राजा विजयसिंह भोजन कर रहे थे। ऐसा बहुत कम होता था कि राजा को एकांत में भोजन का अवसर मिले। वह हमेशा ही व्यस्त रहते थे। हर समय राज्य के बड़े अधिकारी कोई न कोई काम लेकर उनके पास आते ही रहते थे। आज रानी जयवंती ने अपने हाथों से विजयसिंह का मनपसंद पकवान बनाया था। वैसे राज रसोई में बीस दासियाँ थीं
पर आज रानी ने सबको रसोई से बाहर भेज दिया। आज उनका मन अपने हाथों का बना भोजन राजा को खिलाने का था।
राजा का प्रिय सेवक मुंशीराम भोजन परोस रहा था। राजा तन्मय होकर खा रहे थे। रानी प्रसन्न थीं। मुंशीराम जानता था, जब राजा खुश होते थे तो उसे कुछ न कुछ इनाम अवश्य मिलता था। रानी जयवंती से तो वह अपने आप भी कुछ माँग लेता था।
राजा विजयसिंह की मूँछें बड़ी-बड़ी थीं। एकाएक उनका हाथ बहक गया। दही का ग्रास मुँह में न जाकर मूँछ पर गिर गया। राजा की मूँछें दही से सन गईं। उस समय मुंशीराम पास ही खड़ा था। पता नहीं कैसे रोकते-रोकते भी उसे हँसी आ गई। फिर झट से उसने हँसी रोक ली। पर वह एक पल की हँसी ही बहुत थी।
राजा क्रोध से काँप उठे। उन्होंने रूमाल से मूँछें साफ कीं और भोजन छोड़कर उठ खड़े हुए।
मुंशीराम के काटो तो खून नहीं। वह थर-थर काँपने लगा। समझ गया अब प्राणों की खैर नहीं। अपने को कोस रहा था कि हँसी होंठों पर कैसे चली आई। न जाने अब क्या होगा। शायद उसकी हँसी के बदले उसके परिवार को जीवन भर रोना पड़ेगा, दुख सहने होंगे। एक ही पल में इतना कुछ सोच गया बेचारा मुंशीराम।
विजयसिंह ने मूँछों पर लगी दही साफ कर ली, पर फिर भी कुछ लगी रह गई। उन्होंने ताली बजाई। एक सैनिक तुरंत अंदर आया। राजा ने कहा, “मंत्री को बुलाओ।”
बात की बात में मंत्री भी आ गया | “आज्ञा महाराज!” मंत्री ने हाथ जोड़े।
विजयसिंह ने गुस्से भरी आवाज में कहा, “मुंशीराम को काल कोठरी में डाल दो। इसका निर्णय कल होगा।”
1
मुंशीराम को बंदी बनाकर ले जाया गया।
रानी जयवंती भी एक तरफ खड़ी देख रही थी। उसकी समझ में न आया कि एकाएक हुआ क्या? पता चलता भी तो कैसे। क्योंकि मुंशीराम और राजा के बीच कोई शब्द नहीं बोला गया था। मुंशीराम हँसा नहीं था। दही में सनी हुई राजा की मूँछें एकाएक उसे विचित्र लगी थीं और बस…। जयवंती को मालूम था कि राजा को जल्दी क्रोध आ जाता था।
रानी धीरे-धीरे राजा के पास चली आई। विजयसिंह ने रानी की ओर देखा और फिर जयवंती के होंठों पर भी हँसी आ गई।
विजयिसंह गरज उठे, “तो तुम भी…” और उन्होंने रूमाल से मूँछें रगड़नी शुरू कर दीं। समझे शायद दही अभी तक मूँछों पर लगी है। लेकिन इस बीच तो मंत्री तथा सैनिक भी आकर चले गए हैं। तो क्या उन लोगों ने भी दही से सनी हुई मूँछों को देख लिया है? यह तो गजब हो गया। अब तो अकेले में ये मुझ पर हँसेगे। ओफ!
पलक झपकते ही रानी जयवंती पूरी घटना समझ गईं। उन्होंने ऐसा भाव बनाया जैसे उन्हें कुछ पता ही न हो। बोलीं, “महाराज, यह एकदम क्या हो गया?” ऊपर से रानी गंभीर बनी हुई थी, पर राजा की दही में सनी बड़ी-बड़ी मूंछों को कल्पना की आँखों से देखकर उनके मन में गुदगुदी हो रही थी।
वह जोर-जोर से हँस पड़ना चाहती थीं। लेकिन इससे तो बात और बिगड़ जाएगी।
अब राजा समझे किसी को कुछ पता नहीं चला। पर रानी से तो कहना ही था। उन्होंने कहा, “मूर्ख मुंशीराम हमारी हँसी उड़ाता है। भोजन करते समय मूँछों पर जरा-सी दही क्या लग गई, वह तो हँसने लगा।”
हँसी शब्द सुनते ही रानी जयवंती अपनी हँसी न रोक सकीं। जोर से हँस पड़ीं। बोली, “हँसी की बात पर कभी-कभी हँसी आ ही जाती है।”
“इस तरह हँसने की कीमत उसे अपने प्राण देकर चुकानी पड़ेगी।” राजा ने कहा और उत्तेजित भाव से इधर-उधर टहलने लगे।
“क्या आपने उस को प्राणदंड दे दिया है?”
“कल दरबार में यह निर्णय सुनाया जाएगा। आज की रात वह काल कोठरी में बिताएगा।”
रानी समझ गई, बेचारे मुंशीराम के प्राण बचने वाले नहीं। उन्हें दुख हो रहा था कि राजा इतने उतावले स्वभाव के क्यों हैं। पर अब कुछ तो करना ही था।
एकाएक उन्होंने कहा, “आपने मूँछें पूरी तरह साफ नहीं की हैं। लाइए, रूमाल मुझे दीजिए”
2
राजा ने इधर-उधर देखा फिर रूमाल रानी को थमा दिया। जयवंती ने राजा की मूँछें अच्छी तरह पोंछ दीं, फिर हँसकर बोलीं, “मैं देखती तो मैं भी हँसती। कितने अच्छे लग रहे होंगे उस समय आप। काश, मुंशीराम की जगह मैं होती तो हँसकर मन की तो निकाल लेती।” और वह जोर-जोर से हँसने लगीं।
अपनी मूँछों पर हाथ फेरते हुए राजा विजयसिंह भी हँस पड़े।
रानी ने कहा, “लेकिन अच्छा हुआ कि मैं न हुई। नहीं तो मुंशीराम के स्थान पर इस समय मैं काल कोठरी में पड़ी होती और कल सुबह आप मुझे प्राणदंड दे रहे होते। ईश्वर जो करता है, अच्छा ही करता है।”
राजा विजयसिंह अचकचा गए, “क्यों-क्यों…तुम्हें क्यों प्राणदंड देता? क्या तुम अपने को मुंशीराम के बराबर समझती हो?”
“हाँ, महाराज अपराध करने वाला केवल अपराधी होता है, न्याय दास या रानी में कोई भेद नहीं करता। मैं तो आपके न्याय की प्रशंसा इसीलिए करती हूँ।”
“हाँ, लेकिन…” राजा कुछ उलझ गए। बात उनकी समझ में नहीं आ रही थी।
“अगर आपको न्याय करना है तो फिर मुझे भी दंड दीजिए। क्योंकि मैं भी तो दही से सनी हुई मूँछें देखकर हँसी हूँ। है कि नहीं।” रानी ने कहा।
“रानी…”
“हाँ, महाराज, आप न्यायी राजा हैं। आपके हाथों अन्याय नहीं होना चाहिए। अगर आपने कल दरबार में नौकर को मृत्युदंड दिया तो मैं…मैं भी अपने अपराध के लिए वही दंड माँगूँगी। और तब आप मना नहीं कर सकेंगे।”
“रानी! यह क्या कह रही हो तुम! क्या तुम पूरी दुनिया में मेरी हँसी उड़वाओगी।”
“हाँ, मैं बताऊँगी कि आपका न्याय अपने-पराए में भेद करता है। इसलिए वह न्याय नहीं अन्याय है।” जयवंती ने कहा।“अगर इस तरह आप जरा-जरा-सी बात पर लोगों को काल कोठरी में डालेंगे, उन्हें मृत्यु दंड देंगे तो फिर मुझे हस्तक्षेप करना ही होगा। अगर आप चाहते हैं कि मैं ऐसा कुछ न करूँ तो मुंशीराम का अपराध बताइए?”
3
“अपराध तो…मैं…ऐसी तो कोई बात नहीं।” राजा विजयसिंह ने उलझन भरे स्वर में कहा।
“महाराज, आपकी मूँछों पर दही गिर गई। उस हालत में कोई भी आपको देखता तो उसे हँसी आ ही जाती। लेकिन बेचारा मुंशीराम शायद मनुष्य नहीं राज सेवक है। उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था। बस, उसी अपराध का दंड मिला है न! सच कहिए, क्या यह अपराध था?”
कुछ पल दोनों चुप रहे। फिर राजा ने कहा, “रानी, बस, एकदम क्रोध आ गया और बस…”
“महाराज, आप प्रजा के पिता हैं। आप किसी को कुछ भी दे सकते हैं। बेचारे मुंशीराम के प्राण उसे लौटा दीजिए। असल में तो बेचारे ने कुछ किया ही नहीं।”
रानी की बात सुन राजा भी अपनी गलती समझ गए। पर उन्होंने कहा, “अगर मैं अपना आदेश वापस लेता हूँ तो मंत्री न जाने क्या समझे…”
“कोई कुछ नहीं समझेगा। आप चुप रहिए। चाहें तो विश्राम कक्ष में चले जाइए। मैं मंत्री को स्वयं बुलाती हूँ।”
“ठीक है। मैं इस बारे में कुछ नहीं बोलूँगा। तुम मंत्री को बाहर के कक्ष में बुलाकर जो चाहे कह दो।” कहकर राजा वहाँ से दूसरे कमरे में चले गए।
जयवंती ने मंत्री को बुलवाया। हँसकर बोली, “महाराज का क्रोध शांत हो गया। मुंशीराम को मेरे पास भेज दीजिए।”
“मैं महाराज का कोमल मन अच्छी तरह समझता हूँ। मैंने मुंशीराम को बाहर ही बैठा रखा है। अभी भेजता हूँ।” मंत्री ने कहा और बाहर चला गया।
कुछ ही पल बाद मुंशीराम रानी के पास खड़ा आँसू बहा रहा था। जयवंती ने कहा, “घबराओ मत। जाओ, कल मैं फिर महाराज के लिए भोजन बनाऊँगी, तुम्ही परोसोगे।”
“रानी माँ…” मुंशीराम घबरा गया।
“अरे पगले, कुछ नहीं होगा।” रानी ने कहा और मुसकरा दी।
अगले दोपहर राजा विजयसिंह फिर भोजन करने बैठे थे। रानी रसोई में थीं। मुंशीराम भोजन परोस रहा था।
वह थर-थर काँप रहा था। राजा ने कहा, “मुंशीराम, डरो मत। आराम से भोजन परोसो। दही मूँछ पर गिरेगी तो…” और खूब जोर से हँसे। रसोई में रानी भी हँस पड़ीं। लेकिन मुंशीराम नहीं हँस सका। विजयसिंह ने गले का हार उतारकर मुंशीराम को थमा दिया। बोले, “रख लो। हाँ, लेकिन ध्यान रहे, किसी से कुछ न कहना।”
“महाराज की जय हो!” मुंशीराम की जान में जान आ गई। राजा जोर-जोर से हँस रहे थे।
(समाप्त )