बद्दुआ – दीपा माथुर

शहर के एक छोटे मोहल्ले में, चमचमाती इमारतों के बीच, एक टूटी-फूटी झोपड़ी थी। वहीं रहता था सद्दू — बारह साल का दुबला-पतला बच्चा। माँ पहले ही गुजर चुकी थी और पिता रिक्शा चलाकर जैसे-तैसे पेट पालते थे। घर में चार छोटे भाई और दो बहनें… ज़िम्मेदारी का पहाड़ उस नन्हे कंधे पर था।

बच्चा होकर भी वह बड़ा बन चुका था। सुबह स्कूल जाने के बजाय वह काम ढूँढता, किसी के बैग उठाता, किसी के सब्ज़ी का सामान घर तक पहुँचाता।

लेकिन सद्दू की सबसे खास बात थी — उसकी मुस्कान।

फटे कपड़ों में भी उसकी आंखें ऐसे चमकतीं जैसे अंधेरे कमरे में दिया जल गया हो।

सद्दू का ज्यादा वक्त सामने वाली बड़ी बिल्डिंग में गुजरता।

वहाँ रहने वाले बुजुर्गों की ज़िंदगी अजीब थी।

बेटे–बहू नौकरी या विदेश में थे। कोई महीनों तक नहीं आता, कोई फ़ोन पर भी मुश्किल से बात करता।

बुजुर्ग अक्सर खिड़की से दरवाज़े की ओर टकटकी लगाए रहते, जैसे इंतज़ार में हों।

लेकिन जैसे ही सद्दू आता, उनकी आंखों की सूनी रोशनी दीपक-सी जगमगा उठती।

“शांति दादी, आपकी दवाई ले आया!”

“अरोड़ा दादाजी, झाड़ू-बुहारी कर दी है!”

“लीजिए दादी, ये सब्ज़ी ताज़ी है, आंटी ने बाजार का काम बता दिया था, ले आया।”

सद्दू उनके लिए नौकर नहीं था, औलाद जैसा था।

दादी उसे खीर बनाकर खिलातीं, कोई मिठाई का टुकड़ा थमा देता, तो कोई माथे पर हाथ फेर देता।

दीपावली पास आ रही थी।

बिल्डिंग के बच्चे नए-नए कपड़े और पटाखे की बातें कर रहे थे।

सद्दू के भाई-बहनों की आंखें भी चमक रही थीं।

तभी नीलिमा आंटी ने अपने बेटे विभु के पुराने कपड़े निकालकर सद्दू को दे दिए।

अरोड़ा आंटी ने अपनी बेटियों की फ्रॉक उसकी बहनों के लिए दी।

सद्दू खुशी से उछल पड़ा —

“अबकी दिवाली पर सब भाई-बहन भी नए कपड़े पहनेंगे!”

वह गली-गली गाता घूमता —

“अरोड़ा आंटी बहुत अच्छी हैं… सब बहनों को ड्रेस दी हैं!”

उस मासूमियत ने सबके दिल को छू लिया।

एक दिन आयुष ने मज़ाक में कहा —

“सद्दू, तू तो बहुत मेहनत करता है, थकता नहीं?”

सद्दू मुस्कुराया —

“अंकल, जंगल का शेर कभी सुस्त हो सकता है क्या?”

फिर गंभीर होकर बोला —

“मम्मी कहा करती थीं, बेटा, किसी को बद्दुआ मत देना। बद्दुआ ज़िंदगी जला देती है। लेकिन दुआ… दुआ इंसान को ऊँचाई तक पहुँचा देती है।

अंकल, मैं तो रोज़ आप सबकी दुआ माँग लेता हूँ।”

उस दिन आयुष देर तक सोचते रहे।

बिल्डिंग वालों ने तय किया कि सद्दू की पढ़ाई की ज़िम्मेदारी वे लेंगे।

कभी शांति दादी फीस देतीं, कभी अरोड़ा जी किताबें दिला देते, नीलिमा आंटी टिफ़िन में खाना रख देतीं।

धीरे-धीरे सद्दू पढ़ाई में आगे बढ़ने लगा।

वह घंटों पढ़ता और कहता —

“एक दिन मैं बड़ा अफसर बनूँगा, ताकि सबको गर्व हो।”

उसका सपना सिर्फ उसका नहीं रहा, पूरी बिल्डिंग का सपना बन गया।

साल बीतते गए।

सद्दू ने छोटे-छोटे काम करते हुए, रात-रात भर पढ़ाई करते हुए, हर परीक्षा में अच्छे अंक लाए।

कभी थकता तो बुजुर्गों की आंखें उसे ताक़त देतीं।

“हमारी दुआएँ तेरे साथ हैं बेटा।”

आख़िर वह दिन आया जब परिणाम घोषित हुए —

सद्दू ने इनकम टैक्स इंस्पेक्टर की परीक्षा पास कर ली थी।

बिल्डिंग में ढोल बज उठा।

हर कोई गर्व से कह रहा था —

“ये हमारा सद्दू है!”

कई साल बाद दीपावली की रात थी।

बिल्डिंग जगमगा रही थी, लेकिन इस बार सबसे बड़ी रोशनी गेट से आई।

गाड़ी रुकी, और उसमें से उतरा एक युवा अफसर — नीली ड्रेस, सीने पर बैज चमकता हुआ।

सबकी आंखें फटी की फटी रह गईं।

“अरे… ये तो…”

“हाँ! ये… हमारा सद्दू है!”

सद्दू ने हाथ जोड़कर कहा —

“चौंकिए मत… ये सब आपकी दुआओं का असर है।

अगर आप सबने मुझे अपनाया न होता, तो शायद मैं कहीं खो गया होता।

आज जो भी हूँ, आपकी दुआओं से हूँ।”

शांति दादी की आंखों से आंसू झरते रहे।

अरोड़ा जी ने काँपते हाथों से उसका माथा चूमा।

नीलिमा बोलीं —

“देखा… दुआ कभी खाली नहीं जाती।”

उस रात सद्दू की झोपड़ी नहीं, पूरी बिल्डिंग दुआओं और रोशनी से भर गई थी।

दीपा माथुर

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