उस सुबह आसमान कुछ ज्यादा बोझिल था, जैसे बादल मेरे भीतर उठती बेचैनी को समझकर ही ठहर गए हों। घर के आँगन में एक अजीब-सी खामोशी पसरी हुई थी। माँ चौका-चूल्हा करते हुए भी किसी गहरी चिंता में खोई लग रही थीं। पिताजी चाय का कप हाथ में लिए बैठे थे, और उनकी आँखों में कोई अनकहा फैसला तैर रहा था।
मैं स्कूल के लिए अपना बैग उठाने ही वाली थी कि पिताजी ने धीमे से आवाज़ दी, “नंदिनी… एक मिनट बैठो।”
उनकी आवाज़ में कुछ ऐसा था कि मेरे कदम खुद रुक गए। मैं उनके सामने बैठ गई। कुछ देर वे चुप रहे, फिर बोले, “हमने सोचा है कि आगे की पढ़ाई यहीं पास वाले कॉलेज से कर लो। घर के पास रहोगी तो हम भी निश्चिंत रहेंगे।”
उनके शब्दों ने मेरे भीतर कुछ कस दिया।
“लेकिन पापा… मैं इंजीनियरिंग करना चाहती हूँ। जो यहां पर नहीं हो सकती है।
पिताजी ने नज़रें झुका लीं। माँ ने धीरे से कहा, “समय ठीक नहीं है बेटी… लड़की अकेली शहर में रहे तो डर लगा रहता है।”
मेरी आँखें भर आईं।
“तो सिर्फ इसलिए कि मैं लड़की हूँ… मेरे सपनों की ऊँचाई कोई दूसरा तय करेगा?”
तभी ताऊजी चौखट पर आकर खड़े हो गए। उनका चेहरा हमेशा की तरह सख़्त था।
“लड़कियों को इतना दूर पढ़ाने की ज़रूरत नहीं होती,” उन्होंने कहा।
“जितना पढ़ना है, यहाँ पढ़ लेगी। आखिर आगे चलकर घर-गृहस्थी ही संभालना है।”
उनकी बातों ने मेरे भीतर उभर रही हर उम्मीद को जैसे बुझा दिया। मैं अपने कमरे में चली गई और रो पड़ी। ऐसा लगा जैसे कोई मेरे सपनों पर पहरा बिठा रहा हो, और मैं बस उस पहरेदार को देखती रह गई हूँ—लाचार।
अगले दिन स्कूल में मैडम ने मेरा उदास चेहरा देखते ही पूछा, “क्या हुआ नंदिनी?”
मैं रोक नहीं पाई और सब कुछ कह दिया।
उन्होने मेरा हाथ थामकर कहा, “मैं भी एक बेटी हूं मुझे मालूम है डर हमेशा रहेगा नंदिनी… लेकिन सपने वहीं पूरे होते हैं जहाँ हिम्मत होती है। तुम प्रतिभाशाली हो तुमने बोर्ड परीक्षा में जिले में दूसरा स्थान पाकर हम सब का नाम रोशन किया है तुम जरूर आगे बढ़ोगी।”
उन्होंने मुझे इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला लेने के लिए प्रवेश परीक्षा और एक स्कॉलरशिप फॉर्म भरने को कहा, जिसमें पढ़ाई से लेकर रहने तक का पूरा ख़र्च शामिल था।
उस रात देर तक मैं उसे भरती रही। हर सवाल के जवाब के साथ मुझे लगा जैसे मैं खुद को साबित कर रही हूँ—कि मैं सिर्फ किसी की बेटी नहीं, अपने सपनों की मालिक भी हूँ।
कुछ हफ्तों बाद दोनों परीक्षाओं का रिज़ल्ट आया—मैं चयनित हो गई थी।
अब मैं खुश और आत्म विश्वास के साथ पिताजी के सामने खड़ी थी।
कुछ देर वे चुप रहे…फिर मुझे गले से लगाकर बस इतना कहा केवल इतना कहा,
“जाओ बेटा अब मैं तुम्हें और नहीं रोकूंगा। तुम सब कुछ कर सकती हो”
उस एक छोटे-से वाक्य में जो भरोसा था उसने मेरे सपनों को पाने की इच्छा शक्ति को और मजबूत कर दिया था।
शहर पहुँचकर जब हॉस्टल की खिड़की से रात में फैली रोशनियाँ देखती, तो मुझे अपना गाँव याद आता—माँ की चिंता, पिताजी की हिचक, और मेरी अपनी ही आवाज़, जो किसी बंद खिड़की के पीछे फँसी हुई थी। अब वही आवाज़ खुली हवा में साँस ले रही थी।
कुछ महीने बाद छुट्टियों में जब मैं गाँव लौटी, पिताजी मुझे देखकर मुस्कुरा दिए—उनकी आँखों में इस बार गर्व साफ़ दिख रहा था। माँ की आँखें भी चमक रही थीं।
ताऊजी वही थे—चौखट पर खड़े, अपने पुराने, सख़्त चेहरे के साथ। पर उस दिन उनकी आँखों में कुछ अलग था… मानो पत्थर में पहली दफ़ा एक महीन सी दरार पड़ी हो।
पिताजी ने पड़ोसियों के बीच गर्व से कहा, “हमारी नंदिनी इंजीनियरिंग कर रही है… बहुत अच्छा कर रही है।”
ताऊजी ने एक लंबी साँस ली।
थोड़ी देर चुप रहे।
फिर उतनी ही धीमी आवाज़ में बोले,
“अच्छा है… मेहनत कर रही है, तो आगे जाएगी।”
उनके शब्द छोटे थे, पर उनके लिए ये कहना ही मेरे लिए बहुत था।
मैंने महसूस किया—कभी-कभी एक बेटी सिर्फ अपनी नहीं, अपने पूरे घर की सोच बदल देती है।
उस रात मैं आँगन में बैठी आसमान को देख रही थी। वही आसमान, जो एक दिन मुझे भारी लगा था… आज हल्का लग रहा था। शायद इसलिए क्योंकि आज मेरे सपनों पर कोई पहरा नहीं था।
मैं बस इतना जानती हूँ—
अगर एक लड़की को उड़ने दिया जाए, तो वह सिर्फ अपने पंख नहीं फैलाती…
अपने पूरे परिवार की उड़ान बदल देती है।
सीमा अग्रवाल ‘जागृति’
कानपुर, उत्तर प्रदेश
मौलिक एवं अप्रकाशित
#’मैं भी तो एक बेटी हूं।’