बरसात के बाद की धूप – अंजु गुप्ता ‘अक्षरा’ :  Moral Stories in Hindi

अहमदाबाद की बारिश जैसे शहर को नहीं, रागिनी के भीतर के सूनेपन को भिगो रही थी। खिड़की के बाहर रुक-रुक कर गिरती बूँदें, बहती सड़कें और बिजली के टूटे हुए प्रतिबिंब—सब कुछ किसी धीमे और उदास गीत जैसा लग रहा था। खामोशी से बैठे हुए रागिनी को ऐसा महसूस हो रहा था जैसे बाहर का मौसम उसके मन का आईना बन गया हो।

उसकी शादी को बीस साल हो चुके थे। पति मधुर एक सरकारी अधिकारी थे—कर्मठ, अनुशासित और ज़िम्मेदार। ज़िंदगी की तमाम ज़िम्मेदारियों को निभाते-निभाते कब वे एक मशीन बन गए, यह शायद उन्हें भी नहीं पता चला। उनके जीवन में अब सिर्फ समय सारिणी थी—सुबह ऑफिस जाना, रोज़ की मीटिंग, दोपहर की फाइलें, शाम को मोबाइल पर फोन कॉल्स और रात को थका हुआ शरीर।

रागिनी कभी शिकायत नहीं करती थी । मगर वह जानती थी कि जीवन सिर्फ खाना बनाना, कपड़े समेटना, और घर को व्यवस्थित रखना भर नहीं होता। उनके दोनों बच्चे—अद्विक और अमाया—अब कॉलेज में थे। उनके जीवन में अब दोस्तों, सोशल मीडिया और करियर की योजनाओं के लिए जगह थी, माँ के अकेलेपन के लिए नहीं। रागिनी का जीवन जैसे किसी रूटीन की परछाईं बन चुका था—सुबह की चाय, दोपहर की तैयारी, शाम का इंतज़ार और रात की खामोशी। वह मुस्कुराती थी, मगर आईने में देखती तो वह मुस्कान उसकी लगती ही नहीं थी।

उसे वो दिन याद आते थे जब वह रंगों में डूबी रहती थी। कॉलेज के दिनों की वह जीवंत लड़की जो पेंटिंग्स बनाते हुए गुनगुनाया करती थी, अब कहीं खो गई थी। उसके ब्रश और कैनवस एक पुराने ट्रंक में सालों से बंद पड़े थे। उस पर समय की धूल जम चुकी थी, और मन की थकावट भी।

ऐसे ही एक दिन, जब बादलों के बीच से सूरज झाँकने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था, रागिनी के जीवन में एक नया मोड़ आया। मधुर के एक सहकर्मी का बेटा परीक्षित—उर्फ़ ‘परि’—जो अहमदाबाद में नई नौकरी के लिए आया था, उनके घर के ऊपर वाले कमरे में कुछ महीनों के लिए पेइंग गेस्ट बन रहने लगा। चूँकि यह शहर उसके लिए नया था और घर से पहली बार दूर आया था, उसके पापा ने मधुर को उसे अपने घर के आस-पास रखने या खुद के ही घर में रखने की रिक्वेस्ट की थी। रागिनी और मधुर का घर काफी बड़ा था, इसलिए उन्हें कोई दिक्क्त भी न थी।

परि 25-26 साल का बातूनी, आत्मविश्वासी और मिलनसार युवक था। शुरू में वह बहुत औपचारिक रहा —मगर धीरे-धीरे वह इस घर का हिस्सा बनता गया। सबसे ज़्यादा बदलाव रागिनी के जीवन में आया। वह रोज़ रागिनी के बनाए खाने की दिल से तारीफ़ करता, उसके हाथ की चाय पीते हुए पुराने गाने सुनता, और अक्सर उसके कॉलेज के दिनों के बारे में बात करता।

रागिनी को ये बातें अच्छी लगती थीं। बरसों बाद किसी ने उससे कुछ उसके बारे में पूछा था—उसकी रुचियों, उसके सपनों, उसकी भावनाओं के बारे में। उनके लिए परीक्षित बेटा या शायद वह छोटा भाई बन गया था, जो शरारती भी था और स्नेही भी। धीरे-धीरे वह अपने भीतर की जमी बर्फ को पिघलता हुआ महसूस करने लगी थी। वह मुस्कराती थी, और अब आईना भी उस मुस्कान को पहचानने लगा था।

मगर हर कहानी में एक मोड़ आता है। और रागिनी की कहानी में यह मोड़ तब आया जब एक दोपहर वह ऊपर से कुछ सामान लेने जा रही थी और गलती से परीक्षित की बातों की आवाज़ कमरे से बाहर आ गई।

वह फोन पर किसी दोस्त से बात कर रहा था—

“अकेली औरतों को पटाना कितना आसान होता है यार… थोड़ा ध्यान, थोड़ी तारीफें, और फिर देखो कैसे पिघलती हैं। ये आंटी तो अब मुझसे पैसे भी नहीं लेतीं। लगता है पूरी तरह मेरे कंट्रोल में आ गई हैं। अब तो बस थोड़ा और करना है, फिर सब अपने आप हो जाएगा।”

रागिनी की सांसें थम गईं। हर शब्द जैसे उसके भीतर कहीं गहरे उतरकर चुभने लगा था। यह वही परीक्षित था, जिसे उसने अपने बेटे, छोटे भाई  जैसा समझा था, जिसकी मुस्कराहट में उसे अपनापन दिखता था, वो अब उसका मज़ाक बना रहा था—उसकी भावनाओं का, उसके अकेलेपन का, उसकी करुणा का।

कुछ पल तक वह वहीं खड़ी रही, जैसे शरीर को हरकत देना भूल गई हो। मगर फिर उसने अपने आँसुओं को पोंछा, साँस सम्हाली और दृढ़ कदमों से उसके कमरे का दरवाज़ा खटखटाया।

दरवाज़ा खुला, और सामने वही चेहरा था, जो अब एकदम अजनबी लग रहा था।

“तुम्हें आज ही ये घर छोड़ना होगा,” उसने बिना ऊँची आवाज़ किए कहा।

परीक्षित सकपका गया। कुछ कहने की कोशिश की—शायद सफाई देना चाहता था। मगर रागिनी की आँखों में कोई गुंजाइश नहीं थी। वहाँ सिर्फ एक स्त्री का आत्मसम्मान था, जो किसी समझौते की अनुमति नहीं देता। बस गुस्से से इतना ही बोली, “मधुर  जी और मेरा बंधन अटूट है। ये  बंधन  किसी कच्चे धागे का नहीं है। मैंने तो तुम्हें एक बच्चे , एक छोटे भाई की तरह समझा था। धिक्कार है तुम्हारी सोच पर, निकल जाओ यहां से और कभी वापिस मत आना।”

शाम को उसने मधुर को सब कुछ बता दिया। मधुर ने चुपचाप सब सुना। उसने न कोई सवाल किया, न संदेह जताया। शायद उसने पहली बार रागिनी के भीतर की ताक़त को पहचाना था। इसके बाद बहुत कुछ बदला। बहुत धीरे, मगर गहराई से।

अब मधुर रागिनी के पास बैठने लगा। एक दिन जब उसने देखा कि रागिनी अपनी पुरानी पेंटिंग्स बाहर निकाल रही है, तो बोला, “ये तो बहुत खूबसूरत हैं… तुम्हें यह सब दोबारा शुरू करना चाहिए।”

वह शब्द बहुत साधारण थे, लेकिन रागिनी के लिए जैसे किसी सूखे पेड़ को पानी की पहली बूँद।

अब वह सुबह उठकर योग क्लास जाने लगी थी। पुराने उपन्यासों को दोबारा पढ़ने लगी थी, तो कभी खिड़की के पास बैठकर कैनवस पर रंग बिखेर देती। वह अब सिर्फ दूसरों के लिए नहीं, खुद के लिए जी रही थी।

धीरे-धीरे घर का माहौल बदलने लगा। मधुर अब केवल एक ज़िम्मेदार पति ही नहीं, बल्कि एक संवेदनशील साथी की भूमिका में दिखने लगा था । बच्चे भी अब माँ से खुलकर बात करते, उसके बनाए खाने को सराहते और कभी-कभी रसोई में उसके साथ खड़े होते।

अब रागिनी की आँखों में नमी नहीं, चमक थी। अब वह उस धूप की प्रतीक्षा नहीं करती जो बाहर से आए—क्योंकि वह धूप अब उसके भीतर है।

वह जान चुकी थी कि

“अकेलापन एक खाली जगह नहीं, एक अवसर है खुद को फिर से भरने का।

और धोखा—वो सिर्फ एक दरवाज़ा है, जो बंद होता है ताकि तुम अपने भीतर के दरवाज़े खोल सको।”

अंजु गुप्ता ‘अक्षरा’

#ये बंधन किसी कच्चे धागों का नहीं है

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