बंधन मुक्ति – बीना शुक्ला अवस्थी

घर में सुबह से हलचल मची थी जिसका कारण था सबके मोबाइल पर एक मैसेज। भानुजा का मोबाइल भी कमरे में ही रखा था। कहॉ गई भानुजा? किसी को कुछ पता नहीं था, कल रात तक सब कुछ सामान्य था। तीन महीने पहले ब्याह कर आई नववधू अर्चिता भी अचंभित थी। 

इन तीन महीनों में उसने भानुजा को कभी हॅसते या क्रोधित होते नहीं देखा था। एक सहज मुस्कान या गंभीरता उसके चेहरे पर छाई रहती थी। वह बहुत कम बोलती थी। 

उसने अपने पति सौम्य और ननद सौम्या से पूॅछा भी – ” मम्मी मुझसे बात ही नहीं करती हैं और न कोई काम करने देती हैं।”

” हम लोग छोटे थे तो बहुत बोलती थीं लेकिन जबसे हम दोनों बाहर गये हैं इनकी कम बोलने की आदत पड़ गई है। धीरे धीरे तुमसे भी बात करने लगेंगी। तुम चिन्ता न करो।”

दोनों बच्चों ने एक स्वर में कहा तो उनके पापा भी बोल पड़े – ” जिन्दगी भर घरेलू महिला रही हैं तो घर ही उनकी दुनिया है। “

अर्चिता क्या कहती? वह भानुजा का साथ चाहती थी, उससे बातें करना चाहती थी, उसके साथ खाना खाना चाहती थी  लेकिन भानुजा उसे जबरदस्ती सबके साथ बैठा देती  – ” तुम भी सबके साथ बैठ जाओ। रोटी गरम ही अच्छी लगती है। मैं बाद में खाती हूॅ। ” रसोई से गर्म गर्म रोटी लाती भानुजा के चेहरे पर वही सजावटी मुस्कान सजी रहती ।

दोनों बच्चे हाथ पकड़ कर उसे बैठा लेते – ” मम्मी तो अन्नपूर्णा हैं। हम लोगों को खिलाकर ही उनका पेट भर जाता है। तुम भी हम लोगों के साथ खाओ। मम्मी सबसे बाद में खाती हैं, उनकी पुरानी आदत है।” 

सौम्या ससुराल वापस लौट गई। अर्चिता ने ऑफिस जाने के पहले भानुजा से कहा – ” मम्मा, अब मुझे भी ऑफिस जाना है। मैं सुबह आपकी मदद करवा दिया करूंगी।”

” सौम्या की तरह तुम भी मेरी बेटी हो, अपने मायके में जैसे रहती थीं, वैसे रहो। समझ लेना कि कुछ नहीं बदला है। घर और काम की चिन्ता मत करो, मैं सब कर लूंगी।‌” 

दोनों बच्चों की शादी एक सप्ताह के अन्तर में ही हुई थी। अर्चिता – सौम्य और आरव – सौम्या एक दूसरे को पहले से जानते थे। इसलिये दोनों विवाह साथ ही कर दिये गये। सौम्या की इच्छा को ध्यान में रखते हुये पहले सौम्य और अर्चिता का विवाह हुआ। विवाह के पहले ही सौम्य ने अपने ही शहर की कम्पनी में नौकरी कर ली क्योंकि सौम्या की नौकरी इसी शहर में थी।

शुरू के कुछ दिन दोनों बच्चों की शादी, पगफेरे, हनीमून आदि की हलचल में बीत गये। बच्चे अपनी सामान्य जिन्दगी में वापस लौटने लगे। सौम्या अपनी ससुराल में खुश थी, रोज फोन पर बात करती। अर्चिता भी नये वातावरण में घुल मिल गई। उसने समझ लिया कि भले ही भानुजा अंतर्मुखी स्वभाव की है लेकिन उसके प्यार में कोई कमी नहीं है। सौम्य और सौम्या की तरह उसे भी बेहद प्यार करती है।

कभी वह उसे चाय भी बना कर पिला देती तो वह खुश हो जाती। अर्चिता जबरदस्ती उसके साथ कुछ काम करवाने का प्रयास करती तो वह मना कर देती – ” बेटा, विवाह के शुरुआती दिन बहुत खुशनुमा यादें बनाने के होते हैं। तुम और सौम्य अधिक से अधिक एक दूसरे के साथ समय बिताओगे तो मुझे बहुत खुशी होगी। जाओ, खूब घूमो फिरो, एक दूसरे को खुश रखो।” 

अर्चिता अचंभित रह जाती – ” सौम्य, मुझे विश्वास नहीं था कि तुम्हारी मम्मी सास बनकर भी इतनी अच्छी रहेंगी। मैं तो सास नाम के प्राणी से बहुत डरती थी।” 

सौम्य हॅस पड़ता। सब सामान्य था, परन्तु आज रविवार को सब देर से सोकर उठे तो सबके व्हाट्सएप्प पर एक ही मैसेज था – ” मेरी सारी जिम्मेदारी पूरी हो गईं हैं, अब मैं हमेशा के लिये इस घर से जा रही हूॅ।”

सौम्य और अर्चिता बौखलाये से कमरे से बाहर आये – ” पापा….।” सौम्य की घबराई आवाज से मोहन जागकर बाहर आ गये – ” यह देखिये, क्या है?” 

उसने अपना और अर्चिता के फोन उन्हें दिखाये – ” कहॉ गईं मम्मी? क्या रात में कोई बात हुई थी?”

” नहीं बेटा, रात में तो सब सामान्य था। मुझे दवा और दूध देकर सोई थी भानु। फोन करो, यहीं कहीं होगी।”

लेकिन घंटी की आवाज तो कमरे के अन्दर से आ रही थी – पापा, आवाज तो कमरे से आ रही है।”

तीनों अन्दर आये तो बेड के सिरहाने फोन रखा था। तभी मोहन के फोन की घंटी बजी। सौम्या का फोन आ रहा था – ” पापा, मम्मा ने यह कैसा मैसेज किया है? कहॉ हैं मम्मा।” 

मोहन के हाथ से फोन छूटकर गिरने ही वाला था कि सौम्य ने उनके हाथ से फोन ले लिया -” दीदी , तुम जल्दी से घर आ जाओ। बैठकर बात करते हैं।”

” मैं आ रही हूॅ।”

सौम्य ने देख लिया था कि वही मैसेज मोहन के फोन पर भी था लेकिन मोहन के मैसेज में कुछ और भी लिखा था – ” मोहन, तुमने जीवन में एक बार भी कभी नहीं सोचा कि मैं भी एक बेटी हूॅ । कम से कम बेटी का पिता बनने के बाद तो सोच लेते कि जैसा व्यवहार तुम मेरे साथ करते हो, वैसा ही तुम्हारा दामाद तुम्हारी बेटी के साथ करे तो तुम्हें कैसा लगेगा? क्या ज़िन्दगी भर अपनी बेटी को एक कठपुतली जैसे गुलाम के रूप में देखना अच्छा लगेगा? अब अपना अस्तित्व समेटकर तुम्हारे जीवन से जा रही हूॅ। इतने वर्ष तक मुझ नाकारा और बेकार स्त्री के साथ रहने के लिये धन्यवाद।”

सौम्या और सौम्य सभी रिश्तेदारों के यहॉ फोन कर रहे थे लेकिन मोहन जानते थे कि भानुजा किसी रिश्तेदार के यहॉ नहीं जा सकती। उसकी सहनशक्ति का घड़ा केवल भरा ही नहीं है बल्कि फूटकर टुकड़े टुकड़े हो चुका है। वह अपनी इच्छा से उन्हें छोड़कर चली गई है और अब कभी वापस नहीं आयेगी।

इधर भानुजा की ट्रेन उत्तर प्रदेश की सीमा को छोड़कर उत्तराखंड में प्रवेश कर चुकी थी।

शादी के बाद से ही मोहन ने भानुजा की किसी भी बात को महत्व नहीं दिया। हमेशा एक ही बात कह देता – ” अपनी अकल मत लगाया करो, जो मैं कह रहा हूॅ, वह सुनो।”

बच्चे छोटे थे तो वह घर के कलह के कारण उन्हें पापा की बात मानने को कहती थी। मोहन बच्चों को प्यार तो करते थे लेकिन उनके हर कार्य में रोक लगाते थे तो मोहन के प्रतिबन्धों और बच्चों की इच्छाओं के बीच उसे पुल का कार्य करना पड़ता, कई बार झूठ बोलकर भी। पिकनिक हो, दोस्तों के साथ पार्टी हो, किसी रेस्टोरेंट या मॉल में इकठ्ठा होना हो – सब कुछ मोहन की अनजान में हो जाता। बच्चे स्कूल, कॉलेज या कोचिंग समय तक घर वापस आ जाते। कभी देर हो जाती तो भानुजा एक्स्ट्रा क्लासेज कह देती। उसने बच्चों से स्पष्ट कह दिया था कि कभी कोई ऐसा कार्य न करना कि बात मेरे हाथ से निकल जाये, गेंद मेरे पाले में ही रहनी चाहिये वरना मैं कुछ नहीं कर पाऊॅगी।

दोनों बच्चों ने उसका मान रखा और पढाई के साथ कैरियर में भी श्रेष्ठ ही रहे।

जैसे जैसे बच्चे बड़े हो रहे थे, स्वयं में व्यस्त होते जा रहे थे। अब भानुजा में कुछ परिवर्तन आने शुरू हो गये। वह पहले की तरह हर बात मान तो जाती थी लेकिन अन्दर ही अन्दर एक विद्रोह, एक घुटन पनपने लगा था जो उसके चेहरे पर दिखने लगा था। 

बच्चे बाहर चले गये तो यह घुटन और बढ़ने लगी, अब घर से दूर बच्चों से न तो कुछ बॉट पाती और न ही मोहन की बातों से आहत होकर उनके सामने रोकर अपना मन हल्का कर पाती।

अकेले कहीं जाने की आदत नहीं थी और बच्चे थे नहीं। पहले बच्चों को लेकर ही कहीं घुमाने, बाजार जाती रहती लेकिन अब तो उसकी दुनिया ही सिमट गई। 

मोहन के साथ कहीं जाती तो  मोहन के साथ होने पर वह केवल सीमित और नपी तुली बात कर पाती। मोहन न उसे किसी महिला से बात करने देते और न पुरुष से –

” मैं जब बात कर रहा हूॅ तो तुम्हें बीच में बोलने की क्या जरूरत है?”

मोहन को आदत पड़ गई थी, भानुजा की हर बात सिर झुकाकर मानने की। जब सहन न होता और कुछ बोल देती तो मोहन बोलना छोड़ देते। यदि बच्चे घर में होते तो उससे ही कहते – ” अरे… मम्मा, आप चुप हो जाओ। दो – चार दिन के लिये हम लोग आते हैं, खुशी खुशी बीतने दो।”

वह चुप हो जाती, उसे लगता कि जिन बच्चों के लिये उसने सब कुछ सहन किया है, उसके वही बच्चे भी उसे नहीं समझ पा रहे हैं। वह अन्दर की घुटन को दबाकर मौन रह जाती। 

एक दिन उसने सबके सामने कह दिया – ” मन करता है कि सब कुछ छोड़कर ऐसी जगह चली जाऊॅ, जहॉ मुझे कोई न जानता हो और बची हुई जिन्दगी अपनी मर्जी से अपने तरीके से बिताऊॅ। जहॉ कोई मुझे रोक टोक न करे, जहॉ चाहूॅ वहॉ जाऊॅ‌।”

मोहन उसे घूरकर देखने लगे और बच्चे हॅसने लगे। सौम्या ने उठकर उसके गले में बाहें डाल दी – ” हम लोगों को छोड़कर कैसे जा पाओगी?”

भानुजा ने उसे लिपटा लिया – ” तुम लोगों की जिम्मेदारी पूरी किये बिना तो मैं यमराज के पास भी नहीं जाऊॅगी।”

सौम्य भी आ गया – ” तुम पापा को छोड़कर कहीं जाओगी ही नहीं।”

भानुजा हॅसकर चुप रह गई। अधिक कुछ बोलकर बच्चों की छुट्टियां बरबाद नहीं करना चाहती थी। कैसे कहे कि तुम्हारे पापा को तो आज भी मेरा किया हुआ कोई काम पसंद नहीं आता है। शादी के इतने वर्षों बाद भी चाय बनाने के पहले कह देते हैं कि चाय अच्छी बनाना, पत्ती- दूध अधिक डालकर देर तक खौला लेना, सब्जी अच्छी तरह धो लेना। जो व्यक्ति खुद पॉच मिनट रसोई में खड़ा नहीं हो सकता, वह रोज उसे खाना बनाने के निर्देश दिया करता है।

बच्चों के विवाह होते ही उसने सोंच लिया कि अब उसके दायित्व पूरे हो गये हैं। उसके दोनों बच्चों के अपने अपने परिवार हो गये हैं। उसने शादी से पहले ससुराल से मिले अपने सारे गहनों से दोनों बच्चों के गहने बनवा दिये थे।

उसके पास मोहन का दिया हुआ कुछ भी नहीं था। कपड़े भी उसने अपने भाई के दिये पहन रखे थे।

बद्रीनाथ के भोलागिरी आश्रम में उसने अपनी सेवायें मुफ्त देने का संकल्प लेकर सारी व्यवस्था कर ली थी। बदले में आश्रम उसकी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति करेगा। अपने सभी जेवर उसने साथ में रख लिये थे, इन्हें बेंचकर सारे पैसे बैंक में जमा कर देगी। जब तक जिन्दा रहेगी, उसके ब्याज और पैसों का अपनी इच्छानुसार उपयोग करेगी और मृत्यु के बाद सब कुछ आश्रम को दे जायेगी। 

संसार से सारे मोह के बंधन उसने हमेशा के लिये तोड़ दिये हैं। अब उसका कोई नहीं है और वह किसी की नहीं है। अपने अन्तिम संस्कार का अधिकार भी अपने आश्रम वासी साथियों को दे जायेगी। 

जैसे जैसे ट्रेन हरिद्वार की ओर बढ़ रही थी। भानुजा का मन पिंजरे से छूटे पक्षी की तरह उन्मुक्त गगन का भ्रमण कर रहा था। अब उस पर कोई बंधन, कोई रोक टोक, कोई पाबंदी नहीं है। उसका चेहरा प्रसन्नता से दमक रहा था। ट्रेन से उतरते ही आश्रम की कार मिल जायेगी।

बीना शुक्ला अवस्थी, कानपुर 

# मैं भी तो एक बेटी हूॅ।

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