बिटिया का घर बसने दो – दीपा माथुर :  Moral Stories in Hindi

पापा जब भी कोई चीज़ लाते,

मैं उसे बड़ी एहतियात से अपनी अलमारी में रख देती थी —

जैसे कोई अनमोल रत्न।

पर जो चीज़ मैं कभी मांगती भी नहीं थी,

वो पापा ख़ुद लाते थे —

किताबें।

छोटी-छोटी नैतिक कहानियाँ,

बाल मन को गढ़ने वाली कथाएँ।

आज के मोबाइल युग में भले ही सब कुछ “एक क्लिक” पर हो,

पर तब…

हर कहानी में छुपा एक रिश्ता होता था।

हर पन्ने में एक जीवन सूत्र।

दीवाली की सफाई होती,

तो किताबें निकलतीं,

धूल झाड़ती,

पढ़ी जातीं,

और फिर अपने स्थान पर चुपचाप विराजमान हो जातीं।

“तो मम्मी, आप उन्हें पढ़ती नहीं थीं?”

अन्ना ने पूछा।

मैं मुस्कराई,

“पढ़ती थी बेटा।

पर जो चीज़ जहां से ली हो,

उसे वहीं रखना सिखाया गया है।

तुम्हारे नाना साहब कहते थे —

‘वस्तु अपनी जगह पर हो, तो अंधेरे में भी मिल जाती है।'”

“ओह, तो आप हमें नाना साहब की तरह नियमों में पाल रही हैं?”

अन्ना हँसकर बोली।

मैं भी मुस्कराई,

“बेटियाँ ही तो घर का माहौल बनाती हैं —

हँसी से, रोशनी से, भावनाओं से।

और जब बेटी घर से जाए,

तो उसकी झोली में वो सब अनुभव भर देना चाहिए

जिससे उसका घर बस सके।”

“काम से डरना मत।

काम बने या बिगड़े,

हर काम एक नया अनुभव लेकर आता है।

कभी काम को बोझ मत समझना।

प्यार से करोगी, तो वही काम पूजा बन जाएगा।”

“और ससुराल में?”

अन्ना की आंखों में जिज्ञासा थी।

“वहाँ सब चाहते हैं कि कोई उन्हें समझे, सुने।

तुम्हारे जवाबों में धैर्य हो।

नकारात्मक उत्तर नहीं देना —

वरना मन में दरार बनती है।

प्यार से बात करोगी तो रिश्ते खुद-ब-खुद संवरते जाएंगे।”

“ओ मम्मी! आप तो कह रही हो जैसे मैं दब के रहूं?

आजकल का जमाना ऐसा है कि जो झुका, वही कुचला गया।”

अन्ना थोड़ी नाराज़गी से बोली।

तभी दादी कमरे में आईं —

“अन्ना, तुम्हारी मम्मी ने इस घर में कभी दबकर नहीं,

संवेदनाओं से जीकर इज़्ज़त पाई है।

जब तुम्हारी बुआ बीमार पड़ी थीं,

और उनकी बेटी पल्लवी जन्मी थी,

तो तुम्हारी माँ ने उसे अपने आंचल की छांव दी,

गोद में खिलाया, दूध पिलाया —

जबकि तुम खुद दो महीने की थी।

ये कोई बाध्यता नहीं थी —

ये ममता थी, रिश्ता था।”

“सास, ननद, जिठानी —

हर रिश्ते से बनीं,

बिना शोर के,

सिर्फ अपने व्यवहार से।”

अन्ना फिर बोली —

“पर दादी, क्या ज़रूरी है कि मेरे ससुराल वाले भी ऐसे ही हों?

मेरी दोस्त की मम्मी सबका ध्यान रखती हैं,

पर कोई उन्हें पूछता तक नहीं।”

दादी ने उसके माथे पर हाथ फेरा —

“बेटा, रिश्ते गूंथने पड़ते हैं —

स्नेह की डोरी से,

सलीके से।

उलझ जाएं तो गांठ पड़ जाती है —

जो सिर्फ जिद से नहीं,

संवाद और सहयोग से सुलझती है।

सम्मान पाना मत चाहो —

बस कर्म ऐसे करो कि लोग ख़ुद-ब-ख़ुद आदर करें।

कभी किसी के बुरे व्यवहार का जवाब ग़लत तरीक़े से मत देना।

तुम्हारे संस्कार, तुम्हारी ताक़त हैं।”

“ओह हो दादी! मम्मी!

आजकल मोबाइल है ना?

जो भी दिक्कत होगी, फट से कॉल करके पूछ लूंगी।

चिल रहो आप दोनों!”

कहती हुई अन्ना खिलखिलाती हुई दादाजी के पास चली गई।

दादी ने जाते-जाते कहा —

“देखो बेटी, अन्ना को वही शिक्षा देना

जो तुम अपनी बहू से चाहती हो।

ननद-भाभी की तुलना और पक्षपात से ही

घर के रिश्ते उलझते हैं।

अंतर वही मिटाता है,

जो निष्पक्ष प्रेम करना जानता है।”

मैं किताबों को सहेजते-सहेजते ठहर गई।

एक किताब की जगह खाली थी।

पर अब जगह खाली नहीं रही —

वहाँ एक सोच बैठ गई थी।

“बिटिया का घर बसने दो…

हर रिश्ता निभे — स्नेह से, समझदारी से, सलीके से।

हर अनुभव एक नई किताब बने —

जिसे वो भी पढ़े… और आने वाली पीढ़ी भी।”

दीपा माथुर

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