शाम ढल चुकी है। गांव के क्षितिज पर सूरज की आख़िरी किरणें जैसे अपनी पूरी ताक़त से अनामिका के भीतर उजाला भर रही हैं। वह चौदह बरस की एक दुबली-पतली पर गहरी आँखों वाली लड़की है। माथे पर बालों की लटें अक्सर उसकी दृष्टि को ढकती, लेकिन उसके सपनों की राह पर कोई परछाईं नहीं है। वह सपना देखती है बहुत पढ़-लिखकर अपने पैरों पर खड़े होने का, पढ़ाई का उसके अंदर जज़्बा कूट कूटकर भरा है। अनामिका हमेशा कक्षा में प्रथम आया करती है। स्कूल में शिक्षकों की चहेती अनामिका वाद-विवाद प्रतियोगिता में कई मैडल जीत चुकी है लेकिन घर पर माता-पिता की बातों को बिना बहस के सिर झुककर मान लिया करती है।
इस समय अपने कमरे की चौखट पर बैठी वह उंगलियों से ज़मीन कुरेद रही है। रसोई से माँ के काम करने की आवाज़ और पकवानों की खुशबू आ रही है, भाई-बहन की चुहलबाज़ी सुनाई दे रही हैं —शगुन की थाली सज रही है, चूड़ियां छनक रही हैं। चाय-नाश्ते के बाद बैठक में कुछ बातचीत हुई। कुछ देर बाद ही पिता जी बाहर दरवाज़े पर किन्हीं मेहमानों को विदा कर रहे हैं।
पता चला कि अनामिका की बात पक्की करने के लिए लड़के के पिताजी और बड़े भाई आए थे और शगुन का सिक्का देकर रोका हो गया है।
“तेरे भाग्य में लिखा है, बिटिया! इससे अच्छा घर नहीं मिलेगा,” मेहमानों के जाने के बाद माँ ने कहा
लेकिन अनामिका जानती है —यह होने वाला “घर” सिर्फ एक ठिकाना नहीं, उसकी पढ़ाई, आज़ादी और अस्तित्व का अंत भी है।
अनामिका नवीं कक्षा में पढ़ती है। वह रोज़ाना स्कूल जाती है —गांव से एक किलोमीटर दूर की कच्ची सड़क पार कर, धूल उड़ाते हुए। उसके दो छोटे भाई और एक बहन हैं। वे भी उसके साथ स्कूल पढ़ने जाते हैं। उसका स्कूल एक सरकारी इण्टर कॉलेज है। स्कूल में इस साल एक नए मास्टरजी स्थानांतरित होकर आए हैं —सुबोध सहाय गुरुजी । उम्र में अधेड़, पर आंखों में कुछ ऐसा जो हर बच्चे को विश्वास दिला देता है कि दुनिया बदल सकती है बस सोच में दम होना चाहिए।
उन्होंने ही एक दिन कक्षा में कहा था—
“बाल विवाह गुनाह है, समझे तुम लोग? कानून इसे मना करता है! विवाह के लिए लड़के की उम्र 21 साल और लड़की की उम्र 18 साल होनी जरूरी है।
सभी बेटियां सुनो,यह तुम्हारा हक़ है कि तुम 18 साल से पहले शादी के लिए मना कर सको। साथ ही सभी बेटों को भी पता होना चाहिए कि 21 साल का होने पर ही लड़कों की शादी की जा सकती है।”
तभी अनामिका ने पहली बार कानूनी शब्द सुना था—”हक़”
मेहमानों के जाने के बाद कुछ दिन शांति से बीते। अभी एक हफ्ता पहले जब माँ ने कहा—“तेरी शादी अगले महीने है, आज से तुम्हारा स्कूल जाना बंद! अब कुछ घर के काम-काज सीख ले नहीं तो ससुराल में सब कहेंगे कि माँ ने कुछ सीखकर नहीं भेजा। ”
तब अनामिका ने पहले तो कुछ नहीं कहा। वह चुप रही, लेकिन उस चुप्पी के भीतर बहुत कुछ उबल रहा है।
उसी शाम सुबोध सहाय मास्टरजी से वह छुपते-छुपाते मिली।
“मैं शादी नहीं करना चाहती, मास्टरजी पर कुछ कर भी नहीं सकती।”
मास्टरजी कुछ देर तक चुप रहे। फिर धीरे से बोले—
“अनामिका, तुम्हें बस अपनी चुप्पी को आवाज़ में बदलना होगा—तुम अगर चाहो, तो यह शादी रुक सकती है। तुम्हें बस बोलना होगा— थोड़ा साहसी बनना होगा, एक कठोर कदम उठाना होगा।”
“पिताजी तो बहुत गुस्सा करेंगे…”
“शायद। लेकिन वो गुस्सा एक दिन गर्व में बदलेगा, बेटी।”
अगले दिन मास्टरजी ने उसे बाल विवाह निषेध अधिनियम की एक प्रति दी। उन्होंने कुछ नंबर बताए, समझाया कि वह खुद भी बाल संरक्षण आयोग या पुलिस को लिख सकती है।
अंधेरे कमरे में बैठकर, कांपते हाथों से अनामिका ने एक चिट्ठी लिखी। वह चिट्ठी गांव के थाने तक पहुंचाई गई। कुछ ही दिनों में हलचल मच गई।
पुलिस वाले घर आए, पूछताछ हुई। पिता का चेहरा अपमान, शर्म और गुस्से से लाल हो गया।
“यह तूने किया? अपनी ही इज़्ज़त मिट्टी में मिला दी!” उन्होंने चीखते हुए कहा।
माँ रो रही थीं—“बिटिया, हमें थाने तक पहुँचा दिया? घर में पुलिस आ गई!”
लेकिन अनामिका की ऑ॑खों में कोई डर नहीं है। वो केवल मास्टरजी के शब्दों को याद कर रही थी—”हक़ लेना सीखो। हक़ सिर्फ़ अधिकार नहीं, पहचान भी है।”
वह माता-पिता से धीरे से बोली—“माँ-पिताजी , अगर मैंने शादी कर ली होती तो क्या आप मुझसे मिल भी पातीं? क्या मैं फिर कभी स्कूल जा पाती? क्या होता यदि मुझ पर कोई मुसीबत आती तो मैं तो कम पढ़ी-लिखी कुछ नहीं कर पाती ना? शादी कम उम्र में होने से मेरी सहेली विमला पिछले साल ही मर गई जब कम उम्र में उसे बच्चा होने वाला था। माँ ,मैं तो खुद अभी बच्ची हूँ। हमारा कानून इस विवाह को गैरकानूनी मानता है। पिताजी , बाल विवाह निषेध है, कानूनन जुर्म है इसके कारण बालविवाह करवाने वाले लड़का और लड़की के माता-पिता को सजा हो सकती है। ”
“कभी-कभी एक सवाल ही काफी होता है सन्नाटे को तोड़ने के लिए…”
उस दिन अनामिका ने चुप रहना छोड़ा, एक कठोर कदम उठाया और बदलाव की शुरुआत की।
क्योंकि — जो प्रश्न उठाता है, वही बदलाव लाता है।
माँ ने कोई जवाब नहीं दिया, पर उनकी आँखें कुछ कह रही हैं शायद वह अनामिका की बात से सहमत हैं।
कुछ ठहरकर अनामिका बोली,” बस आपसे एक ही विनती है कि मेरा स्कूल जाना मत छुड़वाना, मुझे पढ़ना है और अपने पैरों पर खड़ा होना है।”
घर में सन्नाटा छा गया। माँ खाना बनाते हुए चुप हैं । पिता ने बात नहीं की और मुँह फेरकर आँगन में बैठ गए।
रात में पिताजी ने अनामिका से कहा,” बस्ता लगा लेना, कल से स्कूल जाना।”
अनामिका ने खुश होकर माँ-पिताजी के चरण स्पर्श किए।
अगले दिन से अनामिका पूर्ववत स्कूल जाने लगी।
इसके बाद से गांव की औरतें माँ को ताने देने लगी —“आजकल की लड़कियां कुछ ज़्यादा ही किताबें पढ़ने लगी हैं।”
पर वह किताबें ही तो हैं जिन्होंने अनामिका को खुद को पहचानने का हक़ दिया है।
एक शाम, अनामिका पढ़ाई कर रही थी। तभी पिता चुपचाप उसके पास आए और उसकी किताब के पन्ने पर अपना हाथ फेरा।
“मैं ग़लत था,” उन्होंने पहली बार शांत स्वर में कहा।
“हमारे समय में कोई रास्ता नहीं होता था। अब है… और तुमने वो रास्ता चुना। शायद तुम्हारी मां और मैंने तुम्हारे लिए जो सपना देखा था, वो वही नहीं था जो तुम देख रही हो… लेकिन अब मुझे समझ आ गया है, बिटिया। वो लड़का जो खुद भी सोलह साल का था एक बीमारी की चपेट में आकर काल का ग्रास बन गया। तुमने सही कदम उठाया और हमें पाप का भागीदार होने से बचा लिया। “
अनामिका की ऑ॑खें भर आईं। पहली बार उसने अपने पिता को इतना कोमल पाया।
अब वह दोपहर की कक्षा के बाद गांव की दो और लड़कियों को पढ़ाती है—जो अगले साल किशोरावस्था में प्रवेश करेंगी। वह उन्हें न सिर्फ गणित, विज्ञान सिखाती है, बल्कि व्यवहारिक ज्ञान की बातें भी शेयर करती है—
“शादी कोई मंज़िल नहीं है, मंज़िल होती है खुद को पहचानना।”
पिता ने हाल ही में गांव की पंचायत में अपने अनुभव साझा किए। उन्होंने कहा—
“बेटी बोझ नहीं होती ! बेटी भविष्य होती है—और उसे उजाले की ओर बढ़ने का हक़ है।”
उस रात जब अनामिका छत पर लेटी तो उसे आकाशगंगा की रोशनी सी प्रतीत हुई। अब उसे अपने नाम का अर्थ समझ आया है।
“अनामिका — एक ऐसी पहचान जिसे कोई मिटा नहीं सकता।
और वही पहचान, एक दिन बहुत सी अनाम लड़कियों को उजाले की ओर ले जाएगी।
क्योंकि अनामिका अब सिर्फ एक नाम नहीं, बदलाव की शुरुआत है।”
शीर्षक -बदलाव
-प्रियंका सक्सेना ‘जयपुरी’
(मौलिक व स्वरचित)
#कठोर_कदम