कार्यक्रम का आरम्भ दीप प्रज्ज्वलित कर होना था अत: आयोजकों ने भैरवी को दीप प्रज्ज्वलित करने के लिए स्टेज पर आमंत्रित किया. जब भैरवी स्टेज पर चढ़ी तब मल्हार की नज़रों से उसकी आँखें जा मिलीं. मल्हार की आँखों में आश्चर्य व प्रसन्नता के मिलेजुले से भाव उभरे और वह बोल पड़ा,
“अरे तुम…म..म…मेरा मतलब है भैरवी जी आप? यहाँ? मुझे ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि आपसे यहाँ मुलाक़ात हो जाएगी”
भैरवी ने कोई उत्तर नहीं दिया, बस मुस्कुरा कर रह गई. दीप प्रज्ज्वलन के बाद भैरवी अपने स्थान पर आकर बैठ गई. स्टेज से उतरते समय मल्हार की निगाहें अपनी पीठ पर चिपकी हुई सी महसूस हुईं उसे. कार्यक्रम के दौरान उसे लगता रहा कि जैसे मल्हार उसे देखकर ही गा रहा हो. मल्हार के गीतों में वह स्वयं की कल्पना उस विरहन नायिका की तरह करती रही, जिसका पति परदेस चला गया है या फिर जिसका प्रेमी या पति हरी चूड़ियाँ लाने का वादा करके देश की सीमा पर शहीद हो गया है.
दर्शकों भी मल्हार की जादुई आवाज़ में डूबकर लोकसंगीत की पावन, सुरीली, सुरम्य धारा में सराबोर होते रहे. मल्हार के हर गीत की समाप्ति पर पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँजता रहा.
भैरवी का मन भी यह सोचकर गर्व की अनुभूति में डूबता उतराता रहा कि वह उस मल्हार को बचपन से जानती है, प्रेम करती है, जिसकी आवाज़ की सारी दुनिया दीवानी है.
कार्यक्रम लगभग ढाई घंटे तक चला. कार्यक्रम की समाप्ति के पश्चात वहाँ उपस्थित पत्रकारों ने मल्हार को घेर लिया. भैरवी भी वापस घर जाने के लिए उठ खड़ी हुई, हालाँकि आयोजक उससे रात्रि का भोजन कर के वापस जाने का आग्रह करते रहे.
परन्तु भैरवी वहाँ से भाग जाना चाहती थी, अपने आप से भाग जाना चाहती थी या फिर दरअसल वह मल्हार का सामना नहीं करना चाहती थी. वह नहीं चाहती थी कि अतीत की जिन मृतप्राय यादों को उसने किसी अँधेरी घुप्प कोठरी में क़ैद कर रखा है, वे उस कोठरी से निकल कर पुन: जीवित हो जाएँ.
तभी किसी पत्रकार के शब्द उसके कानों से आ टकराए,
“मल्हार जी, आपने अभी तक विवाह क्यों नहीं किया ? क्या आपको अभी तक कोई भी ऐसी स्त्री नहीं मिली जो आपकी जीवनसंगिनी बन सके?”
मल्हार ने तिरछी नज़रों से भैरवी की ओर देखा, जैसे वे नज़रें बस उड़ती हुई सी भैरवी को छूकर निकल गई हों, फिर बोला,
“संगिनी तो मिली थी, परन्तु वह मेरी जीवनसंगिनी न बन सकी”
भैरवी तेज़ क़दमों से हॉल के बाहर चली आई और अपनी गाड़ी में बैठ गई. उसकी गाड़ी घर की ओर तेज़ी से भाग रही थी. आस पास के मकान, पेड़ पौधे, दुकानें सब कुछ पीछे छूटता जा रहा था, ठीक वैसे ही जैसे भैरवी अपने बचपन से लेकर अब तक के बिताए पलों को पीछे छोड़, आगे निकल जाना चाहती थी. उसके मन में भावनाओं का ज्वार उफ़न रहा था जिनमें लहरों की तरह हज़ारों सवाल उसे दिमाग़ तक आकर टकरा रहे थे.
“ओह ! तो अभी तक मल्हार ने भी विवाह नहीं किया है, मैं क्यों उसके प्यार की गहराई नहीं समझ पाई? मैंने क्यों बीते इतने सालों में मल्हार की कोई खोज ख़बर नहीं ली? मल्हार ने भी कभी मुझे ढूँढने या मिलने का प्रयास क्यों नहीं किया? क्या हमारा प्रेम इतना उथला था? क्या अब भी साथ-साथ हमारा कोई भविष्य हो सकता है? मैं क्यों आज मल्हार का सामना नहीं करना चाहती?
घर पहुँच कर भैरवी ने कपड़े बदले और अपने मनपसंद शास्त्रीय गायक भीमसेन जोशी की सीडी अपने लैपटॉप पर लगा दी. जब भी उसका मन उद्विग्न होता तो शास्त्रीय संगीत न केवल उसके मन को शांत करता बल्कि उसे सुकून पहुँचाता. पंडित जी की आवाज़ में सुकून की संगीत लहरियाँ पूरे घर में गूँजने लगीं.
तभी उसके इंटरकॉम फ़ोन की घंटी बजी. फ़ोन उठाने पर उसके बंगले पर तैनात दरबान ने बताया,
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भैरवी (आखिरी भाग ) – अंशु श्री सक्सेना : Moral Stories in Hindi
भैरवी (भाग 4 ) –
Iska ant aisa nhi hona tha
कथानक वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सटीक मेल खाता है, कुछ भी तो नाटकीयता नहीं
हकीकत को सुन्दर, सरल और सहज रूप से शब्दों में व्यक्त करने हेतु आपको बहुत बहुत शुभकामनाएं एवं बधाई