“चुप्पी के पार” – ज्योति आहूजा : Moral Stories in Hindi

रश्मि की सुबह अलार्म से नहीं, ज़िम्मेदारियों से शुरू होती थी।

पाँच बजते ही दिन उसके इशारों पर नहीं, वो दिन के इशारों पर चलने लगती।

राकेश की चाय, बच्चों का टिफ़िन, कपड़े प्रेस करने से लेकर नाश्ते तक — हर चीज़ समय से।

लेकिन एक काम था जिसे उसने खुद से थोड़ा अलग रखा था —

झाड़ू-पोछा और बर्तन,

जिसके लिए थी शांता बाई।

शुरुआत में शांता भरोसेमंद थी —

समय पर आती, काम जल्दी निपटाती।

रश्मि ने उसे हमेशा इज़्ज़त दी, नौकर नहीं, एक इंसान समझा।

त्योहार पर मिठाई दी, सर्दियों में चाय दी, दर्द होने पर बैठने भी दिया।

मगर पिछले दो-तीन महीनों से,

शांता का व्यवहार बदलने लगा था।

कभी कहती —

“हाथ में दर्द है दीदी, आज बर्तन नहीं होंगे।”

कभी —

“बिटिया बीमार है, जल्दी जाना है।”

और कभी —

जल्दी-जल्दी आती और फटाफट कहती —

“घर पे मेहमान आ गए हैं, आज सिर्फ़ झाड़ू लगाऊँगी, पोछा कल कर दूँगी।”

पाँच से दस मिनट में झाड़ू लगाती और चल देती।

रश्मि बस देखती रह जाती,

कुछ कह नहीं पाती थी —

न जाने संकोच था या आदत,

या शायद वो सोचती थी,

“चलो, कोई बात नहीं। इंसान को थोड़ा सहयोग देना चाहिए।”

लेकिन यही उसकी छोटी-सी भूल थी —

जो अब धीरे-धीरे सहने लायक नहीं रह गई थी।

तीन दिन तक शांता बिना सूचना के नहीं आई।

रश्मि ने चुपचाप खुद सब किया —

बर्तन, झाड़ू, पोछा — सब।

पीठ में दर्द हुआ, बदन भारी हुआ,

लेकिन शिकायत किसी से नहीं की।

पति राकेश ने शुरुआत में थोड़ी मदद की,

पर तीसरे दिन वही कहा —

“कोई और रख लो।”

और फिर अख़बार खोल लिया।

रश्मि ने पड़ोस की बाइयों से भी मदद माँगी।

एक ने एक दिन मदद की,

दूसरी ने साफ़ कह दिया —

“दीदी, हमारे कई घर हैं, हम रोज़ नहीं आ पाएंगे।

आप किसी और से करा लो।”

वो समझ रही थी कि

हर किसी की सीमा होती है,

पर जब कामवाली छुट्टी मारती है,

तो बोझ सिर्फ औरत के हिस्से में क्यों आता है?

फिर चौथे दिन शांता आ गई।

ना कोई पछतावा, ना माफ़ी।

सिर्फ एक ठसक —

“मैंने तो पहले ही बताया था दीदी, आप भूल गईं शायद।”

रश्मि ने गहरी सांस ली।

उसके मन में एक ही बात उठी —

“कितना झूठ बोलने लगी है ये… साफ़-साफ़ झूठ।”

पर उसने कोई बहस नहीं की।

गुस्से से नहीं, आत्म-सम्मान से बोली।

“ठीक है बाई, अब आप मत आईएगा।

किसी और को रख लूँगी।

जब तक कोई नहीं मिलेगी, तब तक खुद कर लूँगी —

लेकिन इज़्ज़त से, मजबूरी से नहीं।

और जब आप इस घर से चली जाएँगी,

तो मैं क्या कर रही हूँ —

इससे आपको कोई मतलब नहीं होना चाहिए।

आप जाइए,

आज ही आपका हिसाब कर देती हूँ।”

उसी पल, रश्मि के मन में एक और सच उभरा —

“अब सोचती हूँ, कितनी बार इसने ऐसा किया —

कभी बिना बताए छुट्टी, कभी बहाने, कभी झूठ,

और मैं हर बार कहती रही — ‘कोई बात नहीं।’

यही मेरी भूल थी।

मैं सोचती रही कि इंसानियत है, समझना चाहिए।

मगर अब लग रहा है —

मैं खुद एक कठपुतली बन गई थी, बस डोरी इसकी मुट्ठी में थी।”

अब नहीं। अब मैं ही अपनी डोर थामूंगी।

रश्मि ने उसके हाथ में बकाया पैसे रखे,

और दरवाज़ा धीरे से बंद कर दिया।

इस “धीरे से बंद दरवाज़े” में भी वो ठहराव था

जो किसी रिश्ते के अंत के साथ आता है —

मगर आत्म-सम्मान की शुरुआत भी वहीं से होती है।

अगले दिन,

रश्मि ने फिर से खुद ही घर साफ किया —

झाड़ू लगाया, पोछा किया, बर्तन धोए।

थक गई थी, पर मन शांत था।

कुछ ही दिनों में एक नई कामवाली मिली — सरला,

जो शांत स्वभाव की थी, समय की पाबंद और विनम्र।

काम में चुस्ती, व्यवहार में नरमी।

रश्मि अब समझ चुकी थी:

“कभी भी किसी भी रिश्ते में,

चाहे वो घर का काम हो या बाहर का,

इज़्ज़त सबसे ज़रूरी होती है।

और अगर कोई तुम्हारे धैर्य को तुम्हारी कमजोरी समझे —

तो समय आने पर उसे माफ़ करो,

लेकिन सबक ज़रूर दो।

कठपुतली बनना आसान है,

मगर अपनी डोर खुद थामना ज़रूरी है।”

ज्योति आहूजा

#कठपुतली

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