुसीबत में अपने बेटे की मदद करना हर पिता का फर्ज होता है।ये कैसे पिता हैं,एक रुपये भी कर्ज का पटाना नहीं चाहते।
आते ही निरंजन जी से बात की मालती की मां ने”,भाई साहब,सुबोध आपका बेटा है।मेरा दामाद है।मैं दो सालों से उसकी मदद करती आई हूं।आपकी घर में अत्यधिक दखलअंदाजी के कारण,मेरी बेटी खुश नहीं हैं।बाप -बेटे के बीच में मालती पिस रही है।अब मेरे पास भी इतना नहीं है कि हमेशा मदद कर सकूं।
मैंने बहुत सोच-समझकर यह फैसला किया है भाई साहब,कि मालती के गहनों को गिरवी रखकर फिलहाल सुबोध अपना कर्ज चुकाए।गहने तो बाद में भी बन सकतें हैं।मैं सहमति दे रहीं हूं गहने गिरवी रखने की।आप इतने कठोर मत बनिए।”
समधन की बातें सुनकर निरंजन जी मुस्कुराते हुए बोले”बहन जी,आप अपने दामाद को बहुत थोड़े समय से जान रहीं हैं।मैं उसका बाप हूं।स्वभाव से कठोर दिखता हूं,पर अपनी औलाद का बुरा नहीं चाह सकता।मेरे बेटे की निकम्मे पन की आदत शुरु से है।सोचा था शादी के बाद थोड़ा गंभीर हो जाएगा।
बहू भी मुझे सीधी -सादी मिली।उसका फायदा भी उठाने लगा,सुबोध।आपको भी लगता है ना,मैं हिटलर हूं।हां होना पड़ा मुझे।ज़िंदगी भर मेहनत से कमाकर अपने परिवार को चलाया है।बड़े बेटे में कोई ऐब तो नहीं है,पर मेहनत नहीं होती इससे।आपकी बेटी को भी बुरा लगता होगा,जब उसके पति को डांटता हूं।
यह सब मैं इनके भविष्य के लिए ही कर रहा हूं।मेरे कड़वे बोल का डर है तभी,आपका दामाद पान, तंबाकू,और शराब पीने की लत से बचा हुआ है।पैसों की अहमियत नहीं समझता,तभी उसे जिम्मेदारी देकर रखी है।
अपनी पत्नी और बेटी की जरूरतें पूरी करने बाज़ार से भी उधार लेकर बैठा है।मुझे सब जानकारी है,बस आपसे पैसे लेने की खबर नहीं थी मुझे।आपकी बेटी को पैसे मंगवाने से पहले मुझे बताना था।यह आखिरी महीना है,अगले महीने से उसे उधार कोई नहीं देगा।”
मालती ने पति की वकालत करते हुए कहना चाहा”पापा ,गहने गिरवी रखकर सारा उधार पट जाएगा।क्यों मानसिक तनाव बढ़ाना उनका।आप बस लॉकर से ले आइये ना जाकर।मुसीबत के समय ही तो ये जेवर काम आते हैं।”निरंजन जी ठहाका लगाकर हंसे और बोले”लो,तुमने तो खुद समस्या का समाधान कर दिया।
मुसीबत के समय ही जेवर काम आतें हैं।मुसीबत अभी आई नहीं है,और भगवान करे कभी आए भी ना।जिस घर से गहनों को बाहर गिरवी रखा जाता है,लक्ष्मी जी सदा के लिए रूठ जातीं हैं। सुबोध जो पैसे हर महीने घर खर्च के लिए देता है, मैंने उसे जोड़ कर रखा है।उसी पैसे से उसका सारा उधार चुकाएगा वह।धोखे में रखकर आपसे जो पैसे लिएं हैं उसने,वह मैं लौटा दूंगा,आप निश्चिंत रहिए।”
निरंजन जी की बातें सुनकर मालती की मां हांथ जोड़कर माफी मांगते हुए बोलीं”मुझे माफ़ कर दीजिए भाई साहब।मैंने अपनी बेटी के ससुर को अब तक कंजूस और आग उगलने वाला आदमी ही समझा था।अपनी बेटी और नवासी के भविष्य को लेकर बहुत चिंतित रहती थी।आपकी कड़वी बोली के पीछे जो सीख छिपी थी,अपने बेटे के लिए ,उसे मैं क्या कोई नहीं समझ पाया।सुबोध को ज्यादा मत बांटिएगा भाई साहब।मेरी विनती है आपसे।”
“नहीं-नहीं बहन जी,उसे अपनी गलतियों पर पश्चाताप तो करना पड़ेगा।जब तक अपने मुंह से अपनी करतूतें नहीं बताएगा सबको,उसका उधार चुकाऊंगा नहीं मैं।मैं नहीं चाहता ,बाहर मेरे बेटे को लोग झूठा और मक्कार समझे।आप के रहते ही उससे बात करूंगा मैं।”
शाम को सुबोध ने आते ही पत्नी और सास को देखा तो माथा ठनका उसका।पिता के सामने अपनी पोल खुलती देख, गिड़गिड़ाने लगा सास के सामने।तब निरंजन जी ने कहा”मीठे बोल बोलकर बाहरी लोगों ने तुम्हें झांसा दिया है।सट्टे में कितना पैसा डुबोया है तुमने,मुझे सब पता है।एक पिता बनकर भी तुम्हें पिता की जिम्मेदारी का अहसास अगर नहीं है,
तो आज से तुम अपनी गृहस्थी अपने आप ,अपने हिसाब से चलाओ।तुम्हारी बेटी के भविष्य का जुगाड़ मैंने कर दिया है।पढ़ाई के लिए और शादी के लिए उसके दादा ने पैसे एफ डी करवा दिएं हैं।उसके बालिग होने पर ही वह रकम निकलेगी।अपनी सास से पैसे लेकर तुमने मेरा सर झुका दिया है।अब तुम्हारा मेरे और अपनी मां के प्रति सभी जिम्मेदारियों से तुम्हें मैं मुक्त करता हूं।”
सुबोध पिता की गीली आंखों का सामना नहीं कर पाया।पिता के पैरों में गिरकर रोते हुए बोला”पापा,मैंने आज तक आपको हिटलर ही समझा।दीदी और छोटे के प्रति आपका नरम व्यवहार और मेरे प्रति कठोर व्यवहार का कारण मैं आज समझा।घर के मोह से कभी उबर ही नहीं पाया मैं।मन में हमेशा यही संतोष था कि,
आपकी पैंशन से घर चल ही जाता है।दोस्तों के बहकावे में आकर मैंने बहुत पैसा डुबो दिया।आपकी बातें हमेशा मुझे जहर ही लगीं।आपने मुझे ज़िंदगी की सीख देनी चाही,पर मैं आपकी सीख को आग समझता रहा।मुझे माफ़ कर दीजिए।मैं अब आपको आपका लायक बेटा बन के दिखाऊंगा।ससुराल से और बाजार से लिया सारा कर्ज मैं ही चुकाऊंगा।आपको छोड़कर मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं है।मुझे आखिरी मौका दे दीजिए।”
निरंजन जी ने सुबोध को उठाकर सीने से लगा लिया।मालती भी रोते हुए सोच रही थी कि अनजाने में उसने भी पति का साथ देते हुए पापा के बारे में कितनी गलत अवधारणा बना ली थी।दूध गैस से गिरे ना,नॉब कहीं चालू तो नहीं,पानी का मोटर बंद है कि नहीं,किराने का सामान खत्म होने से पहले आया कि नहीं ऐसी ना जाने कितनी महत्वपूर्ण चीजों का हिसाब रखने वाला पिता, दूरदृष्टा होता है -हिटलर नहीं।
शुभ्रा बैनर्जी
अंगारे उगलना