….सुलोचना अपनी माँ के कोख से मनहूस पैदा हुई थी या नहीं- इसका कोई प्रमाण तो नहीं मौजुद। पर इस बात से भी कतई इंकार नहीं किया जा सकता कि हर तरफ फैले उसकी मनहूसियत के चर्चे ने उसकी ज़िंदगी पर मनहूस होने का ठप्पा जरूर लगा दिया था। यही वजह थी कि श्यामा के कई प्रयासों के बावजूद भी अबतक सुलोचना का विवाह तय न हो पा रहा था।
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एकदिन। बाजार से एक बड़े से डोंगे में श्यामा खाने का कुछ सामान लेकर आयी और मँझली बेटी अभिलाषा की तरफ बढ़ा दिया। अभिलाषा ने डोंगे में झाँककर देखा तो मुंह में पानी भर आये। उसमें गरमा-गरम इमरती, जलेबी, समोसे और मिठाइयाँ थी, जिसकी खुशबू पूरे कमरे को महकाने लगी थी। उसके लपलपाते जीभ देख श्यामा ने झुँझलाते हुए कहा- “चटोरी कहाँ की, उसमें से एक को भी हाथ न लगाना….वो सब मेहमान के लिए है। आज सुलोचना दीदी को देखने के लिए पास वाले गाँव के बिरजू अपने बेटे के साथ आ रहा है। हे ईश्वर….मेरी बेटी के नसीब खोल दे! तुझपर असली घी वाले मोतीचूर के लड्डू का भोग लगाऊँगी।”
“वो सब करने से कुछ न होगा, माँ! कुछ लोग अपनी किस्मत की सारी लकीरें मिटवा कर इस धरती पर आते हैं। सुलोचना दीदी भी उन्ही में से एक जान पड़ती है!” – संझली बेटी कामना ने व्यंग्य करते हुए कहा और श्यामा ने उसे घूरकर देखा।
“ऐसे क्यूँ देखती है? कोई अनर्गल बात थोड़े ही न कह रही हूँ! जो देखती आ रही हूँ वही तो बता रही हूँ।”- कामना ने कटाक्ष करते हुए कहा।
“ठीक है….तू भीतर जा।”- आंखें दिखाकर श्यामा ने ऊंचे आवाज में कहा और कमरे की साफ-सफाई में जुट गई ताकि उसे मेहमानों के आवभगत लायक बनाया जा सके।
उसी दिन, दोपहर बाद।
श्यामा जिस गांव में रहती थी वहाँ रहनेवाले तो छोड़िए, चोर-उचक्के तक से सभी भली-भांति परिचित थे। कभी कोई नया मेहमान गांव की सीमा पर कदम रखता तो समूचे गाँव को मालूम चल जाता। आज भी दो मेहमान गाँव की सीमा में दाखिल हुए ।
बिरजू और उनका पुत्र विनयधर पचीस कोस दूर उत्तर-पश्चिम दिशा में बसे एक गाँव से आए थे। चमचमाते धोती-कुर्ते में खड़े बिरजू लाल और विलायती शर्ट-पैंट में उनके बेटे विनयधर को देख गांववालों ने जब उनका परिचय पूछा तब पता चला कि वे श्यामा की बड़ी लड़की सुलोचना संग रिश्ते के लिए आए हैं। अंजान और विलायती लिबास में खड़े नए मेहमानों को पाकर गाँव के कुछ आवारा कुत्ते भौंककर अपनी भड़ास निकालने लगे, जिससे भयभीत होकर विनयधर एक गड्ढे में जा गिरा और उसके कपड़े मैले हो गये। वहां मौजुद ग्रामीणों की मदद से उसने फिर अपने मैले कपड़े साफ किया।
“अरे साहब, आप श्यामा की बड़ी लड़की से रिश्ता करने जा रहे हो, फिर इन सबकी आदत डाल लो!” – पास से गुजर रहे एक किसान ने फब्बतियां कसते हुए कहा।
“ऐसा क्यूं कह रहे हैं आप? विनयधर के कपड़े तो कुत्ते की वजह से मैले हुए! भला इसमें श्यामा की बेटी का क्या कसूर? जहाँ तक मुझे पता है सुलोचना तो बड़ी सभ्य और सुशील लड़की है! बहुत अन्याय सहा है उसके परिवारवालों ने! पागल बाप का बहाना बनाकर अपनों ने ही सारी धन-सम्पत्ति पर कब्जा बना लिया। छी…कैसे रिश्तेदार हैं उसके!”- कातर भाव से बिरजू ने कहा।
“वो सब तो सही ही सुना है आपने! पर मालूम पड़ता है आपको पूरी बात की जानकारी नहीं! बड़े भोले मालूम पड़ते हो, इसिलिए बताए दे रहा हूँ!”- एक ग्रामीण ने पास आकर कहा फिर इधर-उधर देखकर धीरे से बिरजू के कान में बोला- “आप जिस लड़की से अपने बेटे के रिश्ते के लिए जा रहे हो, दरअसल वो मनहूस है! जिस घर में भी उसके पैर पड़ते हैं, वहाँ का सुख-चैन हमेशा के लिए छिन जाता है! पैदा होते ही अपने दादा-दादी को खा गई। खुद उसी के माता-पिता को कितनी विपत्तियों का सामना करना पड़ा!”
“ये कैसी बेतुकी बातें कर रहे हैं आप!! मैं इन फालतू बातों पर यकीन नहीं करता! आपकी जिव्हा क्यूँ नहीं कांपी, किसी भी स्त्री के बारे में अनाप-शनाप बोलते! पिताजी, चलिए यहाँ से! न जाने कैसे-कैसे लोग रहते हैं इस गांव में!!”- बिरजू लाल के बेटे विनयधर ने गुस्से से कहा। वह पढ़ा-लिखा और व्यवहारिक था तथा हरेक बात को तर्क के तराजू पर रखकर तौलता था।
“अरे बेटा, गुस्सा न करो! वो तो बस बता रहा है….सुन लेने में क्या हर्ज़ है! बाकि मानना न मानना तो हमारी मर्जी पर है!”- बिरजू लाल ने कहा।
“नहीं पिताजी, अनर्गल बाते इंसान की सोच में घून लगाती हैं। मुझे ये सब सुनना तक गंवारा नहीं! आप चलिए यहाँ से।” – विनयधर ने कहा फिर उस ग्रामीण की तरफ देख दोनों हाथ जोड़ आँखें तरेरते हुए बोला- “मैं आपका आभारी हूँ कि आपने मेरी भावी जीवनसंगीनी के बारे में इतनी उच्चतम दर्जे की बातें बतायी। उम्मीद है अब आपसे कभी मुलाक़ात नहीं होगी!”
श्यामा के घर का पता लेकर दोनों बाप-बेटे गांव के भीतर अपने गंतव्य की तरफ बढ़ने लगे। सारे रास्ते बिरजू जहाँ उस ग्रामीण की बातों से आतंकित था, वहीं विनयधर के मन में सुलोचना से मिलने की उत्सुकता और प्रबल हो गई थी जैसे मन ही मन उसने सबकुछ तय कर लिया हो।
थोड़े ही देर में दोनों श्यामा के घर के बाहर खड़े थे। बड़े आदरभाव से श्यामा ने अतिथियों का सेवा-सत्कार किया। पति मनोहर को भी उसने पहले से ही सबकुछ सीखा-पढ़ा दिया था कि मेहमानों के सामने ज्यादा मुंह न खोले। जितना पूछा जाए, केवल उतने ही बातों का जवाब दे। सबकुछ ठीक चल रहा था। श्यामा ने मेहमानों का कुशलक्षेम पुछा। खजूर वाले गुड़ का ठंडा शर्बत पेश किया। अपनी लाडली के लिए वर के रूप में विनयधर उसे पहली ही नज़र में भा गया था।
भीतर कमरे में आवाज लगायी तो सुलोचना को लेकर उसकी मंझली बहन अभिलाषा मेहमानों के बीच आयी। नज़रे नींची किए, चेहरे पर संस्कार की चादर ढंके सुलोचना अपनी माँ के बगल में आकर बैठ गई।
गांव-देहात की एक खुबी है कि पशु-पक्षी वहां बड़े स्वच्छंद रूप से विचरण करते हैं। उनपर शहरों जैसा कोई बंधन नहीं रहता और ग्रामीणों के लिए भी वह आदरणीय होते हैं। पर पशुओं को मिला यह वरदान श्यामा और उसकी बेटी के लिए अभिशाप बनकर आया था। हुआ यूं कि सुलोचना अभी बिरजू और विनयधर के सामने आकर बैठी ही थी और सभी बातचीत में व्यस्त थे। विनयधर भी शांतचित्त सुलोचना के हाव-भाव पढ़ने की कोशिश में लगा था। तभी काफी देर से छत के कोने में दुबकी एक बिल्ली ने कमरे से निकलने के प्रयास में नीचे फर्श पर छलांग लगायी और भूलवश उसका पैर छत से लटक रहे मिट्टी के छीके पर जा लगा। छीका गिरकर चूर-चूर हो गया और उसमें रखा दूध कमरे में बिखर गया।
कहीं यह घोर अशुभ का संकेत तो नहीं था! एक तो पहले ही गांव की सीमा पर किसी ग्रामीण ने सुलोचना के मनहूस होने की बात कहकर उसके खिलाफ आशंका के बीज बो दिए थे, ऊपर से छीके का टूटना और दूध का गिरना जैसे उसकी मनहूसियत पर मुहर लगाने समान था। हालांकि विनयधर पर इन बेसिर-पैर की बातों का जरा भी असर न पड़ा।
“बिल्ली ने पैर मारा और दूध जमीन पर जा गिरा। यह एक सामान्य-सी बात है! इसमें आपलोग इतना व्याकूल न हों!” – विनयधर ने कहा तो सुलोचना से रहा न गया और पल्लू के झरोखे से एक नज़र उसने विनयधर पर फेरी। माँ के बाद शायद वह पहला इंसान था, जिसने उसकी मनहूसियत को सिरे से नकार दिया था। मन ही मन अपने इष्टदेव का स्मरण करती सुलोचना विनयधर की बातें सुन मानो अपना दिल उसे हार बैठी थी। पर अपनी फुटी किस्मत पर उसे जरा भी यकीन न था और अंतर्मन में एक डर भी बना हुआ था कि कहीं घर आए मेहमान रिश्ते के लिए मना न कर दें!
“आपलोग कुछ लिजिए न? कुछ खा नहीं रहें? बेटा विनयधर, तुम ये इमरती खाकर देखो! बिल्कुल ताजा घी के बने हैं!” – श्यामा ने तश्तरी आगे बढ़ाते हुए कहा। बिरजू ने कुछ भी खाने-पीने से इंकार कर दिया, जो उसकी मंशा जाहिर कर रहे थे। पर विनयधर ने मुस्कुराकर तश्तरी श्यामा के हाथो से लेकर अपने आगे रख ली और इमरती का एक टुकड़ा अपने मुंह में डाल लिया।
“ठीक है, बहन जी। अब हमें आज्ञा दिजिए। हमारा जो भी निर्णय होगा, आपको कहलवा भिजवाएंगे!”- चेहरे पर दिखावटी मुस्कान बिखेरकर बिरजू ने कहा और बेटे संग वापस लौट गया।
“दीदी की मनहूसियत दिख गई इन्हे भी! देख लेना, शर्त लगा लो! अब कुछ दिन बाद खबर आएगी कि यह रिश्ता इन्हे मंजूर नहीं! वैसे लड़का मुझे भला लगा, पर दीदी की ऐसी किस्मत कहाँ!” – कमरे में प्रवेश करते हुए कामना ने कहा, जो भीतर बैठी सबकुछ बड़ी शांति से देख रही थी।
उसकी कड़वी बातों का सुलोचना ने कोई उत्तर न दिया और अपने कमरे में आ विनयधर की कही बातों को याद करने लगी। वहीं मेहमानों के जाने के पश्चात अभिलाषा का ध्यान इमरती और जलेबियों पर अटका था और अपने पिता के साथ मिलकर उसने चंद ही मिनटों में सब चट कर डाले।
बिरजू का बर्ताव देख श्यामा ने भी यह मान लिया था कि यहाँ से भी जवाब न में आनेवाला है और अपने जानने-पहचानने वालों के बीच उसने अपनी सुलोचना के लायक वर ढुंढने की बात छेड़ रखी थी।
कुछ ही दिन बीते होंगे कि एक संदेशवाहक के हाथो बिरजू ने अपने बेटे के रिश्ते की हामी भिजवायी। श्यामा को तो अपनी कानों पर भरोसा ही न हुआ। अगले ही शुभ मुहुर्त में सुलोचना और विनयधर परिणयसूत्र में बंध गये। इतना सुशील और योग्य वर पाकर सुलोचना भी खुद पर इतराने लगी थी और आश्वस्त थी कि पति के आलींगन में उसपर लगा मनहूसियत का सारा दाग धूल जाएगा। श्यामा और घर के सभी सदस्य भी सुलोचना के विवाह पर बहुत प्रसन्न थे सिवाय संझली बहन कामना को छोड़कर। वजह थी जलन! दरअसल विनयधर की कदकाठी, उसका विलायती पहनावा-ओढ़ावा और शहरी बात-व्यवहार देख वह उसपर मोहित हो चुकी थी। सुलोचना के दुर्भाग्य पर उसे खुद से भी ज्यादा यकीन था और आस लगाई हुई थी कब रिश्ते के लिए ना आये। पर जो हुआ वह उसके सोच से बिल्कुल परे था!
विदा होकर सुलोचना अपने ससुराल तो चली गई। पर मनहूसियत ने उसका पीछा छोड़ा या नहीं ये तो आने वाला समय ही बताता।…
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क्रमशः…
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