बुढ़ापे का असली सहारा न बेटा न बेटी बल्कि बहू होती है – प्रतिमा श्रीवास्तव

जिस बहू को हमेशा से अपने ही घर में परायों सी जिंदगी गुजारने को मजबूर कर दिया जाता है वही बहू अपनी जिम्मेदारियों को निभाते – निभाते हर कदम पर ये साबित करती है की ये ही उसका परिवार है लेकिन फिर भी उसे वो स्थान या सम्मान कभी नहीं मिलता जो बेटी – बेटा को दिया जाता है।

सुमन शादी करके आई तभी से उसने अपने परिवार में जगह बनाने के लिए जद्दोजहद करती ही रहती लेकिन जब घर में सभी इकट्ठे होते तो वो हमेशा रसोईघर में होती या उसके आने पर ऐसा सन्नाटा छा जाता की कोई बात उसके कानों तक ना आ जाए।वो भी धीरे धीरे समझ गई थी और उसने अपने आपको सबसे अलग कर लिया था।ना वो किसी बात में हस्तक्षेप करती ना राय रखती। कामकाज करके अपने कमरे में चली जाती।

सुरेश जी कई बार सुनयना जी को टोक चुके थे कि,”तुम लोग सही नहीं कर रहे हो सुमन के साथ। बेटी पराई है कल को अपने परिवार में मस्त – व्यस्त हो जाएगी और बेटा नौकरी चाकरी में। सुमन के साथ ही बुढ़ापा गुजारना है और उस वक्त में तुम उससे अपनेपन की कैसे उम्मीद करोगी जब तुमने उसे कभी स्नेह दिया ही नहीं है।”

सुनयना जी तपाक से बोल पड़ी कि,” बेटा सही है तो बहू अपने आप सही रहेगी और ज्यादा बहू को सिर पर मत चढ़ाइए।कल की आई लड़की के पंख लगते देर नहीं लगेगी। हम सब परिवार के लोग अपना कुछ बातचीत करते हैं तो उसका क्या काम । उसको हर बात बतानी जरूरी नहीं है।”

सुनयना,” तुम बहुत बड़ी ग़लती कर रही हो क्योंकि हमें बुढ़ापे में बहू के साथ ही रहना है। “सुनयना जी एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देती थी।

सुमन ने अपने आपको उस परिवार से अलग ही कर लिया था। थोड़े दिनों में कमल के साथ चली गई । इधर कुछ सालों के बाद गीता  का भी विवाह हो गया था और ससुर जी अब रिटायर हो गए थे।

घर में मम्मी – पापा ही रह गए थे और कभी कभार एक – दो महीने के लिए सब लोग आ जाते और त्योहार पर सुमन

बच्चों के साथ चली जाती और रह कर आ जाती।

सुनयना जी को अब कोई ना कोई बीमारी घेरने लगी थी और घर के काम के पूरे समय किसी ना किसी की जरूरत पड़ने लगी थी।

सुनयना जी  बीमार पड़ती तब बेटी को बुला लेती। बेटी भी उसी शहर में थी तो आ जाती थी। इस बार जब बीमार पड़ी तो उन्होंने बेटी को खबर कहलाया की कुछ दिनों के लिए आ जाए लेकिन उसने साफ – साफ कह दिया कि,” मां मेरे परिवार की भी जिम्मेदारियां हैं और मैं ज्यादा नहीं संभाल पाऊंगी। अच्छा होगा की आप लोग भइया के साथ रहने लगो क्यों कि वो अच्छी तरह से आप लोगों की देखभाल करेंगे और उनकी जिम्मेदारी भी है।”

सही बात भी थी लेकिन बेटे के घर जाना ही नहीं चाहतीं थीं। बिस्तर पर पड़ी – पड़ी सोच ही रहीं थीं कि दरवाजे पर घंटी बजी और देखा की सुमन खड़ी थी।

सुमन!” तुम?” सुरेश जी अचंभित हो कर बोले।

” हां पापा जी… दीदी का फोन आया था की मम्मी जी की तबीयत ठीक नहीं है। आप लोगों ने तो हमें पराया ही कर दिया है। आपने मुझे ना सही अपने बेटे को भी नहीं बताया की मम्मी जी बीमार हैं।” सुमन की आवाज में दर्द साफ – साफ महसूस हो रहा था।

अरे,”नहीं बहू… ऐसा कुछ भी नहीं है। तुम लोग इतनी दूर रहते हो हमें लगता है की फालतू में परेशान हो जाओगे। तबीयत का क्या बुढ़ापे में ऊपर नीचे तो लगी ही रहती है।”

पापा जी,” परिवार ही अगर एक दूसरे के दुख सुख में ना काम आए तो किस काम का परिवार।”

आते ही घर का सारा काम और सुनयना जी की देखभाल सब संभाल लिया था सुमन ने। सुनयना जी को यकीन ही नहीं हो रहा था की जिस बहू को उन्होंने घर का सदस्य भी नहीं समझा था वो कितनी अपनी सी लगी थी।

मम्मी जी,” अब आप लोग हमारे साथ चलेंगे यहां अकेले रहने की जरूरत नहीं है क्योंकि आप लोग तो हमें कुछ बताते ही नहीं है और हम इतनी दूर से भाग भाग कर हर समय नहीं पहुंच पाएंगे।”

सुनयना जी आश्चर्यचकित सी थी क्योंकि लोगों ने तो कहा था कि बहू नहीं चाहती है की सास ससुर साथ में रहें और यहां तो बहू ही भाग कर आई और साथ ले जाने की जिद भी कर रही है। सचमुच में मैं कितनी गलत धारणा लेकर चल रही थी।

सुमन बहू,”अभी तो हमारा हांथ पैर चल रहा है।”

नहीं,” मम्मी जी इस उम्र में बीमारी बता कर नहीं आती है और हम लोगों के रहते आप लोग परेशान हों तो परिवार किस काम का है चलिए हमारे साथ कभी – कभी यहां आकर रह लीजिएगा जब आपका मन करे।”

सुमन के आगे किसी की नहीं चली थी और सभी लोगों को लिवा लाई थी अपने साथ।

मम्मी जी!” ये आपका घर है और अब से आप इस घर की मालकिन है हक से रहिए अपने घर में “और बच्चे भी दादी से लिपट गए थे।

सुनयना की आंखों में पश्चाताप के आंसू थे कि वो कितनी ग़लत थी। सचमुच में बहू ही होती है जो पूरे घर को साथ लेकर चलती है और मैं गलत थी।

सुमन ने सुनयना और सुरेश जी के लिए हर वो व्यवस्था कर दी थी जो उनको पसंद था और उनकी जरूरतों का था। सुनयना जी अतीत में चलीं गईं थीं की जब सुमन व्याह कर आई थी तो उसकी क्या जरूरत है और पसंद ना पसंद का तो कभी ध्यान ही नहीं दिया लेकिन सुमन उन लोगों का हर बात का कितना ख्याल रखती है।

बेटा तो सुबह शाम सिर्फ हाल खबर लेता है। दिनभर तो बहू के साथ ही वक्त बिताना रहता है। अगर बहू अच्छी नहीं होती तो घर में रह पाना मुश्किल था। सचमुच में बुढ़ापे का सहारा बेटा – बेटी नहीं सही मायने में बहू ही होती है।

बहू चाहे तो परिवार तोड़ भी सकती है बेटे को मां बाप से अलग भी कर सकतीं है और बुढ़ापे में मरने को छोड़ भी सकती है।

कहीं ना कहीं परिवार भी जिम्मेदार होता है उसके ऐसे बर्ताव करने के लिए क्यों कि जब किसी लड़की को परिवार का हिस्सा नहीं समझा जाता है तो वो भी उस परिवार को अपना कैसे माने। रिश्ते में जैसा बोओगे वैसा काटोगे ये वक्त हमेशा सिखाता है। कुछ लोग अलग भी होते हैं उनके संस्कार ऐसे नहीं होते हैं और वो अपनी जिम्मेदारियों से पीछे नहीं हटते हैं भले ही उन्हें वो सम्मान मिला हो या ना मिला हो।

सुमन भी ऐसी ही थी और उसने सास ससुर को माता पिता की तरह समझा था और उनका हमेशा ख्याल रखती थी। सुरेश जी और सुनयना जी बहुत खुश थे अपने परिवार में रह कर।

भले ही इंसान सोचता है कि बेटा सबसे पहले है और बहू की कोई कीमत नहीं है लेकिन ये बात सौ प्रतिशत गलत होती है।बहू अगर अच्छी है तभी परिवार एक सूत्र में बंध कर रह सकता है ये बात हर सास ससुर को समझनी चाहिए।

सुनयना जी का बुढ़ापा तो अच्छी तरह से गुजर रहा था और अब उनके जुबान पर सुमन का ही नाम होता था। सुमन की तारीफ करते नहीं थकती थीं सही भी था। एक खुशहाल परिवार ऐसा ही होता है जिसके घर में अपने सास ससुर के लिए स्थान होता है और दिल में सम्मान होता है।

                                   प्रतिमा श्रीवास्तव

                                    नोएडा यूपी

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