.सुलोचना एक कुशल गृहिणी थी। पिछले कुछ वर्षों में पति ने घर चलाने के लिए जो पैसे दिए थे, उन्ही में से कुछ बचाकर इन्ही बूरे दिनों के लिए तो संचित किया था। संदूक निकालकर उसने विनयधर के आगे कर दिया। पत्नी की असली पहचान पति के विपत्ति के दिनों में होती है और सुलोचना ने अपनी कर्तव्यपरायणता का परिचय तो दे ही दिया था। पर विनयधर को यह गंवारा न था। उसे जितना स्नेह अपनी जीवनसंगीनी से था उतना ही भरोसा अपनी मेहनत पर था। अपनी पत्नी के संचित धन की शरण में जाने की अपेक्षा अपनी उद्यमिता का परिचय देना उसे ज्यादा तर्कसंगत लगा।
शहर में ही एक पहचानवाले कपड़े के थोक व्यवसायी से कुछ कपड़े खरीदकर दिनभर गांव-गांव भटकता फिरता। वहीं सुलोचना दिनभर कोल्हू के बैल जैसे घर के कामकाज में जुटी रहती। सास के ताने और अन्न के सिमित दाने में सामजस्य बिठाकर गृहिणी अपना घर चला रही थी। मुखमंडल की आभा भी जिम्मेदारियों के बोझ तले क्षीण पड़ चुके थे।
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अपनी लाडली के जीवन में आए उथलपथल की बात जब श्यामा के कानों तक पहुंची तो वह बड़ी चिंतित हुई। पर इस बात की संतुष्टि भी थी कि वह डटकर जीवनपथ की कठिनाईयों के प्रति संघर्षरत है। वहीं श्यामा की दोनो कुंवारी बेटियां अभिलाषा और कामना अपनी बड़ी दीदी की ऐसी दुर्दशा देख शादी के नाम से भी कोसों दूर भागने लगी थी। पर यौवन का उन्माद ज्यादा दिन तक छिपाए न छिपा और गलियों में खी-खी करते रहनेवाले गांव के ही एक आवारा युवक विजेंद्र को अभिलाषा अपना दिल दे बैठी। दिन भर गली-चौराहे पर यार दोस्तों के साथ बैठ आनेजाने वालों पर फब्बतियां कसना, अपने बलिष्ट शरीर का प्रदर्शन कर उसपर इतराना, कहीं भी कोई लड़ाई-झगड़ा या बलप्रयोग करना हो उसमें अपनी मौजुदगी दिखलाना विजेंद्र अपना परम कर्तव्य समझता। अभिलाषा के कामुक सौंदर्य के प्रति उसे बड़ी आसक्ति थी। मातापिता से नज़रें बचाकर दोनों मिला करते, जिसमे संझली बहन कामना उनकी भरपूर मदद करती और बदले में विजेंद्र से मनचाहा उपहार पाती।
तड़के ही काम के लिए निकली श्यामा गोधुलिबेला में ही घर लौटती और बेसुध होकर पड़ जाती। अपनी धून में रमी दोनों बेटियों को जरा भी फिक्र न रहता कि माँ को एक गिलास पानी भी पुछे। सुलोचना होती तो माँ के पांव दबाती, उसका हाल पुछती, थोड़ा लाड़ दिखाती, गुड़ के ठंडे-मीठे शर्बत पीने को देती। पर अभागी श्यामा के नसीब में कहाँ ये सब!
“अरे तुमसब खुसुर-फुसुर करते रहोगी या कुछ खाने को कुछ बनाओगी! सुलोचना होती तो बिना कुछ कहे चुल्हे-चौंके में लग जाती! ईश्वर ही सम्भाले ऐसी बेटियों को, नहीं तो ब्याहकर जाएंगी तो क्या कहेंगे ससुरालवाले कि माँ-बाप ने लड़की में जरा भी संस्कार नहीं भरे!” – हाथो से अपने ललाट दबाते श्यामा ने आवाज लगाकर कहा।
“देखो माँ, कहे दे रही हूँ तुम उस मनहूस की तुलना हम बहनों से न किया करो! हम जैसी भी हैं, कम से कम उससे तो लाख गुना अच्छी ही हैं। जहाँ तक बात रही ससुराल की तो ऐसे घर में मैं ब्याहना गंवारा नहीं करुंगी जहाँ गृहिणियों से कोल्हू के बैल की भांति काम लेते हैं! आज जमाना बदल रहा है, स्त्रियां भी पुरुषों के साथ क़दम से क़दम मिलाकर चलती हैं तो फिर पुरुषों को स्त्रियों के गृहकार्य में हाथ बटाने में लज्जा कैसी??” –भौवें चढ़ाते हुए और कंधा उचकाते हुए कामना ने कहा और पैर पटकती हुई रसोई की तरफ बढ़ गई जहाँ से अब बरतनों के खटकने की आवाज़ आने लगी थी।
गृहस्थी चलाने के लिए चित्त को उद्वेलित करने से ज्यादा सामंजस्य और सब्र की जरुरत पड़ती है, जिसका कामना में सदा से ही अभाव था। मनहूस होने की बदनामी झेलने के बावजूद भी धैर्यवान सुलोचना आज अपने ससुराल में इसलिए टिकी थी कि उसने सब्र, सामंजस्य और सूझबूझ का दामन न छोड़ा। मन में ढेर सारी बातें सोचते-सोचते श्यामा की पलकें झपने लगी। तभी अपने वक्षस्थल पर किसी की फिरती अंगुलियों का स्पर्श पाकर उसकी आंखे खुल गई। देखा तो मनोहर पास ही बैठा था और उसकी कामूक निगाहें श्यामा में डूबने को बेचैन थी।
जीवन के तीसरे पड़ाव की तरफ बढ़ने के साथ मनोहर ने अपने पागलपन पर तो एक हद तक विजय पताका फहरा लिया था। पर क्षीण होते शरीर में कामुक उन्माद बलवने के बावजूद भी वह श्यामा को तृप्त न कर पाता। फिर दोनों के उम्र में भी काफी बड़ा अंतर था। चालीस बसंत देख चुकी श्यामा का शारिरिक उपवन तनिक भी न मुरझाया था। खिले पुष्प के समान उसकी काया से तेज़, आभा, माधूर्य, कोमलता सदा प्रस्फुटित होती रहतीl आँखों से इशारे कर अधीर होते मनोहर को आलींगन के लिए इंतजार करने को कहा और रसोई की तरफ बढ़ गई।
रात्रि चढ़ने लगी और चांद-सितारे आंख मिचौली खेलने लगे। रात्रिभोजन कर सभी विश्राम करने को अपने-अपने कमरे में आये। भोजन से श्यामा की उदर पीड़ा तो मिट गई, पर दैहिक तृप्ति पाने में आज भी कोर-कसर रह गई। सबूरी को सिराहने रख फिर आद्र नेत्रों में निंद्रा ने दस्तक दिया तो दिन चढ़ने पर ही रिहा हुई।
अगली सुबह। दिन चढ़ने के साथ सभी अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गये। श्यामा तो ब्रह्मबेला में ही जीविकोपार्जन के लिए निकल गई। पिता को जलपान करा दोनो बहनें बनने-सवरने में व्यस्त हो गईं। उनकी नज़रें बार-बार मुंडेर से बाहर झाँक रही थी जैसे कोई आने वाला हो। कुछ ही देर में आवारा लड़कों का एक दल गली से गुजरा और अभिलाषा के चेहरे पर रौनक छा गई। दबें पांव दोनों घर के नीचे गलियारे में पहुंचे, जहां दो नवयुवक पहले से ही उनका इंतजार कर रहे थे। अभिलाषा जहां विजेंद्र से अपनी प्रेम-पिपासा मिटाने लगी, वहीं कामना साथ खड़े युवक के साथ चिंतित मुद्रा में किसी गम्भीर विषय पर चर्चा कर रही थी। अभिलाषा और विजेंद्र उसके पास पहुंचे तथा चिंता का कारण पुछ उन्हे हिम्मत बँधाया।
“प्रेम करनेवाले अगर इतना भयभीत होंगे तो आनेवाली नस्लों को इतिहास कभी भी प्रेम करने की इजाजत न देगा। जब पता है कि घरवाले तुमदोनों के विवाह की अनुमति नहीं देंगे तो व्याकुल होने से कोई लाभ नहीं। गाँव में विवाह करने पर तो पकड़े जाओगे। इसीलिए शहर जाओ और मंदिर में ईश्वर के समक्ष विवाह के बंधन में बंधकर आओ, आगे जो होगा सब मिलकर देख लेंगे। बस एक बात का स्मरण रहे कि मदद की आवश्यकता हमें भी पड़ सकती है।”- विजेंद्र ने कहा तो कामना की आंखो में आत्मविश्वास की हल्की सी किरण उभरी। कामना के प्रेमी ने बताया कि ब्राहमण ने अगले सप्ताह के शुक्रवार का दिन विवाह के लिए शुभ बताया है। सबकुछ तय कर और अपने-अपने प्रेमी को विदा कर दोनों बहनें अपने कमरे में लौट गयी।
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कुछ ही दिनों बाद। गांव के ही एक साहूकर के घर श्यामा जब चुल्हा-चौंका करने में व्यस्त थी तो द्वार पर किसी के पुकारने की आवाज़ आयी।
“श्यामा काकी? श्यामा काकी??” – दरवाजे पर खड़ा कोई किशोर पुकार रहा था।
“श्यामा? जरा देखना…कोई तुम्हे आवाज़ दे रहा है!”- भीतर कमरे से साहूकरनी ने कहा और काम अधूरा छोड़ श्यामा द्वार की तरफ बढ़ी।
“कौन? क्या काम है?”
“श्यामा काकी, जल्दी घर चलो! आपकी संझली लड़की ने किसी शहरी बाबू से ब्याह कर लिया है! मंझली दीदी ने आपको तुरंत घर आने को कहा है!”- किशोर की बातें सुन श्यामा के पैरों तले जमीन ही खिसक गई। साहूकारनी सरल हृदय की थी। उसने द्वार पर खड़े किशोर की सारी बातें सुन ली थी।
“श्यामा, तुम जाओ! चुल्हा-चौंका मैं देख लुंगी!”- साहूकरनी ने हिम्मत देते हुए कहा। साथ ही श्यामा को धैर्य से काम लेने की सलाह भी दी।
भागी-भागी श्यामा फिर अपने घर आयी तो देखा विलायती शर्ट-पैंट में एक हट्टा-खट्ठा युवक कमरे में बैठा कामना से हंस-हंसकर बातें कर रहा था। कामना की मांग में कुमकुम सजे थे और गले में मंगलसूत्र उसके वक्षस्थल को स्पर्श कर रहा था।
“ऐसा घोर कृत्य करते तुम्हे जरा भी लज्जा नहीं आयी। मेरे दिए संस्कारों को मिनटों में मिट्टी में मिला दिया। अरे तुम्हे ब्याह करने की इतनी ही जल्दी थी तो मुझसे कहती, मैं करा देती तेरा ब्याह।”- उंचे आवाज में श्यामा कामना पर बिफर पड़ी।
“तुम करा देती मेरा ब्याह?? हुह….!! देख लिया मैने, सुलोचना दीदी का ब्याह कैसे घर में कराया है!”- कामना के कहा फिर अपने पति की तरफ इशारा करते हुए कहा – “धन-सम्पत्ति की कोई कमी नहीं है इनके पास! पलकों पर बिठाकर रखेंगे मुझे! राज करुंगी मैं राज…समझी मां! बेवजह ही चिंतित हो रही हो तुम!”
“मां, मैं कामना को बहुत खुश रखुंगा! उसे कभी भी किसी चीज की कोई कमीं नहीं होने दुंगा! शहर में मेरा अपना घर, चमड़े का बड़ा करोबार है! आपकी लाडली को पलकों पर बिठाकर रखुंगा! घर पर बुढ़े माता-पिता है, जो चलफिर भी नहीं सकते! फिर मेरी कोई बहन भी नहीं है। इसलिए कलह-क्लेश की कहीं कोई गुंजाईश नहीं है।” – कामना के पति ने श्यामा को भरोसा दिलाया। पर अपनी बेटी के अधीर व्यवहार से श्यामा भलिभांति परिचित थी और उसे चिंता इसी बात की थी कि कहीं इसी अधीरता में अपने वैवाहिक जीवन में कोई बखेड़ा न खड़ा कर ले। पर दामाद सुलझा हुआ इंसान लगा फिर श्यामा के पास इस रिश्ते को स्वीकारने के सिवाय कोई चारा भी न बचा था और उसने अपनी स्वीकृति दे दी।
कामना के प्रेमविवाह और मां की सहज स्वीकृति को मंझली बहन अभिलाषा बड़े गौर से देखसुन रही थी और उसके हृदय में भी मनचाहा जीवनसाथी संग प्रेमविवाह रचने की इच्छा अंगड़ाईयां लेने लगी थी। पर एक तरफ जहाँ वह धैर्यवान थी, वहीं चपल भी। जानती थी कि थोड़े से मान-मनौवल के बाद मां आसानी से मान जाएगी। इसिलिए सही समय के आने का इंतजार करने लगी ताकि अपने भावी वर से मां का परिचय करा सके।
कामना अपने ससुराल चली गई, वहीं दूसरी तरफ सुलोचना जीवनसंघर्षों से रोज जद्दोजहद करती रहती। सास के तानों का अब उसपर जरा भी असर न पड़ता। उसे चिंता थी तो बस इस बात की कि पति की उन्नत्ति की राह में कोई रोड़े न आने पाये। समझा-बुझाकर उसने अपनी संचित सम्पत्ति विनयधर को सौंप कपड़े का एक छोटा सा दुकान करने के लिए मना लिया। विनयधर ने शहर की बजाय गांव में ही दुकान खोला और फेरी लगाकर गांव-गांव कपड़े बेचा करता।
एकदिन पास के गांव में एक घर के बाहर चादर फैला विनयधर कुछ स्त्रियों को उनकी पसंद की साड़ियां, लहंगे, आदि दिखा रहा था।
“विनयधर, तुम बड़े ही प्रसंशा के पात्र हो जो पत्नी के मनहूस होने के बावजूद भी उसके साथ जीवन निर्वहन कर रहे हो। कोई और होता तो अबतक उसे उसके मायके छोड़ आता।”- अपने लिए अलग-अलग किस्म की साड़ियां तलाशती एक महिला ने कहा।
“दीदी, ये तो सोच-सोच का फर्क है। जिसकी जैसी बुद्धि, उसकी वैसी परिकल्पना! अब मैं सबकी जिव्हा तो नहीं पकड़ सकता। पर मुझे मेरी अर्धंगिनी में मनहूसियत की जगह धैर्य, सूझबूझ, अथाह प्रेम, दया, परिवार के प्रति निष्ठा ही दिखी। आज मैं जो भी थोड़ा-बहुत कमा रहा हूँ, ये मेरी पत्नी की ही सूझबूझ का परिणाम है!”- विनयधर ने प्रसन्नचित्त होकर कहा और वहां फैली साड़ियां, लहंगे, आदि कपड़े वापस समेटने लगा।
“क्या हुआ विनयधर! कहाँ चल दिए? कपड़े तो हमने अभी लिए ही नहीं!”- महिला ने पुछा।
“आप किसी दूसरे फेरी वाले से ले ले। अपनी पत्नी के विरुद्ध अनर्गल बातें सुन अगर मैं यहाँ एक पल भी रुका तो इसमे उसका अपमान होगा, जो मेरे जीते-जी मैं होने नहीं दुंगा। इसलिए दीदी, मुझे क्षमा करें।”- बोलकर विनयधर कांधे पर कपड़ों का गट्ठर लादे आगे बढ़ गया। अपने घर के दरवाजे पर खड़ी महिला विनयधर की बातें सुन अनुत्तरित रह गई। पर विनयधर के मन में अपनी पत्नी के प्रति प्रेम और स्नेह देखकर तिलमिला उठी और अपने पति को कोसने लगी – “काश मेरा पति भी मुझे इतना ही प्रेम करता! पर उसे तो मेरी कोई फिक्र ही नहीं रहती। हे ईश्वर, अगर मनहूस होने पर भी कोई किसी को इतना प्रेम कर सकता है तो मुझे भी मनहूस कर दे!”…
क्रमश:…
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Writer: Shwet Kumar Sinha