दरवाजे की घंटी बजी और डाकिया एक लिफाफा हाथ में पकड़ा गया। चिट्ठी आज के जमाने में… जल्दी से लिफाफा खोला,” मेरे प् FCयारे भैया, इस बार राखी पर आ नहीं पाऊंगी। अतः राखी भेज रही हूं।
तुम्हारी बहना।”,
लिफाफे में रेशमी राखी और साथ में अक्षत रोली । राहुल सोच में पड़ गया।
” कौन आया था, अच्छा डाकिया, दीदी की राखी लिफाफे में…यह सूरज किधर से निकला ,वे तो बिना नागा किये हर साल सपरिवार आ धमकती हैं” भव्या के तिरछे बोल। कोई और समय होता तो वह भव्या को झिड़क देता लेकिन अभी वह गहरी सोच में डूब गया।
वह दीदी से पांच-छः वर्ष छोटा था। एक महामारी में माता-पिता दोनों एक साथ चल बसे थे।तब दीदी ने मैट्रिक पास किया था और वह स्कूल में था।
सभी रिश्तेदारों ने धीरे-धीरे किनारा कर लिया। पिता जी की प्राइवेट नौकरी और मां विशुद्ध गृहिणी। संपत्ति के नाम पर यह पुराना घर, थोड़े से घिसे-पिटे बर्तन और नाममात्र के जेवर।
कुछ दिनों तक पड़ोसियों ने सहारा दिया फिर सभी अपनी घर-गृहस्थी में व्यस्त हो गए।
जब भूखे मरने की नौबत आ गई और स्कूल से राहुल के फीस जमा नहीं करवाने पर नाम काटने की धमकी मिली तब दीदी फूटकर रोई साथ में राहुल भी।
न उन दिनों मोबाइल था न सोशल मीडिया।दूसरे दिन दीदी रेखा ने हिम्मत की और राहुल का हाथ पकड़े उसके स्कूल पहुंची और प्रिंसिपल से अपनी सारी परेशानियां बताई। प्रिंसिपल सहृदय व्यक्ति थे उन्होंने सहयोग का आश्वासन दिया और रेखा को अपने मित्र के फैक्ट्री में दिहाड़ी मजदूर रखवा दिया।
रेखा मेहनती ईमानदार थी और राहुल अनुशासित और पढ़ने में तेज बच्चा था। धीरे-धीरे समय बीतता गया।रेखा की मेहनत ईमानदारी का प्रभाव प्रबंधन पर पड़ा और दीदी की नौकरी पक्की हो गई पैसे भी बढ़ गये ।
रेखा के शादी का उम्र बीतने लगा लेकिन उसकी परवाह किए बिना वह राहुल का जीवन बनाने में अपने को समर्पित कर दिया।
कुछ रिश्ते भी आये… कुछ सहानुभूति वश और कुछ मजबूरी का फायदा उठाने के लिए।
” देखा जायेगा” रेखा चट्टान बनकर खड़ी रही। राहुल पढ़-लिखकर सरकारी सेवा में लग गया और वहीं अपनी सहकर्मी भव्या के प्रेम जाल में आबद्ध हो गया। रेखा ने बिना देर किए दोनों की शादी करवा दी।
शादी समारोह में आये रिश्तेदार ताना देने लगे,” बड़ी बहन बैठी हुई है और अपना विवाह रचा लिया।”
” बड़ी बेशर्म भाई है ” जितनी मुंह उतनी बातें।
इसी बीच एक रिश्ता रेखा के लिये आया जिसमें अधेड़ व्यक्ति की आर्थिक स्थिति तो अच्छी थी लेकिन पत्नी के असामयिक निधन से दोनों बच्चे बेटा-बेटी बिलाला हो रहे थे। उन्हें उनको संभालने वाली पत्नी चाहिए थी। इधर रेखा की उम्र भी पैंतिस पार कर रही थी।
वह अनाथ बच्चों को देख द्रवित हो गई।उसे अपना दिन याद आ गया।वह विधुर से मिली और हां कर दी। राहुल ने बहुतेरा मना किया .” दीदी कोई न कोई मिल जायेगा,दुहाजु से विवाह,लोग क्या कहेंगे”।
” लोगों का काम ही है कुछ न कुछ कहना, लेकिन जब हम पर संकट पड़ी थी तब उन्होंने हमारा साथ दिया था, नहीं न …जब मुझे सब ठीक लग रहा है तब दुसरों का क्या।”
और जब दीदी ने दुल्हन का लिबास पहना तब उसकी सुंदरता शालीनता कर्मठता देखकर लोग दंग रह गए। दीदी अपने ससुराल चली गई और घर-गृहस्थी संभाल लिया। दोनों बच्चे नई मां के दिवाने हो गये । राहुल के हृदय से बोझ उतर गया।
दीदी साल में एकबार राखी में अवश्य आती। भव्या, राहुल, बच्चों के लिए कुछ न कुछ अवश्य लाती। लेकिन उनके साथ आये दोनों बच्चों का स्वागत सत्कार भव्या को बहुत अखरता।
दीदी के सामने तो नहीं लेकिन जाने के बाद राहुल को
कई दिनों तक ताने-तिश्ने सुनाती… राहुल हौले से समझाता,” तुम क्या जानो हम दोनों भाई-बहन किस दौर से गुजरे हैं।”
आज उसी दीदी का लिफाफा पाकर वह चिंतित हो गया। इससे अनजान भव्या अपने मायके जाने का कार्यक्रम बनाने लगी,” चलो इस बार दीदी नहीं आ रही है… शादी के बाद पहली बार राखी बांधने मायके जाउंगी।”
भव्या मायके चली गई और राहुल ने दीदी घर का रास्ता पकड़ा।
रक्षाबंधन के सुबह रेखा के दरवाजे की घंटी बजी,
” कौन आया “.
दर्द से कराहते रेखा ने पूछा और राहुल पर नजर पड़ते ही खुशी से चीख उठी,” राहुल तुम , अचानक कैसे आ गये, मैंने राखी भेज दी थी।”
” दीदी तुम ने कैसे समझा कि मैं राखी बंधवाने नहीं आऊंगा। .कम-से-कम एक बार रक्षाबंधन के बहाने ही सही हम मिलकर अपना दुख-सुख साझा तो करते हैं।”
” असल में थोड़ी तबियत खराब हो गई है।”
राहुल को देखते ही रेखा की बीमारी मानों उड़नछू हो गई। रेखा के पति बच्चे दौड़-दौड़कर आवभगत में लग गये। दीदी का सुखी संसार देख राहुल के कलेजे से अपराध बोध रुपी पत्थर हट गया।
यही है भाई-बहन का प्यार ।
रक्षाबंधन का पावन त्यौहार।
मौलिक रचना -डाॅ उर्मिला सिन्हा
बोनस कहानी