सीता और गीता बचपन की सख़्त जोड़ी थीं। एक ही गली में पली-बढ़ीं, एक ही स्कूल में पढ़ीं और फिर किस्मत ने दोनों की शादी भी एक ही शहर में कर दी। समय के साथ उनकी दोस्ती और भी गहरी होती चली गई। लोग उन्हें “राम-लखन” की तरह याद रखते, लेकिन महिला रूप में।
सीता स्वभाव से बेहद भावुक, सरल और त्याग की मूर्ति थी। वहीं गीता व्यवहारिक, तर्कशील और जीवन में आगे बढ़ने वाली महिला थी। उनके स्वभाव में ज़मीन-आसमान का फर्क था, लेकिन मन का जुड़ाव ऐसा था कि कोई भी बात एक-दूसरे से छिपी नहीं थी। वे एक-दूसरे के दुख-सुख की साथी थीं। यहां तक कि कुछ बातें जो उनके पति और बच्चों को नहीं पता थीं, वो भी वे एक-दूसरे से साझा कर लेती थीं।
एक बात पर दोनों की गहरी सहमति थी—दोस्ती में कभी पैसे का लेन-देन नहीं। गीता का कहना था कि “जहाँ पैसा आता है, वहाँ रिश्तों में दरार भी आ सकती है।”
लेकिन फिर समय ने करवट ली।
गीता का बड़ा व्यापार अचानक आग की लपटों में घिर गया। सब कुछ जलकर खाक हो गया। आर्थिक स्थिति इतनी बिगड़ गई कि गीता टूटने लगी। सीता से यह देखा नहीं गया। उसने अपनी सालों की बचाई जमापूंजी निकाल कर गीता को दी। गीता ने बहुत मना किया, लेकिन सीता ने समझाया—
“समझो उधार है, जब चाहो लौटा देना। तुम्हारी तकलीफ मुझसे नहीं देखी जाती।”
समय बीता और गीता ने फिर से अपने पैरों पर खड़ा होना शुरू किया। वह पहले से भी अधिक धनवान बन गई। लेकिन अब वह पुरानी गीता नहीं रही। सीता पैसे की बात नहीं करना चाहती थी, पर मन में एक आशा थी कि गीता खुद समझेगी।
जब सीता की बेटी की शादी तय हुई और पैसों की जरूरत आन पड़ी, तो उसने इशारों में मदद मांगी। लेकिन गीता ने साफ-साफ कह दिया,
“मैंने तो पहले ही मना किया था। तुमने खुद जिद की थी। अब उस पैसो को भूल जाओ।” गीता की नियत में खोट आ गई थी
सीता के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। वह न बोल सकी, न कुछ कह सकी। 35 साल की दोस्ती का यही अंजाम होगा, उसने कभी सोचा न था। आंखों में आंसू लिए वह चुपचाप लौट आई । उसे अब गीता की वो बात बार-बार याद आ रही थी—”पैसा दोस्ती को बदल देता है।”
पर सीता ने तो मदद दिल से की थी,
आज भी वह हर किसी से यही कहती है— “रिश्तों को संभालना है तो दिल से निभाओ,” क्योंकि आज भी उसे कहीं ना कहीं विश्वास है गीता को एक दिन अपनी गलती का एहसास जरूर होगा
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-दोस्ती ( आंसू पीकर रह जाना)
रेनू अग्रवाल