देखो, तुम्हारी चिंता तो जायज है… ये कहते हुए सीमा ने अपनी सहेली राधा का हाथ थाम लिया। उनके बीच वर्षों पुरानी दोस्ती थी, पर आज की बात कुछ अलग थी। चिंता का बोझ राधा के चेहरे पर साफ झलक रहा था।
राधा के बेटे आदित्य ने अभी कॉलेज पास किया था और अब वह विदेश जाना चाहता था। वह चाहता था कि वह अपना करियर वहीं बनाए, वहीं सेटल हो जाए। एक मां के लिए यह गर्व की बात भी थी और दर्द की भी।
“मैं समझती हूँ, सीमा… वो बड़ा हो गया है, अपने फैसले लेने का हक है उसे, लेकिन…राधा की आवाज़ भर्रा गई, वो क्या जानता है, अकेले चुपचाप कमरे में बैठी मां की खामोशी को? हर त्योहार पर दरवाजे की ओर ताकती निगाहों को? मैं ये सब कैसे समझाऊँ उसे?
सीमा ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, राधा, यही तो मां का धर्म है। हम बच्चे को उंगली पकड़कर चलना सिखाते हैं, फिर एक दिन वही उंगलियाँ हमें छोड़ उड़ जाते हैं। और हमें वही उड़ान देखकर सुकून भी मिलता है।
राधा चुप थी, पर मन में ज्वार उठ रहे थे। उसने कहा, क्या मां होने का मतलब सिर्फ त्याग है? क्या हमारी भावनाओं की कोई अहमियत नहीं?
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है राधा, बहुत है, सीमा ने उसकी आंखों में देखते हुए कहा, “पर वो भावनाएं जब बच्चों की उड़ान में बाधा बन जाएं, तब हमें उन्हें सहेजकर रख देना पड़ता है। सोचो, अगर तुम्हारे सपनों में किसी ने बंधन डाला होता, तो तुम भी तो छटपटाती ना?
राधा कुछ देर चुप रही। कमरे में एक लंबा मौन पसरा। फिर वह धीमे से बोली, शायद तू ठीक कह रही है। चिंता मेरी अपनी है, और जिम्मेदारी भी। उसे दुआओं के साथ विदा करना ही अब मेरा फर्ज़ है।
सीमा ने मुस्कुरा कर कहा, बस यही तो समझाना चाहती थी। चिंता करना गलत नहीं, लेकिन उस चिंता को ममता की दीवार में कैद न कर देना। खुला आकाश देना, ताकि वो लौटने की वजह खुद तलाशे।
उस दिन के बाद राधा ने अपने आंसुओं को कागज़ पर उकेर दिया। बेटे के लिए एक चिट्ठी लिखी — स्नेह, आशीर्वाद और अपने जज़्बातों से भीगी हुई। आदित्य जब विदेश गया, तो वह चिट्ठी उसके पास थी — मां की आत्मा की छाया बनकर।
माता-पिता की चिंता स्वाभाविक है, पर वह चिंता यदि स्नेह और समझदारी में ढल जाए, तो बच्चों की राह आसान हो जाती है। रिश्तों में भरोसा, दूरी से नहीं, दिल की नज़दीकियों से बनता है।
स्वरचित-प्रतिमा पाठक
लेखिका/समाज सेविका
दिल्ली
वाक्य कहानी प्रतियोगिता-तुम्हारी चिंता तो जायज है।