“बहू, ये मत भूलो कि भगवान सब कुछ देखता है!” — कहते-कहते लीला जी की आंखों से अश्रुधारा बह निकली। उनके चेहरे पर गहरी पीड़ा और असहायता साफ झलक रही थी।
लीला जी एक साधारण, पर सुसंस्कृत परिवार की स्त्री थीं। उनके पति राजेन्द्र जी स्कूल शिक्षक रह चुके थे—ईमानदारी, सादगी और आदर्श जिनकी पहचान थे। दोनों ने बड़े प्रेम और मेहनत से अपने इकलौते बेटे सुधीर को पाला-पोसा, उसे उच्च शिक्षा दिलाई और वह अब एक सम्मानित बैंक प्रबंधक बन चुका था। माता-पिता का गौरव, परिवार की शान था सुधीर।
सुधीर की शादी कामना से हुई, जो एक संपन्न व्यापारी की बेटी थी। धन-वैभव में पली-बढ़ी कामना को मध्यमवर्गीय जीवनशैली जल्दी ही अखरने लगी। आरंभिक दिनों की मुस्कानें जल्दी ही शिकायती लहजों में बदल गईं। वह आए दिन सुधीर पर दबाव डालने लगी कि वह इस “पुराने और तंग” घर को छोड़कर किसी पॉश कॉलोनी में नया फ्लैट ले।
लीला जी ने उसे समझाया—”बेटा, यह घर केवल ईंट-पत्थर नहीं, हमारी स्मृतियों और संस्कारों का मंदिर है। इसी आँगन में सुधीर ने पहला कदम रखा, और मैं चाहती हूँ कि उसके बच्चे भी यहीं पले-बढ़ें।”
पर कामना को इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ा। वह उल्टा चिढ़ गई—”मां जी, आप अपनी पुरानी सोच लेकर ही बैठी हैं। हमें आधुनिक ढंग से जीने दीजिए।”
स्थिति तब और बिगड़ गई जब कामना ने लीला जी पर मानसिक प्रताड़ना और दहेज की झूठी शिकायत करने की धमकी दे दी। बात इतनी बढ़ गई कि कामना ने सुधीर को भी अपने पक्ष में कर लिया। उसने घर में हर बात को तोड़-मरोड़ कर कहा और माता-पिता को दोषी ठहराया।
राजेन्द्र जी ने बेटे की आँखों में अविश्वास देखा, तो उनका मन टूट गया। अंततः उन्होंने अपनी पूरी जीवनभर की जमा पूंजी बेटे को सौंप दी और पत्नी संग चुपचाप घर छोड़ दिया।
एक दिन था जब यह घर किलकारियों और हँसी से गूंजता था, और एक दिन ऐसा आया जब वही घर खामोशी से भर गया। कामना अपने तथाकथित आधुनिक सपनों के साथ घर की शांति और आत्मा को निगल चुकी थी।
घर से जाते वक्त लीला जी ने बस एक बात कही थी—”भगवान से डरो बहू, वह सब देखता है। हमने तुम्हें बेटी समझा, पर तुमने हमें बोझ। हमने घर दिया, आशीष दिया, पर तुमने… हमें ही बेघर कर दिया।”
वक्त बीतता गया। कामना को भले ही सबकुछ मिला, पर शांति नहीं मिली। और लीला जी की वह अंतिम बात… “भगवान सब देखता है”… समय के साथ गूंजती रही।
स्वरचित-प्रतिमा पाठक
दिल्ली