“रीवा, आज तुम ऑफिस से जल्दी आ जाना… मेरे भाई-भाभी आ रहे हैं।”
किचन में चाय का पैन चढ़ाते हुए विशाल ने ऐसे कहा जैसे बारिश की सूचना दे रहा हो—सामान्य, निर्विकार।
रीवा ने प्लेटों में फल रखते हुए गर्दन घुमा कर देखा। “आज? तुम्हें कल याद आया? और तुमने मुझे अभी बताया?”
“अरे बस… अचानक प्रोग्राम बन गया। भाभी का मन था कि ‘थोड़ा घर का स्वाद’ मिल जाए।” विशाल ने हँसने की कोशिश की, “तुम्हें तो पसंद है ना मेहमान…”
रीवा के हाथ रुक गए। मेहमान उसे पसंद थे, मगर बिना तैयारी के, बिना सूचना के नहीं। और खासकर तब नहीं जब वह स्कूल में वार्षिक परीक्षा की कॉपियाँ चेक कर रही हो, अगले दिन पेरेंट्स मीटिंग हो, और घर में पहले से ही काम की लंबी लिस्ट पड़ी हो।
“मैं स्कूल में आज ‘रिजल्ट फाइनल’ वाली मीटिंग में हूँ, विशाल। जल्दी निकलना आज संभव नहीं है।”
विशाल ने भौंहें चढ़ाईं। “तुम्हारे स्कूल में तो रोज कोई न कोई मीटिंग रहती है। भाभी आएंगी तो क्या तुम… बस एक दिन…?”
रीवा ने उसकी बात बीच में ही रोक दी। “बस एक दिन? तुम ये ‘बस’ इतना हल्का कैसे बोल लेते हो? ये वही ‘बस’ है जिसके पीछे मेरा पूरा दिन खिंच जाता है।”
उसने चाय का पैन बंद किया और बैग उठाकर कमरे की तरफ बढ़ गई। उसे पता था, यह बात यहीं नहीं रुकेगी। विशाल के चेहरे पर पहले ही अपराधबोध की जगह झुँझलाहट तैरने लगी थी—वही पुरानी, कि ‘तुम मेरे परिवार के लिए नहीं कर सकती?’
घर के बाहर निकलते समय रीवा ने ठहरकर कहा, “मेरा टाइम सुबह से तय है। अगर वो आ रहे हैं, तो आप लोग संभाल लीजिए। मैं कोशिश करूंगी शाम तक… लेकिन वादा नहीं।”
विशाल कुछ नहीं बोला, पर उसकी चुप्पी में नाराज़गी साफ थी।
दोपहर में स्कूल के स्टाफरूम में रीवा कॉपियों के ढेर के बीच बैठी थी। पेन की नोक बार-बार रुकी जा रही थी। मन घर में था—भाभी आएंगी, कुछ न कुछ ताना होगा, फिर विशाल के कान भरे जाएंगे, और अंत में रात को वही सवाल उठेगा—“तुम्हें मेरे घरवालों की कद्र नहीं।”
उसके फोन पर मैसेज चमका—
“रीवा, आज भाभी की पसंद की ‘कढ़ाई पनीर’ बना देना। और वो जो मेवा वाली खीर… मम्मी भी कह रही थीं…”
मैसेज विशाल का था, लेकिन शब्दों में कहीं न कहीं उसकी सास का आदेश झलक रहा था।
रीवा ने मोबाइल स्क्रीन पलट दी। उसे हँसी भी आई और गुस्सा भी।
यह कैसी व्यवस्था थी? मेहमान पति के, तैयारी पत्नी की।
आना “अचानक” और सेवा “अनिवार्य”।
स्कूल छूटते-छूटते शाम हो गई। वह भागती हुई बस में बैठी। सीट मिली नहीं, पर आज उसे बैठने की फुर्सत भी नहीं थी। बस के हर झटके के साथ उसका सिर भारी हो रहा था। उसे लगा जैसे किसी ने उसके भीतर की घड़ी तेज कर दी हो—“जल्दी करो, जल्दी करो।”
घर पहुंचते ही बाहर से आवाजें सुनाई दीं। हँसी, बातें, चम्मचों की खनक।
ड्राइंग रूम में प्रवेश करते ही उसने देखा—सोफे पर बैठी एक सजी-धजी औरत, हाथों में मोबाइल, होंठों पर हल्की मुस्कान, आँखों में जाँचती हुई नजरें।
यही थीं—शैलजा, विशाल की भाभी।
“अरे रीवा! आ गई तुम?” शैलजा ने ऐसे कहा जैसे वह कोई ड्यूटी पर लेट आई कर्मचारी हो।
“दिनभर से इंतजार कर रहे हैं, देखो। विशाल तो कह रहा था—‘रीवा सब संभाल लेती है।’”
रीवा ने हल्की मुस्कान ओढ़ी। “नमस्ते… कैसी हैं आप?”
सास, सुमन जी, रसोई से निकलकर बोलीं, “आ गई बहू? चलो जल्दी-जल्दी हाथ-मुंह धो लो। भाभी को चाय चाहिए। और हाँ, कुछ नमकीन भी निकाल देना।”
रीवा ने अपनी थकान को भीतर दबाकर “जी” कहा और रसोई की तरफ बढ़ गई।
उसका बेटा, कियान, कमरे से भागकर आया। “मम्मा, आज पापा ने कहा आप जल्दी आएंगी। मैं आपको दिखाने के लिए ड्रॉइंग बनाकर रखा था…”
रीवा ने उसके बाल सहलाए। “बेटा, अभी… अभी थोड़ा काम है, फिर देखूंगी।”
कियान का चेहरा उतर गया। रीवा को अंदर कुछ चुभा। यह चुभन आज नई नहीं थी। यह चुभन हर बार होती थी—जब किसी और के “आने” के कारण उसके अपने घर के “रहने” वाले लोग पीछे छूट जाते थे।
रसोई में सास की आवाज़ गूँज रही थी। “भाभी बाहर बैठी हैं, और तुम इतने आराम से सब्जी काट रही हो? जल्दी करो। बहू हो, तो थोड़ा मेहमानदारी भी सीखो।”
रीवा ने धीमे स्वर में कहा, “मम्मी जी, मैं अभी ऑफिस से आई हूँ… बस दस मिनट—”
“ऑफिस, ऑफिस, ऑफिस!” सास ने तंज किया, “हमारे जमाने में औरतें घर संभालती थीं, नौकरी नहीं करती थीं, फिर भी सब हो जाता था।”
रीवा के भीतर कुछ उबल आया। लेकिन उसने खुद को रोक लिया।
उसने चाय बना दी, नमकीन निकाल दिया, फिर जल्दी-जल्दी कढ़ाई पनीर का सामान निकाला।
उसी समय शैलजा रसोई में आ गईं। मोबाइल कैमरा ऑन।
“अरे वाह, तुम तो कुकिंग कर रही हो। एक रील बनती है—‘वर्किंग वाइफ एंड परफेक्ट बहू।’”
वह हँसते हुए बोलीं, “रीवा, मुस्कुराओ, मैं डालूँगी स्टोरी।”
रीवा ने पहली बार आँख उठाकर देखा। “स्टोरी?”
उसे लगा जैसे उसकी मेहनत भी अब कंटेंट बन चुकी है।
“हाँ, आजकल लोग यही देखते हैं,” शैलजा ने लापरवाही से कहा, “वैसे भी… तुम घर पर रहती तो कितना अच्छा रहता। मेरे मायके में तो मेरी ननद जब आती है, भाभी सब काम छोड़ देती है। और यहाँ… तुम्हें तो स्कूल है, मीटिंग है… हर चीज़ है।”
यह “हर चीज़” रीवा को तीर की तरह लगा।
वह चुप रही, ताकि किचन में कोई विस्फोट न हो। लेकिन चुप्पी भी अब भारी पड़ने लगी थी।
रात के खाने पर शैलजा ने चम्मच रखते हुए कहा, “रीवा, कल मैं एक-दो दिन और रुक जाऊँ। विशाल का घर… बड़ा सुकून देता है। और तुम्हारे हाथ का खाना… बस क्या कहूँ।”
रीवा ने भीतर से एक लंबी सांस ली। “एक-दो दिन?”
वह कुछ बोलती, उससे पहले विशाल बोल उठा, “हाँ, रह लो भाभी। वैसे भी आप अकेली रहती हो जब भैया टूर पर रहते हैं। यहाँ आपको अच्छा लगेगा।”
रीवा की तरफ देखे बिना उसने निर्णय सुना दिया। जैसे घर उसका ही हो, और रीवा बस व्यवस्थापक।
सास ने भी जोड़ दिया, “और बहू, कल तुम्हें छुट्टी लेनी पड़ेगी। घर में मेहमान हैं।”
रीवा ने पहली बार साफ कहा, “मम्मी जी, मैं छुट्टी नहीं ले सकती।”
डाइनिंग टेबल पर सन्नाटा उतर आया।
शैलजा की आँखों में चोट का नाटक उभर आया। “ओह… तो मैं बोझ हूँ? अच्छा… मैं चली जाऊँ?”
सास ने तुरंत रीवा की तरफ तीर फेंका। “देखा! तुम्हारी वजह से भाभी का दिल दुखा। बहू होकर भी मेहमान की कद्र नहीं।”
रीवा ने थाली धीरे से रख दी। उसका चेहरा शांत था, पर आवाज़ में वर्षों का दबा हुआ सच था।
“कद्र मैं करती हूँ, मम्मी जी। पर मेरा काम, मेरी जिम्मेदारी, मेरा बेटा—इनकी कद्र कौन करेगा? मैं हर बार छुट्टी लेकर घर में खाना बनाऊँ, चाय बनाऊँ, सेवा करूँ—और फिर भी ‘कद्र नहीं’ का तमगा मेरे माथे पर क्यों?”
विशाल ने झुंझलाकर कहा, “तुम इतना क्यों बढ़ा रही हो? बस दो दिन की बात है।”
“बस?” रीवा की आवाज़ काँप गई, “तुम्हारी दुनिया में हर चीज़ ‘बस’ है—बस मेहमान, बस आदेश, बस ताना, बस समझौता… और जो ‘बस’ नहीं है, वो सिर्फ़ तुम्हारी नौकरी, तुम्हारा परिवार, तुम्हारा सम्मान।”
कियान चुपचाप सुन रहा था। उसकी आँखें डर से बड़ी हो गईं।
रीवा ने खुद को संभाला। “मैं कल स्कूल जाऊँगी। अगर आपको लगता है कि मेहमान के लिए घर पर ‘भाभी’ चाहिए, तो विशाल… आप रहिए। छुट्टी लीजिए। आप संभालिए।”
सास हक्की-बक्की रह गईं। शैलजा ने हँसी दबाने की कोशिश की।
विशाल उखड़ गया। “मैं कैसे छुट्टी लूँ? मेरे ऑफिस में—”
“ठीक,” रीवा ने तुरंत कहा, “तो मेरा स्कूल भी ऑफिस है। मेरी भी जिम्मेदारी है। फर्क बस इतना है कि तुम अपनी जिम्मेदारी को ‘ज़रूरी’ और मेरी को ‘बहाना’ मानते हो।”
उस रात रीवा अपने कमरे में आकर बैठ गई। बाहर फुसफुसाहटें थीं। सास की आवाज़—“देखो, बहू के तेवर।”
शैलजा की आवाज़—“आजकल की लड़कियाँ…”
और विशाल की धीमी, परेशान आवाज़—“मैं क्या करूँ?”
रीवा को पहली बार एहसास हुआ—वह हमेशा अकेली लड़ती रही। कभी अपने लिए, कभी अपने बच्चे के लिए, कभी अपनी नौकरी के लिए। पर आज, पहली बार, उसने नियम बदल दिए थे—अब जिम्मेदारी वहीं टिकेगी, जहाँ अधिकार है।
सुबह रीवा तैयार हुई। स्कूल के लिए निकलने से पहले उसने रसोई में जाकर सबके लिए चाय नहीं बनाई। उसने बस कियान का टिफिन लगाया, उसके माथे पर चुंबन दिया और सास के पास जाकर शांत स्वर में कहा, “मम्मी जी, मैं शाम तक लौटूँगी। घर में जो भी चाहिए—सास-बहू की बजाय—माँ-बेटे मिलकर कर लीजिए।”
इतना कहकर वह निकल गई।
पीछे विशाल का चेहरा जैसे किसी ने सच का आईना दिखा दिया हो।
दिनभर स्कूल में रीवा का मन घर में था, लेकिन इस बार डर नहीं था। इस बार एक अजीब-सी मजबूती थी।
शाम को वह लौटी तो घर का नज़ारा बदला हुआ था।
ड्राइंग रूम में विशाल पसीने में था, हाथ में झाड़ू नहीं, पर चेहरे पर मेहनत की रेखाएँ थीं।
रसोई में बर्तन धुले हुए थे। मेज पर बाहर का खाना रखा था।
सास चुप थीं—पर उनकी चुप्पी में पहले जैसा घमंड नहीं था, थकान थी।
और शैलजा… अपना बैग समेट रही थी।
रीवा ने बिना किसी कटाक्ष के पूछा, “सब ठीक है?”
शैलजा ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, “हाँ… मुझे कल ही निकलना होगा। भैया भी लौट रहे हैं।”
उसकी आवाज़ में अब आदेश नहीं था।
सास ने धीरे से कहा, “रीवा… आज समझ आया कि घर सिर्फ़ बहू के भरोसे नहीं चलता। हम भी… आदत में पड़ गए थे।”
विशाल ने गर्दन झुकाकर कहा, “तुम सही थीं। मैं… मैं सोचता था मेहमानदारी तुम्हारा काम है, क्योंकि तुम ‘मैनेज’ कर लेती हो। पर मैनेज करना… निभाना नहीं होता।”
रीवा ने उसे देखा। कोई जीत का भाव नहीं था उसके भीतर। बस सुकून था कि बात समझ में आई—बिना टूटे।
कियान दौड़ता हुआ आया। “मम्मा! आज पापा ने मुझे खुद होमवर्क कराया! और दादी ने मेरे लिए दूध गरम किया!”
रीवा की आँखें नम हो गईं। वह मुस्कुराई।
उसने सास की तरफ देखा। “मम्मी जी, मैं मेहमानों से नहीं भागती। मैं बस… अपने हिस्से की इज़्ज़त चाहती हूँ।”
सास ने धीरे से उसका हाथ पकड़ा। “बेटी, इज़्ज़त मांगनी नहीं पड़नी चाहिए। हमसे गलती हो गई।”
उस रात घर में पहली बार सचमुच का सुकून था।
न कोई “भाभी जब आएं तो छुट्टी”, न कोई “तेरे काम का क्या”, न कोई “तेवर”।
बस एक नई समझ—कि रिश्ते तभी टिकते हैं जब हर इंसान की जिंदगी, उसकी मेहनत और उसकी सीमाएँ भी उतनी ही अहम मानी जाएँ जितनी मेहमानदारी और परंपराएँ।
और रीवा ने मन ही मन तय किया—अब वह अपने घर में सिर्फ़ निभाने वाली नहीं, बराबरी की हिस्सेदार होगी।
लेखिका : दिव्या सक्सेना