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रीना सुबह से काम में लगी हुई थी। सबका चाय-नाश्ता बनाने के बाद जैसे ही वह निकली, देखा कि उसकी ननद सास के पास बैठकर धीरे-धीरे कुछ कह रही थी। रीना समझ गई थी, उसी का जिक्र हो रहा होगा। क्योंकि जब भी उसकी ननद ससुराल से आती है, अपनी मां का कान भरती रहती थी।
रीना की सास बहुत अच्छी थी। वह बातों को हंसी में टाल देती थी। फिर भी रीना को डर लगता था कि रोज-रोज घिसने पर तो पत्थर में भी छेद हो जाता है। यहां तो फिर भी इंसान है।
रीना की शादी को तीन साल हो चुके थे। इतने समय में उसने हर हाल में सबका आदर किया। उसकी सास की तबीयत भी अक्सर कमजोर रहती थी। रीना ही सब संभालती—देवरों की पढ़ाई, सास की दवाइयां, रसोई का पूरा काम।
एक दिन राखी का त्योहार आया। रीना की छोटी-सी बेटी चाचाओं को राखी बांध रही थी। ननद को यह भी अच्छा न लगा। वह बोली, “जब मैं हूं तो यह राखी क्यों बांध रही है? सब भाभी का सिखाया हुआ है। अपनी तरह इसे भी लालची बना देगी। तुम तो अपनी बहू को सिर पर चढ़ा दी हो। कुछ बोलती नहीं हो।”
यह सब सुनकर रीना को रोना आ गया। लेकिन इस बार रीना को बर्दाश्त नहीं हुआ। क्योंकि कहते हैं ना, एक मां अपने लिए सब कुछ बर्दाश्त कर सकती है। लेकिन अपने बच्चों पर गलत नहीं बर्दाश्त कर सकती।
वह इसका जवाब देने ही जा रही थी कि उसने सुना कि उसकी सास ननद को डांटते हुए बोली, “तुम एकदम चुप रहो। खबरदार अगर आज के बाद मेरी बहू को कुछ बोला। मैं इतने साल से सुनते आ रही थी लेकिन मैं चुप थी। सोचा तुम खुद समझ जाओगी, लेकिन तुम कुछ नहीं समझी यह नहीं तुम सिर पर चढ़ रही हो। यह कितनी अच्छी है, मुझे पता है। तुम्हें कुछ बताने की जरूरत नहीं।”
इतना सुनते ही उसकी ननद का चेहरा उतर गया। रीना के आंसू खुशी में बदल गए लेखिका
रेनू अग्रवाल
मुहावरा- कान भरना