सर्दियों की उस सुबह, जब सूरज की किरणें धुंध को चीर रही थीं, रवि खिड़की के पास खड़ा था। उसकी बेटी आरती का विवाह-कार्ड उसकी उंगलियों के बीच था – चमकीला, भारी कागज पर सुंदर टाइपोग्राफी। एक पल के लिए उसकी निगाह कार्ड पर पिता के नाम के खाली स्थान पर अटक गई। **”श्रीमान…”** वहां कुछ नहीं था।
सिर्फ खालीपन था, एक ऐसा शून्य जो बारह साल बाद भी उतना ही विशाल था। उसकी पत्नी मीना ने पीछे से आकर हल्के से कंधे पर हाथ रखा, “सब ठीक है?” रवि ने एक गहरी सांस ली। हां, सब ठीक था। पर यह ‘ठीक’ कितना अलग था – एक ऐसा घाव जो भर तो गया था, पर निशान हमेशा के लिए उभरा रह गया था, जिसे छूने पर अभी भी एक सिहरन दौड़ जाती थी।
आरती की शादी का दिन आया। मंडप सजा था, शहनाई की मधुर तान हवा में तैर रही थी। रवि जब कन्यादान के लिए आगे बढ़ा, उसका दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। उस पल, **पिता की अनुपस्थिति एक ठोस वस्तु बन गई।** उसे याद आया, जब वह खुद बीस साल पहले इसी मंडप में खड़ा था।
उसके पिता, कद्दावर और गंभीर, उसके पीछे खड़े थे – उनका एक हाथ उसके कंधे पर, ठोस और आश्वस्त करने वाला। आज वह आत्मविश्वास, वह सहारा कहीं नहीं था। रवि ने आरती की ओर देखा। उसकी आँखों में भी वही प्रश्न था, वही अनकही चाहत – दादा का आशीर्वाद।
रवि ने अपनी आँखें बंद कर लीं। और तभी, मानो हवा में कोई स्पर्श तैरा हो, उसे अपने कंधे पर एक गर्माहट महसूस हुई – भारी, स्थिर, परिचित। वह एक क्षण भर था, पर उसने उस खालीपन को भर दिया। **उनका ‘होना’ उस स्पर्श में था, उस स्मृति में जो भावना बनकर साकार हो उठी थी।**
साल बीते। रवि का पोता, आदित्य, उसके जीवन में नई रोशनी बनकर आया। पहली बार जब उसने उस नन्हें बच्चे को गोद में उठाया, उसका नाजुक शरीर उसकी बाँहों में सिमटा, तो एक अजीब सी भावना ने उसे घेर लिया।
वह आदित्य को झुला रहा था, उसकी मुलायम नींद की सांसें उसकी गर्दन को छू रही थीं। तभी उसे अपने पिता की एक धुंधली सी याद आई – वह कैसे उसे छोटे में गोद में लेकर छत पर टहलते थे, चांद दिखाते थे। **वह स्मृति अचानक कितनी स्पष्ट हो गई!
** उसका अपना झुलाने का ढंग, उसकी बाँहों का घेरा – वह सब उसके पिता का ही तो प्रतिबिंब था! आदित्य को देखते हुए, उसे लगा मानो वह खुद को और अपने पिता को, दोनों को एक साथ देख रहा हो। **उनका ‘होना’ उस आनुवंशिक धागे में था, उन आदतों में जो अनजाने ही उसकी मांसपेशियों में समा गई थीं।**
एक दोपहर, आदित्य का खिलौना कार का पहिया टूट गया। वह जोर-जोर से रोने लगा। रवि ने उसे चुप कराने की कोशिश की, पर बेकार। तभी, बिना सोचे, उसके मुंह से वही शब्द निकले जो उसके पिता अक्सर उसके बचपन में कहा करते थे, “अरे बेटा, रोने से क्या होगा? आओ, देखो दादा इसे कैसे ठीक करते हैं!
” शब्द सुनकर वह खुद चौंक गया। ‘दादा’? उसके पिता तो थे ही नहीं। पर उस पल, वह शब्द इतना स्वाभाविक था, मानो उसके भीतर से कोई और ही बोल रहा हो। उसने पुराने टूलबॉक्स से प्लायर निकाला और खिलौने को ठीक करने लगा।
वही टूलबॉक्स जो उसके पिता का था, जिसमें उनकी उंगलियों के निशान अब भी जमी धूल में कहीं सुरक्षित थे। **उनका ‘होना’ उस टूलबॉक्स में था, उस सहज सलाह में जो पीढ़ियों से चली आ रही थी।**
फिर वह दिन आया जब आदित्य बीमार पड़ा। तेज बुखार, डॉक्टर का चक्कर। रात भर रवि और मीना उसके पास बैठे रहे। तीन बजे का वक्त, सन्नाटा चारों ओर। आदित्य की सांसें तेज और बेचैन। रवि का मन एकाएक भय से भर गया।
वह अनजानी आशंकाओं से घिर रहा था। तभी, अचानक, उसे अपने पिता की एक बात याद आई – एक बहुत पुरानी बात, जब वह खुद बचपन में निमोनिया से बाल-बाल बचा था। उसके पिता ने, जो आमतौर पर भावुकता नहीं दिखाते थे, उस रात उसके बिस्तर के पास ही फर्श पर चटाई बिछाकर बिताई थी। उन्होंने कहा था, **”डर मत, बेटा।
सुबह होते ही सब ठीक हो जाता है। सूरज सब दुख धो देता है।”** उन शब्दों में जादू था। रवि की बेचैनी कुछ कम हुई। उसने आदित्य के माथे पर हाथ रखा, और मन ही मन दोहराया, “डर मत, बेटा। सुबह होते ही सब ठीक हो जाएगा।” **उनका ‘होना’ उस सांत्वना में था, जो समय की धूल के नीचे दबी पड़ी थी और मुश्किल के पल में चमक उठी।**
सुबह हुई। आदित्य का बुखार उतरना शुरू हो गया। रवि छत पर गया। पूर्वी आकाश में सुनहरी लकीरें फैल रही थीं। हवा में ठंडक थी। उसने गहरी सांस ली। पिता का न होना… यह अब उसके लिए एक खाली कुर्सी नहीं रह गया था।
यह एक **अनुगूंज थी** जो हर पल उसके साथ चलती थी। उनकी कही बातें उसकी आवाज बन गई थीं। उनकी चुप्पियाँ उसकी समझ में ढल गई थीं। उनकी कमी ने उसे उनकी उपस्थिति के असली मायने सिखा दिए थे – जो देह से परे, रक्त से परे, **आत्मा की अमिट छाप तक पहुंचते थे।**
वह नीचे आया। आदित्य अब जाग चुका था, थोड़ा कमजोर, पर मुस्कुरा रहा था। रवि ने उसे गोद में उठाया। उस नन्हें शरीर को अपने सीने से लगाते हुए, उसे लगा मानो उस छोटे से शरीर में दो पीढ़ियों का स्पर्श समाया हुआ है – एक जो चली गई थी, और एक जो अभी आई थी। पिता नहीं थे, पर उनका प्यार था। उनकी शारीरिक उपस्थिति नहीं थी,
पर उनकी **उपस्थिति का सार** हर उस पल में बसा था जब रवि ने पिता होने का अर्थ जिया। यही था उनके ‘होने’ का मायने – एक शाश्वत अंश, जो मृत्यु से परे, पीढ़ियों की धारा में सदैव बहता रहता है।
डॉ० मनीषा भारद्वाज
ब्याड़ा ( पालमपुर)
हिमाचल प्रदेश
लघुकथा