बहू जिम्मेदारियाँ और अधिकार दोनों साथ-साथ चले तो ही अच्छा है – अर्चना खंडेलवाल  

 “अरे वाह, आज तो गली में बड़ी शांति है… न तो बरामदे से कोई ऊँची आवाज़, न बर्तन बजने की खटर-पटर!”
लता मासी ने मोहल्ले की परिचित टोन में आवाज़ लगाते हुए चौखट पर पायल खनकाई।

अंदर से किचन में रखे बर्तनों की हल्की खनक और गैस पर सीटी बजाती कुकर की आवाज़ आ रही थी।
कैलाश नगर की इस पुरानी कॉलोनी में, किसी के घर की बहस, हँसी या रोना — सबकी ख़बर सबसे पहले लता मासी तक ही पहुँचती थी।

“नैना… अरे ओ नैना, कोई तो है अंदर?”
वो दरवाज़े पर खड़े होकर आवाज़ दे ही रही थीं कि भीतर से कौशल्या देवी की आवाज आई—
“हाँ हाँ मासी, आती हूँ, आप ही होंगी… आपकी आवाज़ तो अब आँख बंद करके भी पहचान लूँ।”

कौशल्या देवी ने अपने हाथ पोंछते हुए दरवाज़ा खोला। हल्की मुस्कान थी चेहरे पर, पर आँखों के नीचे थकान की हल्की रेखाएँ साफ दिखती थीं।

लता मासी ने अंदर झाँकते ही मानो हवा सूँघ ली हो—
“कौशल्या, सब ठीक है ना? सुबह-सुबह तेरे घर के अंदर से थोड़ी तेज़ आवाज़ें आ रही थीं… लगा जैसे तू और तेरी बहू में कुछ अनबन हो गई हो। सोचा ज़रा हाल-चाल लेती चलूँ। आखिर हम भी तो पड़ोसी हैं, सुख-दुख में काम आते हैं।”

कौशल्या देवी समझ गईं—
ये आई नहीं, ‘ख़बर’ सूँघने आई हैं।
पर वो बात को तूल नहीं देना चाहती थीं।

“अरे मासी, तू भी न… घर है, दो लोग रहेंगे तो आवाज़ तो आएगी ही।”
फिर उन्होंने ज़रा ऊँची आवाज़ में पुकारा—
“नैना बेटा, ज़रा इधर आना, देख कौन आया है?”

किचन से हल्के-फुल्के कदमों की आहट आई। कुछ ही पल में नैना सामने आ खड़ी हुई। सूती हल्की गुलाबी सूट, माथे पर छोटा-सा बिंदी, बाल ढीले से बाधे हुए, पर चेहरे पर मुस्कान सजी थी।

“नमस्ते मासीजी,” कहते हुए वह झुककर उनके पाँव छूने लगी।
लता मासी एक पल को सकपका गईं—
जो बहू अभी थोड़ी देर पहले, उनकी कल्पना में सास पर चिल्ला रही थी, वही बहू इतनी शालीनता से पाँव छू रही है?

“जी मासीजी, बैठिए न… मैं आपके लिए अदरक-इलायची वाली चाय बनाकर लाती हूँ। आज मौसम भी थोड़ा बदला-बदला सा है।”

लता मासी एक पल को ठिठक गईं।
उनके मन में तो अभी भी वो आवाज़ गूँज रही थी जो उन्होंने कमजोर-सी दीवारों के पार से सुनी थी—
नैना की चढ़ी हुई आवाज़, और कौशल्या देवी का धीमा, पर कड़क स्वर।
पर सामने की तस्वीर तो कुछ और ही थी।

“हाँ हाँ, बना दे चाय,” वो बोलीं, “सोचा था, देखूँ ज़रा, हाल क्या है। आजकल की लड़कियाँ तो ज़रा-सी बात पर आगबबूला हो जाती हैं। सास की इज़्ज़त का तो कोई मतलब ही नहीं उन्हें।”
उन्होंने बात में हल्का-सा नमक डालना चाहा, ताकि यदि भीतर कुछ आग हो तो भभक उठे।

कौशल्या देवी ने उनकी बात अनसुनी कर दी।
“मासी, बैठो न, इतने दिन बाद आई हो। बच्चों का हाल बता, बहू कैसी है तेरी?”

तभी नैना रसोई से चाय और गरमागरम बेसन के पकोड़े लेकर लौटी। ट्रे सावधानी से मेज़ पर रखते हुए वह बोली—
“मासीजी, पहले आप चाय पीजिए फिर बातें करिए, नहीं तो चाय ठंडी हो जाएगी।”

अब लता मासी का पूरा ‘मसाला’ फीका पड़ने लगा।
उन्होंने चाय का गिलास हाथ में तो ले लिया, पर चुस्की लिए बिना रहीं।

कौशल्या देवी ने मज़ाक में टोका—
“अरे, मासी! हमारे घर की चाय से भी डर लग रहा है क्या? लो, एक पकोड़ा भी लो साथ में, नैना के हाथ के पकोड़े पूरे मोहल्ले में मशहूर हैं।”

नैना पास ही बैठ गई।
तीनों कुछ देर मौसम, महँगाई और मोहल्ले के डाकिए की शादी पर हल्की-फुल्की बातें करती रहीं।

लता मासी ने बहुत कोशिश की कि कहीं से कोई शिकायत, कोई कटाक्ष, कुछ तो निकल आए।
पर न तो कौशल्या देवी ने नैना की कोई बुराई की, न नैना ने मुँह बनाकर कुछ कहा।

आख़िरकार, जब बातों का मसाला न मिला, तो वो फीकी मुस्कान के साथ उठीं—
“चलो बहन, अब मैं चलती हूँ। बस ऐसे ही खुशी-खुशी रहना तुम लोग।”

“अरे, बैठो न थोड़ा और,” नैना ने कहा।
“नहीं रे, और भी काम हैं… फिर आऊँगी। चाय अच्छी थी, वैसे।”
उन्होंने दरवाज़ा पार किया तो कौशल्या देवी ने बाहर तक छोड़ने की बजाय जल्दी से दरवाज़ा बंद कर दिया।

नैना एक पल को उन्हें देखती रही, फिर धीमे से बोली—
“माँ… आपसे माफ़ी माँगनी है मुझे।”

कौशल्या देवी ने चौंककर उसकी तरफ देखा।
“क्यों? अब क्या किया तूने?”

नैना की आँखें भर आई थीं।
“आज सुबह मैंने आपसे जिस तरह बात की… वो बिल्कुल ग़लत था। मुझे ऐसा नहीं बोलना चाहिए था। आप मुझ पर चिल्ला भी सकती थीं, मासी के सामने मेरी शिकायत भी कर सकती थीं, पर आपने ऐसा कुछ नहीं किया। उल्टा आप मेरे सामने खड़ी रहीं।”

कौशल्या देवी ने गहरी साँस ली।
सुबह का झगड़ा एकदम ताज़ा था—
घर में अफरा-तफरी थी, रसोई में गैस पर तीन चीज़ें चढ़ी हुई थीं, रोहन ऑफिस के लिए तैयार हो रहा था, और नैना फोन पर अपनी सहेली से हाथ में मोबइल लगाकर कॉलेज की पुरानी यादें ताज़ा कर रही थी।

उन्होंने सिर्फ इतना कहा था—
“नैना, पहले रोहन की टिफ़िन और चाय देख ले, फिर आराम से बात कर लेना। रोज़ ऑफिस के लिए देर हो जाती है उसे।”

पर उस वक्त नैना का मूड सही नहीं था।
“आपको हर समय बस रोहन का ही ध्यान रहता है, मेरे काम, मेरी बात, मेरी भावनाएँ दिखती ही नहीं आपको!”
वह ऊँची आवाज़ में बोल पड़ी थी।

रोहन, जो जूते बाँध रहा था, थोड़ा असहज हुआ, फिर चुपचाप अपना बैग उठाकर बाहर चला गया।
नैना को बाद में ख़ुद ही एहसास हुआ कि उसने बात बढ़ा दी।

नैना ने धीरे-धीरे आगे बढ़कर माँ के पास बैठते हुए कहा—
“माँ, मुझे लगा शायद आप भी मासी के सामने रो पड़ेंगी, कहेंगी कि बहू कितना तंग करती है, कितनी बदतमीज़ है… फिर वो पिछली बारी की तरह, पूरे मोहल्ले में नमक-मिर्च लगाकर बातें कर देती… और मेरी छवि… बस…”

कौशल्या देवी मुस्कुराईं।
“तू सच बोल रही है, पहले मैं भी यही करती थी। हर छोटी-बड़ी बात पर किसी न किसी से रोना रो देती थी।
पर तब मुझे अपने ही घर का ‘अंदर’ बाहर फैलता दिखता था।
और मैंने एक बात समझ ली, बेटा…”

नैना ने उत्सुकता से उनकी ओर देखा।

“जब हम अपने घर की लड़ाई, अपने घर की इज़्ज़त, अपने घर के झगड़े, बाहर वालों के सामने खोलते हैं न, तो उनके पास सिर्फ़ ‘मज़ा’ आता है, हल नहीं।
तूने सुना होगा, हम जब किसी के सामने शिकायत करते हैं तो वो सिर हिलाकर सहानुभूति दिखाते हैं, पर अंदर से ख़ुश होते हैं कि चलो, एक और घर में दरार है।
मैं नहीं चाहती कि तेरी, रोहन की, या हमारे रिश्ते की बात बाहर पड़े।
मेरी बहू की गलती, मेरी बेटी की गलती की तरह है। उसे मैं घर में ही समझा लूँ, वही बेहतर है।”

नैना की आँखों से आँसू टपक पड़े।

“माँ, आप मुझे बेटी की तरह ही मानती हैं क्या?”

कौशल्या देवी की आँखें भी भर आईं।
“जब तू पहली बार रोहन के साथ इस घर में आई थी, न, तो तुझे देख कर मुझे अपनी छोटी बहन याद आ गई थी। वह भी तेरी ही तरह जल्दी बातों में बह जाती थी, और फिर बाद में पछताती थी।
बहू जब घर में आती है न, तो सिर्फ़ उसकी नहीं, सास की भी बहुत बड़ी परीक्षा शुरू होती है—
कैसे उसे घर समझाए, कैसे उसे बातों-बातों में सिखाए, कैसे उसकी गलतियाँ अपने आँचल में समेट कर सुधारे।”

नैना चुपचाप बैठी सुनती रही।

“पर इसका मतलब यह नहीं कि तेरी कोई गलती नहीं हुई,”
कौशल्या देवी ने हल्के, पर साफ़ स्वर में कहा,
“आज तूने रोहन के सामने जिस तरह जवाब दिया, वह ग़लत था।
मैं तेरी माँ की तरह तेरे सिर पर हाथ रखकर कह सकती हूँ —
‘कोई बात नहीं, सब चलता है,’
पर तब मैं तेरी सास की ज़िम्मेदारी नहीं निभा रही होती।”

“माँ, मुझे पता है मैं गलत थी,”
नैना ने धीमे स्वर में कहा,
“आप तो सिर्फ ये कह रही थीं कि पहले घर का काम, फिर फोन… मैंने तो अपनी मम्मी को भी कभी जवाब नहीं दिया था, पर पता नहीं यहाँ क्यों…”

कौशल्या देवी ने बात काटी—
“क्योंकि माँ की डाँट तुम्हें ‘स्वाभाविक’ लगती थी।
और सास की बात तुम्हें ‘टोकना’ लगती है।
यह फर्क तेरे दिमाग़ ने बनाया है, मेरे शब्दों ने नहीं।”

नैना चुप हो गई।
उसने कभी इस तरह सोचा ही नहीं था।

“तू यहाँ आई है, इस घर में, तो तेरा मायका बदल गया, पर तेरे लिए मैं भी तो एक नई माँ बनी हूँ।
मैं भी सीख रही हूँ, तू भी सीख रही है।
कभी मैं गलती करूँगी, कभी तू;
महत्वपूर्ण यह होगा कि हमारी लड़ाइयाँ हमारा घर न तोड़ें, और हमारा सम्मान किसी तीसरे के सामने न टूटे।”

नैना ने झुककर उनके हाथ थाम लिए।
“माँ, मैं वादा करती हूँ, आगे से आपकी बात बीच में काटकर ऊँची आवाज़ में नहीं बोलूँगी।
और… रोहन के जाने से पहले, फोन का स्पीकर ऑन करके मस्ती नहीं करूँगी। पहले उसका टिफ़िन, चाय, नाश्ता… फिर अपने मन की बातें।”

“और मैं भी कुछ वादा करती हूँ,”
कौशल्या देवी ने उसके बालों पर हाथ फेरते हुए कहा,
“मैं भी कोशिश करूँगी कि तेरे हर कदम पर तुझे कटघरे में खड़ा न करूँ।
तू अगर कभी भूल जाए, तो प्यार से याद दिलाऊँ।
तुझे भी अपनी जि़ंदगी जीने दूँ, बस इतना चाहूँगी कि जिम्मेदारियाँ और अधिकार दोनों साथ-साथ चले।”

नैना ने हल्की मुस्कान के साथ आँखें पोंछीं।
“माँ, ये जो आपने आज मासी के सामने कुछ नहीं कहा न… मुझे सच में लगा कि… शायद मैंने पिछले जन्म में बहुत अच्छे कर्म किए होंगे जो आप मिली हैं।”

कौशल्या देवी हँस पड़ीं।
“अच्छा-अच्छा, इतनी बड़ी-बड़ी बातें मत कर, जा, फोन कर ले रोहन को। सुबह गुस्से में गया था। बुला उसे जल्दी घर आने को, पूछ लेना कि लंच ठीक से किया या नहीं।”

नैना ने तुरंत मोबाइल उठाया, पर इस बार वह किचन के बीच में नहीं, अपने कमरे में जाकर बैठी।
फोन मिलाया—
“हैलो रोहन, गुस्सा हो मुझसे?”

रोहन ने कुछ देर चुप रहकर कहा—
“थोड़ा-सा। पर लगता है, मम्मी ने तुझे समझा दिया होगा, तभी फोन किया है।”

“नहीं, मम्मी नहीं… मेरी ‘नई माँ’ ने समझाया है,”
दूसरी तरफ़ रोहन चुप हो गया।
नैना ने आगे कहा—
“मैंने ग़लती की थी। सुबह आपको मम्मी से ऊपर रख रही थी, पर वही तो कह रही थीं कि पहले आपको ऑफिस भेज दूँ, फिर बात करूँ।
मुझे माफ़ कर दो न, आज रात आपकी पसंद की खिचड़ी और रायता बनाऊँगी।”

रोहन की हँसी फोन के उस पार से सुनाई दी।
“ठीक है, आज थोड़ा जल्दी आने की कोशिश करूँगा। और हाँ, मम्मी को भी मेरी तरफ़ से सॉरी बोल देना कि उनके सामने बहस हो गई।”

“मम्मी को तुम खुद ही बोल देना,”
नैना ने शरारत से कहा,
“मैं स्पीकर ऑन कर दूँगी… लेकिन खाना बन जाने के बाद।”

रोहन ने हँसते हुए फोन रख दिया।

नैना कमरे से बाहर आई तो देखा, कौशल्या देवी रसोई में उसके लिए सब्ज़ी काट रही हैं।

“अरे माँ, आप क्यों? मैं कर लूँगी न…”

“तू फोन पर थी, तो सोचा, आज मैं ही कर देती हूँ। आखिर तेरी भी तो कभी-कभी ‘मम्मी से बात’ करने की छुट्टी मिलनी चाहिए,”
उन्होंने हल्के मज़ाक में कहा।

नैना मुस्कुराई, आगे बढ़कर उनके हाथ से चाकू लिया और सब्जी काटने लगी।
दोनों के बीच अब कोई दीवार नहीं थी—
ना अहंकार की, ना शिकायतों की, ना ‘ये मायके की है, ये ससुराल की’ वाली खाई की।

उधर गली में लता मासी अपने आँगन में बैठकर चाय पी रही थीं।
पास वाली पड़ोसन ने पूछा—
“क्यों मासी, क्या हाल था कौशल्या के घर का? सुबह तो कुछ झगड़ा-झगड़ा लग रहा था?”

लता ने एक पल को कौशल्या की मुस्कान और नैना की सेवा याद की, फिर बोलीं—
“कुछ खास नहीं। बस रोज़मर्रा की बातें।
कौशल्या की बहू तो बड़ी अदब वाली निकली, चाय-पकोड़े बनाकर खिलाए।
हम ही लोग हैं जो ज़रा सी आवाज़ सुनकर कहानियाँ बना लेते हैं।”

उनके स्वर में आज पहली बार थोड़ी शर्म, और थोड़ी समझ थी।

शाम को जब रोहन घर लौटा तो बरामदे में एक अलग ही दृश्य था—
कौशल्या देवी और नैना साथ बैठकर सब्जियों में मटर छील रही थीं, और दोनों की आवाज़ एक ही धुन में घुली हुई थी।

घर वही था, लोग वही थे, दीवारें वही थीं,
पर एक चीज़ बदल गई थी—
शिकायत की जगह संवाद ने ले ली थी।
और बातों का मसाला ढूँढने वालों के लिए अब यह घर रुचिकर नहीं, पर घरवालों के लिए पहले से ज़्यादा सुरक्षित, शांत और अपना हो गया था।

कौशल्या ने भीतर ही भीतर मुस्कुराकर सोचा—
“सच्ची इज़्ज़त वही है जो हम अपने घर वालों की दुनिया के सामने बचाकर रखें, न कि दूसरों के ताली बजाने के लिए उसे नंगा कर दें।
बहू और सास का रिश्ता अगर मिलकर निभाया जाए, तो घर मंदिर बन जाता है… और आज मेरा घर थोड़ा-थोड़ा मंदिर की तरफ़ बढ़ ही तो रहा है।”

उन्होंने नज़र उठाकर नैना को देखा।
नैना भी उन्हें देख रही थी, दोनों ने एक साथ मुस्कुरा दिया।

बिना शब्दों के जो वादा हुआ, वही इस घर की नई शुरुआत था।

मूल लेखिका—अर्चना खंडेलवाल  

समाप्त।

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