सूर्यास्त के बाद – डॉ पुष्पा सक्सेना : Moral Stories in Hindi

सब कुछ स्वप्नवत् सम्पन्न हुआ लगा था। श्रृंगार करती सखियों का परिहास, चारों ओर बिखरा उल्लास, उसे छू भी न सका था। शायद पंडित जी ने उसकी पुकार लगाई थी ………………….

”कन्या को विवाह. मंडप में लाइए यजमान …………….“

निर्वाक् बैठी अमृता को अमिता ने चैतन्य किया था-

”क्या बात है यार, ये नक्शे किसको इम्प्रेस करने के लिए दिखाये जा रहे हैं? तुम दोनों तो एक-दूसरे से अच्छी तरह परिचित हो, फिर ये परम्परागत लाज का नाटक क्योंए सखि?“

अमृता का पूरा शरीर मानो कंटकित हो उठा था …………. परिचित ………….? सिर्फ़ परिचित क्यों … अभिन्न कहना ठीक होता, पर आज वही परिचित, सर्वथा अपरिचित क्यों लग रहा था।

”चलो भाई बहुत झेल लिया तुम्हारा नाटक ……… कहो तो देवी जी को मंडप तक हम दोनों गोद में उठाकर ले चलें। क्यों स्मिता ठीक कहा न?“

सखियाँ हॅंस पड़ी थीं। यंत्रचालित-सी अमृता मंडप की वेदी पर जा बैठी थी। पंडित जी ने मंत्रोच्चार शुरू कर दिये थे। पास बैठे अनिन्द्य ने शायद एक पल को उस पर दृष्टि भी डाली थी।

”हाँ अब कन्या का दायाँ हाथ, वर के हाथ पर धरें ……….“

पंडित जी के निर्देश पर पीछे बैठी उषा भाभी ने अमृता की दायीं हथेली, अनिन्द्य की फैली हथेली पर धर दी थी। अनिन्द्य के हाथ की गर्माहट पर अमृता सिहर उठी थी। जी चाहा था हाथ झटक, उठ खड़ी हो, पर वह कर पाना क्या अब संभव था।

अनिन्द्य के साथ कार में बैठ, उस घर तक पहुँचना मानो जागते हुए स्वप्न-सा देखा था। कितनी बार रजनी के साथ बतियाते, मिनटों में जिस मार्ग को पार किया था, आज कितना लम्बा हो उठा था। अनिन्द्य के रिश्ते की बुआ ने सामने आ, आरती उतारते हुए रूँधे कंठ से कहा था-

”अब की बार मेरे बेटे की गृहस्थी जमा दो भगवान। आओ बहू………….“

पाँव पर झुकती अमृता को बुआ-सास ने आशीष दे उठा लिया था।

”इस घर में जूही-सी महको, फूलों-फलो बहू।“

दिन भर पास-पड़ोसियों का आना-जाना लगा रहा। कुछ फुसफुसाहटें, दबी-ढॅंकी आवाजें अमृता के कानों तक पहुँच ही रही थीं-”चलो एक सहेली की खाली जगह दूसरी ने भर दी ………“

”बिचारी रजनी के भाग्य में सुख नहीं था, इसके लिए सब छोड़ गयी।“

”वैसे भी पहली के मुकाबले दूसरी का पति ज्यादा लाड़ करता है, रजनी का तो घर वापिस लौटना भी न हो सका।

”इसकी माँ तो तर गयी, इत्ता अच्छा घर-बार बैठे-बिठाये मिल गया।“

वो सब बातें सुनती अमृता को दिन काटना कितना कठिन लगा था। रात में रजनीगंधा और गुलाब की लड़ियों से सुवासित कक्ष में बाहर की ओर खुलती खिड़की के पास पहुँच अमृता ठिठक गयी थी। बाहर का सितारों जड़ा आकाश उसके मानस में उतर आया था।

उस दिन रजनी के साथ गहरा बैजनी रंग घोले, वह भी अलका की प्रतीक्षा कर रही थी। रजनी ने अलका को बहाने से घर बुलवाया था।

”आज अलका को मजा चखाना हैए अमृता। याद है पिछले साल इस अलका की बच्ची ने हमें कैसा रंगा था। चार दिनों तक पक्का फ़ीरोजी रंग चेहरे से नहीं उतरा था।

इस बार होली के एक दिन पहले ही उन्होंने उसे छकाने की ठानी थी। दोनों साँस रोके खिड़की के पास खड़ी थीं। खिड़की के नीचे पदचाप सुनते ही रजनी और अमृता ने रंग-भरी बालटी उठाकर नीचे उॅंडेल दी थी।

”ये क्या शरारत है, कौन है ऊपर? एक कठोर मर्दानी आवाज़ सुनाई पड़ी थी।“

”हे भगवान, भाग मीतू, ये तो अनिन्द्य दा हैं। मारे गये …….. चल जल्दी……….“

अपने घर के नक्शे से परिचित रजनी मिनटों में न जाने कहाँ तिड़ी हो गयी थी। सीढ़ियाँ उतरती अमृता हॅंस पड़ी । गहरे बैजनी रंग ने अपना कमाल कर दिखाया था। ऊपर से नीचे बैजनी हुए अनिन्द्य को देख उन भय के क्षणों में भी अमृता के मुख से अचानक निकल गया था……….. ”बैगन ……….“

”हूँ, तो ये आपकी मेहरबानी है। वैसे इस रंग का अकेला मैं ही उपभोग क्यों करूँ, चार लोगों के लिए काफ़ी होगा इतना रंग ………..“ कहते हुए उसने जबरन अमृता को अपने समीप खींच अपने रंगे कपोलों से उसके कपोल रंग दिये थे।

पीड़ा और आक्रोश से अमृता के नयन छलछला आये थे। उस सबल भुजापाश में छटपटाती, बंधन-मुक्त होने का व्यर्थ उपक्रम मात्र ही, वह कर सकी थी। सम्भवतः अमृता के अश्रुकणों की स्निग्धता ने अनिन्द्य को चैतन्य किया था। क्रोधावेश नमी में बह-सा गया था।

”आई एम साँरी, मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था, पर देख रही हैं न एकदम नयी शर्ट-पैंट आपकी कृपा से व्यर्थ हो गयी है।“

क्षमा-याचना के अन्त में आक्रोश फिर स्वर में उभर आया था।

प्रत्युत्तर में बन्धन-मुक्त अमृता, सीधे घर की राह दौड़ गयी थी। साबुन से रगड़-रगड़ उसने मुँह छील डाला था, पर वह क्षणिक स्पर्श बार-बार मुँह चिढ़ाता, उसे खिजाता रहा था। अम्मा भुनभुना रही थीं-

”होली के चार दिन पहले ये हाल है- सयानी हो गयी, अक्ल नहीं आयी। गली-मुहल्ले वाले क्या कहेंगे।“

दूसरे दिन रजनी के आते ही अमृता उस पर बरस पड़ी थी ………………

”नहीं बोलना है तुझसे। अपनी जान छुड़ाकर भाग गयी, हमें अकेला मरने छोड़ दिया।“

”सच बता मीतू, क्या अनिन्द्य दा बहुत नाराज थे? असल में तू उनका गुस्सा नहीं जानती, तुझे पराई समझ कम डाँटा होगा, मेरा तो न जाने क्या हाल बनाते। हाय, तेरे मुँह पर ये बैजनी रंग कैसे लग गया?“

अमृता का हाथ अपने कपालों को सहला गया था-

”कुछ नहीं, बाल्टी उठाते हाथ में रंग लग गया था, वही चढ़ गया होगा।“ अमृता साफ झूठ बोल गयी थी।

”अच्छा अब माफ़ नहीं करेगी सखी? चल जो सज़ा देगी स्वीकार कर लूँगी। कहे तो कान पकड़ उट्ठक-बैठक भी कर सकती हूँ गुइंया।“ अमृता हॅंस पड़ी थी। उसे हॅंसता देख रजनी का साहस बढ़ गया था।

”वैसे सच कहूँ, अनिन्द्य दा परेशान दिख रहे थे। तेरे बारे में जाँच-पड़ताल कर रहे थे।“

”क्या वह पुलिस अफ़सर है, खबरदार जो तूने मेरे बारे में एक शब्द भी बताया तो ……….“

”लगता है कहीं कुछ ज्यादती कर गये हैं अनिन्द्य दा। चल मेरे साथ, अभी उनकी खबर लेती हूँ।“

”नहीं बात करनी है ऐसे जंगली से ……. तेरे अनिन्द्य दा होंगे, मेरा उनसे कुछ लेना-देना नहीं।“

”पर अनिन्द्य दा तो तुझसे मिले बिना नहीं रहेंगेए सखी। वह तो मेरे साथ आज ही आ जाते, मैं टाल आयी हूँ। बड़े जिद्दी हैं अनिन्द्य दा। जो चाहेंगे पूरा किये बिना मानने वाले नहीं …………. ये बात गाँठ बाँधकर रख ले सखी।“

मुझे क्या पड़ी है जो गाँठ बाँधकर रखूँ। भगवान करे आगे कभी उनसे बात भी न हो।“ अमृता का स्वर तिक्त हो उठा था।

काँलेज से रजनी और अमृता साथ ही लौटती थीं। उस दिन संध्या काँलेज के सामने प्रतीक्षा करती फ़िएट कार देख रजनी चहक उठी थी।

”हाय अमृता, ये तो अनिन्द्य दा हैं, आ, आज जल्दी घर पहुँच जाएँगे। ज़रूर उन्हें मुझसे कोई काम आ पड़ा है तभी लेने आये हैं वर्ना ……………….“

”तू जा कार में, मुझे नहीं आना है तेरे साथ ……….“ रजनी का पकड़ा हाथ जबरन छुड़ाती अमृता रूक गयी थी।

”आज तक कभी ऐसा हुआ है, मैं तेरे बिना घर गयी हूँ? ठीक है, मना कर आती हूँ उनसे, तू यहीं रूक ……“

रजनी के साथ अमृता के सामने मंद स्मित के साथ अनिन्द्य स्वंय आ खड़ा हुआ था ………..

”मेरी कार में एक व्यक्ति के भार से कोई अन्तर नहीं आने वाला है अमृता जी। वैसे मेरे साथ न आने का कोई ख़ास कारण तो नहीं हैं न?“ शरारती मुस्कराहट उसके अधरों पर खेल रही थी।

”कार में व्यर्थ घूमने की आदत नहीं है मेरी- वह भी अपरिचितों के साथ ….. क्षमा करेंगे। …“ तल्खी से उसने जबाब दिया था।

”देखिए, आप मुझे पहले ही काफी महॅंगी पड़ चुकी हैं, एक पूरी नयी ड्रेस आपके नाम कर चुका हूँ। अब यहाँ व्यर्थ देर कर मेरा समय तो नष्ट न करें।“

”मैंने कहा है, आप मेरे लिए प्रतीक्षा करें ……….. मिस्टर ?“

”अनिन्द्य! वैसे शायद आपकी सम्मति में तो मैं सर्वथा निन्द्य ठहराया जाऊॅं- क्यों ठीक कहा न मिस अमृता?“

”मेरे लिए आप इतने महत्वपूर्ण नहीं जो आपके विषय में कोई सम्मति-असम्मति रखॅंू।“

”ठीक है यही सही, पर यहाँ खड़ा होकर आपकी खुशामद करने का मेरा कोई इरादा नहीं है। सीधे से आकर कार में बैठ जाइए, वर्ना ज़बरदस्ती उठाकर भी आपको ले जा सकता हूँ, ये बात समझती हैं न मिस अमृता?“

अमृता के खिसियाए चेहरे पर भयभीत दृष्टि डालती रजनी ने उसका हाथ पकड़ जबरन खींचा था। कार में निःशब्द बैठी अमृता व्यर्थ ही बाहर झाँक रही थी। कोज़ी-कार्नर के सामने कार रोक अनिन्द्य ने उसे छोटे छोकरे से तीन ठंडे थम्स-अप लाने के निर्देश दिये थे।

कोल्ड ड्रिंक थमाता अनिन्द्य एकदम नार्मल था-

”लीजिए ………. एकदम ठंडा है, आपका पारा नीचे उतारने का यही एकमात्र ज़रिया था मेरे पास ………“ उसकी हॅंसती दृष्टि से नयन चुराती अमृता झुँझला उठी थी।

घर पहुँचते ही अमृता रजनी पर बरस पड़ी थी-

”क्या समझते हैं अपने अपको? तेरे भाई हैं तू उनका रोष सहोगी, मैं क्यों सहूँ?“

”वह मेरे कोई नहीं हैं मीतू।“ रजनी शान्त थी।

”क्या ……… तुझ पर, तेरे घर पर इतना अधिकार, कोई यॅंूं ही जता सकता है क्या?“

”हाँ अमृत, कुछ न होते हुए भी, वह हमारे सब कुछ हैं ……. बाबूजी की मृत्यु के बाद से इन्हीं के पिता के संरक्षण में हम जी सके हैं, वर्ना बाबूजी के रिश्तेदारों ने तो हम माँ-बेटी को ख़त्म ही कर दिया होता।“

”क्या कह रही है रज्जो?“

”यही सच है अमृृता। बाबूजी की मृत्यु होते ही रिश्तेदारों की गिद्ध दृष्टि हमारी सम्पत्ति पर थी। बाबूजी के अभिन्न मित्र हैं चाचाजी, पर उनसे जो स्नेह-संरक्षण मिला उसे शायद शब्दों में बता पाना संभव नहीं है अमृता।“

”ऐसे पिता का ऐसा पुत्र?“

”अनिन्द्य दा का आक्रोश स्वाभाविक है मीतू। एम.सी.सी. के बाद रिसर्च के लिए कनाडा जाना चाहा था, पर चाचाजी ने जाने नहीं दिया।“

”पर उसके लिए उनका आक्रोश अपने पिता के प्रति होना चाहिए था न रज्जो?“

”चाचाजी का उनके प्रति ये अन्याय ठीक नहीं था अमृता। यहाँ अच्छी सर्विस होते हुए भी उनका मन अशान्त और अतृप्त है।“

”कनाडा न जाने देने का कोई तो कारण रहा होगा ……….?“

”शायद चाचाजी को डर था, वह छात्रवृत्ति पर साथ जा रही अपनी क्लास-फ़ेलो लवलीन डेविड से विवाह न कर ले-अन्ततः अनिन्द्य दा एकमात्र पुत्र हैं। उनकी अथाह सम्पत्ति के वारिस …………“

”और अगर यहाँ भारत में रहते वह किसी और से विवाह कर लें तो?“

”शायद वह ऐसा कभी नहीं कर सकेंगे-चाचा जी की इच्छा की अवज्ञा उनके लिए असंभव है। दो वर्ष की आयु से चाचा जी ने उन्हें पाला है। चाची जी तेईस वर्ष की आयु में ही स्वर्ग चली गयी थीं मीतू …“

”अच्छा तो उस सबका आक्रोश हम पर ही निकालना है?“

”सच जैसे वे तुझ पर अधिकार जताते हैं, उससे आश्चर्य होता है। ऐसा अधिकार तो उन्होंने कभी मुझ पर नहीं जमाया। कोई खास बात तो नहीं है मेरी अमृत?“

”ख़ास बात….. वह भी ऐसे नीरस व्यक्ति के साथ……… तेरा दिमाग तो नहीं चल गया है रज्जो?“ अमृत झूँझला उठी थी।

दिमाग रजनी का यॅंू ही नहीं चल गया था। उस दिन के बाद से अमृता का जब-तब अनिन्द्य से सामना होने लगा था। कभी वह काँलेज से वापिस लाने को पहुँच, देर तक प्रतीक्षा करता। जबरन किसी रेस्ट्राँ में ले जाकर बातें करने, अमृता की पसंद-नापसंद की जानकारी लेने में अनिन्द्य व्यर्थ ही समय नष्ट करता।

”लगता है आप आँफिस से मुफ्त का वेतन लेते हैं-कहाँ से इतना समय मिल जाता है बेकार के कामों के लिए?“ अमृता झुँझला उठती थी।

”नौकरी ही तो कर रहा हूँ…………. दो-दो मोहतरमाओं को खुश रख पाना क्या आसान काम है?“

जाने-अनजाने अमृता महसूस करने लगी थी, अनिन्द्य अमृता का विशेष ध्यान रखता था। रजनी उस दिन काँलेज नहीं गयी थी, काँलेज से बाहर अनिन्द्य की परिचित फ़िएट खड़ी थी। अमृता के लिए सामने वाली सीट का द्वार खोल अनिन्द्य ने उसे पुकारा था।

”आइए अमृता जी, आपकी प्रतीक्षा में गुलाम हाजिर है।“

”आज रजनी नहीं आयी है।“ अमृतर ने रूखाई से कहा था।

”जानता हूँ……..“ अनिन्द्य हॅंस रहा था।

”फिर भी मैं आपके साथ चलुँगी, ऐसा कैसे सोच लिया अनिन्द्य जी?“

”सोचा नहीं-विश्वास है।“

”मैं नहीं जाऊॅंगी……“

 

” तो यहाँ से एक पग आगे भी नहीं बढ़ा सकेंगी मिस अमृता………“

”देखूँ कैसे रोकते हैं आप?“

अमृता के पग बढ़ाते ही अनिन्द्य ने उसका हाथ पकड़ कर कार के खुले द्वार से उसे लगभग भीतर ठेल-सा दिया था। तत्परता से ड्राइविंग सीट पर बैठ कार स्टार्ट करते हुए कहा था- ”व्यर्थ बाहर कूदने की चेष्टा न करें, हजारों आँखें कौतुक से हमें देख रही हैं। अब और तमाशा न करें।“

”तमाशा तो आप कर रहे हैं, मैं आपकी व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं जो जी चाहा कर लिया। मेरे रेपुटेशन का जरा-सा भी ध्यान है आपको?“ अमृता रूआँसी हो आयी थी।

निरूत्तर अनिन्द्य जब शहर से एकान्त की ओर कार ले जाने लगा तो अमृता डर गयी थी-

”कार कहाँ ले जा रहे हैं? किस शत्रुता का बदला ले रहे हो?“ अमृता भयभीत थी।

एक खंडहर के सामने कार रोक अनिन्द्य ने अमृता का मुँह अपनी ओर घुमा कर कहा था-

”तुम्हें बेहद चाहने लगा हूँ अमृता। पहले तुम्हें देखकर न जाने क्यों आक्रोश-सा उभरता था, पर अब बिना तुम्हें देखे चैन नहीं पड़ता।“

”मुझे घर जाना है……… माँ नाराज होगी। प्लीज……….“

”मुझे पति रूप में स्वीकार कर सकोगी अमृता?“

”नहीं …….. कभी नहीं…… कभी नहीं……….“

”तो तुम यहाँ से कभी वापिस भी नहीं जा सकोगी अमृत………..“

”क्या ……..आ………..?“

”हाँ आज यही संकल्प लेकर निकला हूँ या तो मुझे स्वीकार करो, नहीं तो तुम्हें जबरन कहीं ले जाऊॅंगा।“

”नहीं….. तुम इतने नीच नहीं हो ……तुम ऐसा नहीं कर सकते…….“ अमृता का स्वर भयात्र्त था।

”मैं क्या नहीं कर सकता अमृता? तुम मुझे जानती…….. मैं स्वीकार हूँ या नहीं?“

”ऐसी स्वीकृति का क्या अर्थ होगा जो भय और आतंक से दी जाए?“

”मुझ से विवाह कर लो, प्यार करना सीख जाओगी।“

असम्भव ………….“

”चुनौती क्यों नहीं स्वीकार कर लेतीं?“ एक शरारती मुस्कान उसके अधरों पर खेल रही थी।

”मैं हार जाना स्वीकार करूँगी…………………….“

”तब तो स्वीकृति हो ही गयी, अब अपने शब्दों से पीछे नहीं हटना अमृत …………“

सच कैसी मूर्खता कर बैठी थी वह अनजाने में, उसकी हार का अर्थ अनिन्द्य की जीत ही तो था।

पाँकेट से सिन्दूर की डिब्बी निकाल, चुटकी-भर सिन्दूर उसने अमृता की माँग से सजा दिया था। हतप्रभ अमृता ताकती रह गयी थी।

”मेरे लिए इसका कोई अर्थ नहीं है पर घर कैसे जाऊॅंगी मैं अब?“ दमकती सिन्दूर रेखा के साथ नयनों से अश्रुकण ढुलकने लगे थे। हथेलियों में मुँह छिपा अमृता सिसक उठी थी।

”ये अस्ताचल सूर्य साक्षी है मैंने मात्र सिन्दूर से नहीं, सूर्य की सारी लालिमा समेट, तुम्हें अपनी पत्नी स्वीकार किया है अमृत। आज के बाद इन नयनों को अश्रु ढुलकाने का अधिकार नहीं दूँगा मैं।“

बहुत प्यार से अमृता के दोनों हाथ उसके मुँह से हटा, ढुलके अश्रुओं को उसने अपने अधरों से सोख लिया था। स्तब्ध, विस्मय-विमूढ़ अमृता उसे ताकती रह गयी थी। पीछे डूबते सूर्य की पूरी लालिमा सामने लगे दर्पण से प्रतिबिम्बित हो अमृता के मुख पर फैल गयी थी।

वापिस लौटता अनिन्द्य किस कदर गम्भीर हो उठा था- ”मेरी असभ्यता, अभद्रता को क्षमा करना अमृत। तुम्हें खोने का साहस नहीं रह गया था। डरता था कहीं खो न दूँ, शायद इसीलिए ये अपराध कर डाला।“ कुछ पल रूक फिर कहा था अनिन्द्य ने- ”…….माँ दो वर्ष में ही छोड़कर चली गयी, पिताजी सब कुछ देकर भी माँ नहीं बन सके। जी चाहता था मेरी जिद, नादानी पर कोई माँ जैसा डाँटता, रोने पर दुलराता-समझाता, पर मेरे लिए तो रोने का अवसर ही कहाँ आ पाता था। जो चाहा तुरन्त मिल गया…… मैं अक्खड़. उद्दंड बनता गया पर कोई यह कहने का साहस ही नहीं कर सका।

”मेरे व्यवहार के प्रति तुमने रूष्टता जाहिर की, मेरा विरोध करने का दुस्साहस किया और हम दोनों प्रतिद्वन्द्वी बन गये। न जाने कब ये आक्रोश तुम्हारी चाहत में बदल गया अमृत… पिताजी शायद मेरी यह चाहत स्वीकार न करते, पर इस जिद का वह क्या करेंगे जिसमें तुम मेरी पत्नी बन गयी हो….. उनकी कुलवधू उनके वारिस की पत्नी………. “

पूरे रास्ते अमृता जड़ बैठी रह गयी थी। बस अपना घर आने के पहले उसने अनुनय की थी।

”मुझे यहीं उतार दें-प्लीज………“

अविश्वास से उसको अनिन्द्य ने एक पल के लिए ताका भर था…… ”मैं भी साथ चलता हूँ, माँ का आशीष लेंगे अमृत ………।“

”भगवान के लिए मुझे क्षमा करें अब और नहीं……….“ नयन फिर छल-छला आये थे।

”एक बात याद रखना, अब तुम मेरी अमानत हो, इंच-भर खरोच के लिए भी माफी नहीं मिलेगी।“

”अपना शरीर मेरा अपना है अनिन्द्य …..।“

अनिन्द्य ने वाक्य पूरा भी न होने दिया था। अमृता का हाथ अपने सिर पर रखकर शपथ ले डाली ”अगर अपने शरीर को रत्ती-भर भी कष्ट पहुँचाया तो दुगुना कष्ट मैं झेलूँगा-यह मेरा वादा है।“ ा

सिन्दूर को रूमाल से रगड़ने पर भी लाली कहाँ छूटी थी। अन्ततः माँग की रेखा बदलकर ही वह घर में प्रविष्ट हुई थी। घर पहुँचते ही माँ ने उसके रूँआसे मुख को सतर्क दृष्टि से ताका था- ”तुझे क्या पहले ही पता लग गया मीतू……….. बेचारी रजनी………..“

”रजनी को क्या हुआ माँ?“

”तुझे पता नहीं लगा……….बेचारी इस संसार में अकेली रह गयी। एक माँ बची थी सो उसे भी भगवान ने बुला लिया……….।“

”क्या कह रही हो माँ……… सुबह हल्का सिर दर्द ही तो बता रही थी मौसी। कैसे सहेगी रजनी …“ अमृता रो पड़ी थी।

”न जाने कैसा नसीब है बेचारी का, पहले बाप चला गया, अब माँ की छाया भी न रही। जरा-सा सिर का दर्द, काल बनकर आया था बेचारी का।“

”माँ एमैं जा रही हूँ………..।“

”अरे बिटिया जरा मुँह तो जुठार ले……….. अब क्या जल्दी घर लौट पायेगी? कैसा तो मुँह सूख रहा है तेरा……….“

अम्मा की बात अनसुनी कर अमृता रजनी के घर भाग चली थी। अच्छा हुआ आज रजनी काँलेज नही गयी, मौसी तो उसे जबरन भेज रही थी………..।

 

अमृता का निष्प्रभ मुख निहारती रजनी, उसके गले से लिपट आर्तनाद कर उठी थी। अनिन्द्य दूर खड़ा स्तब्ध ताक रहा था। माँ के निर्जीव शरीर से रजनी को कठिनाई से अलग किया जा सका था।

क्रिया-कर्म समाप्त होते रात हो गयी थी। पड़ोसी रजनी के प्रति मात्र सहानुभूति के अतिरिक्त और कर भी क्या सकते थे।

दूसरे दिन संध्या एक सफ़ेद कार रजनी के घर के द्वार आ रूकी थी। भव्य व्यक्तित्व के स्वामी अनिन्द्य के पिता, रायबहादुर श्यामनाथ जी कार से उतरे थे। पिता-पुत्र के चेहरों में अद्भुत साम्य होते हुए भी कहीं कोई अलगाव अवश्य था। घर पहुँचते ही उन्होंने पूरी व्यवस्था अपने हाथ में ले ली थी।

चार दिन के अन्दर घर की चाभी अमृता की माँ को थमा, वह रजनी और अनिन्द्य को अपने साथ ले गये थे।

”वहाँ जाकर लड़की का मन बदल जायेगा। इतना बड़ा सदमा झेल पाना आसान तो नहीं है न।“ श्यामनाथ जी ने सबको सुनाकर कहा था।

उनकी बात सत्य ही थी। रजनी को विदा करने आयी अमृता से अनिन्द्य ने हल्के स्वर में कहा था- ”मैं जल्दी आऊंगा, अमृत……… प्रतीक्षा करोगी न?“

उत्तर में अमृता मौन रह गयी थी।

वह तो आज तक प्रतीक्षा करती रही,  पर अनिन्द्य क्या उसके लिए वापिस आ सका था?

दो माह पश्चात उसके नाम का निमन्त्रण पत्र मिला था- अनिन्द्य और रजनी का विवाह उसी माह की पूर्णिमा को नियत किया गया था। रजनी ने पत्र में बार-बार मनुहार की थी-अमृता को जरूर जाना चाहिए। वही तो उसकी अभिन्न सखी है आदि………आदि।

अम्मा ने आश्वस्ति की श्वास ली थी-

”चलो अच्छा हुआ लड़की को अच्छा घर-वर मिल गया। भगवान सबकी ऐसे ही मदद करते रहे।“ अमृता के पिता का अभाव माँ को हमेशा सालता रहता था।

निरूत्तर अमृता के उदास चेहरे को ताकती, अम्मा चौंक उठी थीं………….

”क्या हुआ है तुझे – रंग ऐसा पीला पड़ गया है। तबियत तो ठीक है, मीतू?“

”ठीक है, माँ………“

”तू शादी में जाना चाहे तो तेरे साथ किसी को भेज सकती हूँ। तेरे जाने से रज्जू का मनोबल बढे़गा, मीतू…….“

”मुझे कहीं नहीं जाना है, माँ……..“

माँ को अवाक् छोड़। अमृता आँधी-सी बाहर चली गयी थी।

”इन लड़कियों का दिमाग ही समझ में नहीं आता…….. न जाने क्या बात है।“ अम्मा भुनभुनाती रह गयी थीं।

अपमान की भी सीमा होती है………. क्रोध से अमृता का तन-मन जल रहा था। जी चाहता था सब कुछ तहस-नहस कर डाले। जिसके परिहास ने हमेशा उसे सताया,॥आज उसके साथ की अंतिम भेंट के शब्द उसे रूला गये थे। क्या जरूरत थी वह सब कहने की? उसके द्वारा माँग में भरी सूर्यास्त की लालिमा अमृता को तो गहन अन्धकार में डुबो गयी थी। जी चाहा कि सिर पटक-पटक कर खूब रोये।

रजनी ने विवाह के बाद लम्बा-सा पत्र भेजा था-

”सब कुछ ठीक है, मैं बहुत सुखी हूँ,  पर अनिन्द्य बदल गये है। जबरन उनके गले मढ़ दी गयी हूँ न। मैंने कब ऐसा चाहा था। बाबू जी को भी दोष कैसे दूं,  उन्होंने तो अपने दिवंगत मित्र के प्रति कर्तव्य पूर्ण किया है। आजीवन उनकी आभारी रहूँगी, पर अनिन्द्य जैसे बुझ गये हैं। अमृत, काश तू यहाँ। आ पाती। – तेरी रजनी……………….“

सच तो यही है उस पत्र को पढ़कर अमृता को थोड़ा सुख जरूर मिला था।

रजनी पूर्णतः सुखी नहीं है, भला यह भी प्रसन्नता की बात हुई? क्या सब कुछ जानते हुए वह अनिन्द्य को स्वीकार करती-नहीं न ……… फिर? अपने मन के ओछे विचारों पर अमृता लज्जित हो उठी थी।

रजनी के घर की सफ़ेदी चल रही थी, अम्मा ने प्रसन्न मुख सूचना दी थी-

”रज्जो आ रही है,  अमृता, उसके श्वसुर चाहते हैं घर की रंगाई-पुताई हो जाये,  पुराना कुछ भी शेष न रहे। सुना है,  फ़र्नीचर भी बदलवा रहे है।“

”क्यों क्या रामनगर के उनके प्रासाद में रजनी के लिए जगह नहीं रही, माँ?“

”कैसी बातें करती है, मीतू-अरे रज्जो का भाग्य पलट गया। माँ-बाप नहीं रहे,  पर श्वसुर बेटी-सा प्यार देते हैं।“ अम्मा सूचनाएँ देती जा रही थीं।

बेटी के मुख पर उत्साह का कोई चिन्ह न देख, माँ पूछ बैठी थी-

”क्या बात है, अमृत……. रज्जो के आने की बात पर भी तू चुप बैठी है……… “

”तो क्या नगाड़े बजाऊं?“

पुत्री के अप्रत्याशित उत्तर पर माँ चौंक उठी थीं-

”सच कह मीतू, कोई लड़ाई-झगड़ा चल रहा है तुम दोनों के बीच?“

”जो कुछ चल रहा था, वह भी अब शेष हो गया, माँ…….“

”तेरी बातें तू ही जाने।“ माँ रूष्ट हो उठी थीं।

रज्जो उस नये रंगे-पुते घर में कहाँ आ पायी। बाथरूम में जरा-सा पाँव फिसला और सब कुछ समाप्त हो गया था। रक्त-स्त्राव को उस छोटे इलाके के डाँक्टर रोक न सके थे। शहर पहुँचते बहुत देर हो चुकी थी। सूचना पा, अमृता स्तब्ध रह गयी थी।

”कैसा भाग्य लेकर आयी थी, छोकरी।  न माँ-बाप का सुख नसीब में था,  न पति और बच्चों का सुख देख सकी।“ अम्मा ने आँचल की कोर से आँखें पोंछ डाली थीं।

कमरा बन्द कर अमृता खूब रोई थी। अप्रत्यक्ष रूप से जिसे अपना प्रतिद्वन्द्धी मान वह द्वेष रखती आयी थी,  उसके इस हृदय-विदारक अन्त की तो उसने कामना नहीं की थी। रजनी का चेहरा नयनों के सामने से हट ही नहीं रहा था। अम्मा ने जबरदस्ती द्वार खुलवाया था,  बहुत मनुहार के बाद भी, एक निवाला तक वह गले के नीचे नहीं उतार सकी थी। रजनी की आत्मा की शान्ति के लिए, बहुत भोर में ही अमृता मन्दिर चली गयी थी। उसकी मृत्यु के लिए अपने को उत्तरदायी ठहराना क्या उसका पागलपन नहीं था?

अचानक एक दिन रजनी के घर में फिर जीवन के लक्षण दिखाई पड़े थे। रजनी के वृद्ध श्वसुर उस घर में एक सप्ताह के लिए आये थे। घर का चौकीदार चाभियाँ ले गया था।

”बड़े सरकार हुजूर,  आरहे  हैं माँ जी। घर साफ़ करना है।

”उनके साथ उनका बेटा भी आ रहा है,रामलाल?“

अमृता का रोम-रोम कान बन गया था। हज़ार बार अपने को धिक्कारा था उसने।अपने पर कितना क्रोध आया था उसे।

”पता नहीं अम्मा जी, छोटे सरकार अपनी मर्जी के मालिक ठहरे। हम गुलाम लोग बड़े आदमियों की बातें क्या जानें।“

रामलाल चाभियाँ लकर चला गया था। अमृता के नयन उस घर के पोर्टिको पर केन्द्रित हो गये थे। कार से उतरे रजनी के श्वसुर को उसने आसानी से पहचान लिया था। उनके पीछे कार से उतरने वाले को देख पाने की अपनी उत्सुकता पर, उसे कितनी लज्जा आ रही थी।

”संवेदना प्रकट करने के लिए कल सुबह जाना ठीक होगा न, मीतू?   खिड़की पर दृष्टि निबद्व किये अमृता से अम्मा ने सलाह माँगी थी।

”तुम्हीं चली जाना अम्मा। उस घर में जाना मुझ से न हो सकेगा।“ अमृता बहुत उदास हो आयी थी।

”ठीक है, विनती की माँ के साथ मैं ही चली जाऊंगी।

करवटें बदलते अमृता ने पूरी रात काटी थी। सुबह समय से पहले ही यूनीवर्सिटी जाने की उसे जल्दी हो आयी थी।

”आज लाइब्रेरी से कुछ नयी किताबें लेनी हैं, मैं जल्दी जा रही हूँ ।“ अम्मा को प्रतिवाद का अवसर दिये बिना ही, वह घर के बाहर चली गयी थी।

पूरे दिन लाइब्रेरी के एकान्त कोने में बैठी अमृता,  पुस्तक खोले,  अतीत के पृष्ठ पलटती रही थी। लाइब्रेरियन ने आकर चौंकाया था-

टाइम हो गया मिस,  लाइब्रेरी बंद करनी हैं……….“

”आई एम साँरी…….. मैं भूल ही गयी थी।“ अमृता हड़बड़ाहट में उठ गयी थी।

घर में परेशान अम्मा द्वार पर खड़ी उसकी राह ताक रही थी।

”ये कैसी नयी बात है,  मी तू,   इत नी देर कर दी………“

”कुछ नहीं अम्मा, एक रेफरेंस बुक से कुछ प्वाइंट नोट कर रही थी,  समय का ध्यान ही नहीं रहा।“ अमृता मुं ह   धोने  बाथरूम में घुस गयी थी।

अमृता के सामने चाय का कप रखती अम्मा बेहद गम्भीर थीं-

”तेरे पिता के न रहने पर क्या मैंने तेरे लालन-पालन में कहीं कोई कमी की है,  मीतू?

”ऐसा क्यों सोच रही हो,अम्मा? तुमने तुझे जो कुछ दिया है वह अतुलनीय है।“

”फिर तूने ऐसा क्यों किया?“

”क्या अम्मा?“ अमृता रूखी पड़ गयी थी।

”आज भी तू मुझे कुछ न बताती अगर रायबहादुर साहब न बताते…………..“

”क्या बताया उन्होंने …….?“ अमृता ने चाय का कप टेबिल पर धर दिया था।

”यही कि तू अनिन्द्य की पत्नी है………….“

”यह ग़लत है,माँ………. उसकी पत्नी रजनी थी। मैं उसकी कोई नहीं,  रजनी नहीं रही तो अब मुझ पर अधिकार जमाने चला है………..“

”क्या यही सच है,अमृता?“ माँ ने उसकी आँखों में सीधी दृष्टि डाल पूछा था।

”उसने मुझे अपने क्रूर खेल का एक माध्यम भर बनाया था,   वर्ना  रजनी से विवाह के पहले उसे क्या यह बात याद नहीं थी?“ अमृता आवेश में आ गयी थी।

”फिर अपनी शादी के लिए हमेशा अस्वीकृति क्यों देती रही, अमृत? इसीलिए न कि तूने अपने को हमेशा अनिन्द्य की पत्नी स्वीकारा था।“

”यह झूठ है अम्मा, अभी विवाह की मेरी कोई इच्छा नहीं है, बस ……………“

”पति के जीवित रहते दूसरा विवाह करना न्यायोचित है, अमृत?“

”पत्नी के जीवित रहते पति दूसरा विवाह कर सकता है- इसमें कोई अन्याय नहीं दीखता, अम्मा? एक पल-भर के तमाशे को तुम इतना महत्व दे रही हो?“

”हो सकता है, उसे परिस्थितियों ने विवश किया हो। वह तुझसे मिलना चाहता है, मीतू।“

”तो मेरा उत्तर सुन लो अम्मा,  मैं उससे कभी नहीं मिलूंगी…………….“

”एक बात मेरी भी सुन ले, मीतू, ब्याहता बेटी को उसके पति के घर भेजे बिना मैं भी अन्न-जल ग्रहण नहीं करूँगी। ये मेरी भी जिद है, अमृत।“

”मेरे अपराध के लिए तुम्हारा अन्न-जल त्यागना क्या उचित है, अम्मा? मैं ही न घर छोड़ चली जाऊं?

”हाँ अब यही कसर बाकी रह गयी है। लड़की घर से भाग गयी। स्वर्गवासी पिता का सम्मान बेटी ऐसे ही तो बढ़ायेगी।“ अम्मा के आँसू बह चले थे।

अमृता का मन माँ के प्रति करूणा से भर आया था। अन्तिम श्वास लेते पिता ने अमृता का हाथ माँ के हाथ में देते हुए कहा था-

”इसका मन कभी न दुखाना, सावित्री-ये मेरी धरोहर है……………“

अम्मा ने स्वंय कितने भी दुख झेले,  पर अमृता का रोम भी न दुखने दिया था। आज उसी माँ के प्रति क्या वह अपराधिनी नहीं बन गयी थी?

”तुम क्या चाहती हो, अम्मा?“ अमृता ने हथियार डाल दिये थे।

”आनिन्द्य को स्वीकार कर ले।“ अम्मा आशान्वित हो उठी थीं।

”स्वीकार कर पाना कैसे होगा,  समझती हो न, माँ?“

”सब समझती हूँ, बिटिया- मेरी लाज रख ले।“ माँ ने हाथ जोड़ दिये थे।

माँ के जुड़े हाथ अमृता ने सिर से लगा लिए थे। उसके बाद अनिन्द्य ने उससे कितना भी मिलना चाहा,  अमृता ने अवसर नहीं दिया था।

स्वप्नत् विवाह की रस्में पूर्ण कर,  वह यहाँ इस कमरे में आ पहुँची है। रात्रि की इस नीरव बेला, सिर पर आँचल डाले अनिन्द्य की प्रतीक्षा में बैठना क्या उसका अपमान नहीं?

द्वार खोलते अनिन्द्य को भीतर आते देख तत्परता से अमृता ने आँचल सिर से उतार, कमर में खोंस लिया था। पास पड़ी कुर्सी खींच तन कर बैठ गयी थी। बाहर आकाश में छिटके तारे गिनना उस समय कितना अच्छा लग रहा था। शायद अनिन्द्य उसके ठीक पास आ खड़ा हुआ था-

”कैसी हो, अमृता?“ स्वर में मानो ढेर-सी मिश्री घुल आयी थी, पर अमृता के कानों में आवाज गयी ही नहीं थी।

”बहुत नाराज हो, मीत?“

”किससे?“ अपरिचय के उस भाव ने अनिन्द्य को डरा दिया था।

”मुझसे……………“

”क्यों ?“

”क्या हमारे बीच कोई बात नहीं है, मीत?“

”न….. मुझे तो ऐसा कुछ याद नहीं आता……… सिवा रजनी के ….. वही तो हमारी सेतु थी न?“ निर्भीक दृष्टि अनिन्द्य के चेहरे पर उसने गड़ा दी थी।

”पर अब तो हमारे बीच का सेतु-बंध टूट गया है, मीत? इसे जोड़ने की कोशिश नहीं करोगी?“

”तुमने तो जबरन जोड़ ही दिया है,  पर एक बात याद रखना, जबरन किये गए बंधन चिरस्थायी नहीं होते।“

”यह सत्य तो पहले ही स्वीकार कर चुका हूँ……… फिर भी अपने को रोक नहीं सका, मीत।“

”तुम्हारी और कितनी जबरदस्ती सहनी होगी- ये भी बता दो अनिन्द्य- मैं हर तरह से तैयार हूँ।“

”मेरी याद आती थी, मीत?“

”तुम्हारी नहीं, पर तुम्हारे दुष्कृत्यों को कभी भुला नहीं सकी और अब विवशता ये है कि आजीवन तुम्हें झेलने को बाध्य की गयी हूँ।“

”मेरी विवशता जानने की तनिक भी इच्छा नहीं है, मीत?“

”नहीं……………..“

”इतने मानसिक तनाव से थक गयी होगी। सोना चाहोगी?“

”अगर नींद आ सकती ………….“

”तो बातें करें?“

”ध्वंसावशेषों पर इमारत खड़ी नहीं की जा सकती – ये बातें जानते हो?“

”उन्हें ही तो हटाना चाहता हूँ।“”कैसे हटा सकोगे इतने पत्थर .,  इतनी राख? राख से नीड़-निर्माण की कल्पना व्यर्थ है आनिन्द्य………….“

 

”तुम्हारी दृष्टि में तो मैं ऊपर से नीचे तक राख-पुता हूँ न, अमृत?“

”मेरी दृष्टि तुम पर पड़े, तब न, अनिन्द्य?“

”तुमने विवाह के लिए सहमति क्यों दी, मीत?“ आनिन्द्य का स्वर बेहद आहत था।

”और कोई उपाय शेष था क्या? पिता को ढाल बनाकर,  माँ के पास भेजने की क्या जरूरत थी , अनिन्द्य?“

”जो मैं कहना चाहता, क्या तुम सुनने को तैयार होती?“

आज भी तो नहीं हूँ।“

”वहीं तो जानना चाहता हूँ, विवाह की स्वीकृति देने में क्या विवशता थी तुम्हारी?“

”अस्ताचल सूर्य की साक्षी के साथ, मे री माँग को सुहागिन बना,  कायर की तरह पलायन किसने किया था, अनिन्द्य?“ अमृता के नयन जल उठे थे।

”उस अपराध की सज़ा ही तो आज तक भोगता रहा हूं, मीत.. “

”इसीलिए दूसरी पत्नी के रूप में स्वीकार कर प्रायश्चित कर रहे हो। मेरा अधिकार दूसरे को देते कुछ याद आया था, अनिन्द्य?“

”उस समय क्या याद आया, क्या नहीं,  वो सब समझ पाने की मनःस्थिति में तुम अभी नहीं हो , अमृत……. उसे रहने ही दो।“

अनिन्द्य ने एक उसाँस छोड़ी थी।

”बहुत याद करते थे न मुझे?“ अमृता के स्वर में व्यंग्य घुल आया था।

”अगर कहूँ बहुत भुलाना चाहता था, तो ठीक रहेगा।“

”अगर रजनी आज जीवित होती तब भी क्या ये बात कह सकते थे?“

”बिना कहे वह सब जान गयी थी, अमृत।“

”क्या….. तुमने उसे सब बता दिया……… इतना बड़ा अन्याय किया उसके साथ।“

”मैंने उसके साथ कोई अन्याय नहीं किया। अन्याय मैंने अपनी प्रथम पत्नी के प्रति किया था …… बस यही सत्य वह जानती थी।“

”उसकी प्रथम पत्नी कौन थी, बताया था?“

”न …… उसने भी कभी नाम नहीं पूछा,  पर शायद वह जानती थी।“

”हे भगवान, मुझे क्यों इस पाप का भागी बनना पड़ रहा है।“ अमृता ने अपनी हथेलियों में मुंह छिपा लिया था।

डरो नहीं मीत,  मैंने तुम्हें उसका अपराधी कभी नहीं बनने दिया।“

”फिर ?“

”मैंने उससे स्पष्ट कह दिया था मेरा मन कहीं और बॅंधा था,  रजनी से विवाह मेरी विवशता थी।“

”पिताजी को दोषी ठहराओगे न-हर कहानी में नायक कोई न कोई खोखला बहाना खोज ही लेता है।“

”नहीं, मैं ऐसा कोई बहाना नहीं खोजूँगा, मीत……. मुझे पता नहीं था,  रजनी का जीवन कुछेक महीनों का अतिथि था।“

”क्या मतलब?“

”उसकी दिवंगता माँ ने अपनी मृत्यु के कुछ ही दिन पहले पत्र लिखकर पिताजी से प्रार्थना की थी कि रजनी का विवाह कहीं निश्चित कर दें अन्यथा उनकी आत्मा को मरने के बाद भी शान्ति नहीं मिलेगी,  पर वह तो उसका विवाह देखे बिना ही चली गयीं…….“

”फिर ये कहो उनकी आत्मा की शान्ति के लिए तुमने वर का वेश धारण कर लिया। वैसे भी रजनी पूरी सम्पत्ति की अकेली वारिस थी। यह घर जिसकी छत के नीचे हम बैठे हैं,  यह भी तो उसी का था न?“ व्यंग्य के साथ स्वर में घृणा घुल आयी थी।

”सम्पत्ति की तो मेरे पास कमी नहीं थी, अमृत, पर एक लड़की का सम्मान बचाना मेरा दायित्व बनता था।“

”जो अपनी पत्नी को दूसरों के समक्ष पत्नी न कह सके, वह दूसरों के सम्मान की रक्षा की बात करे, है न विरोधाभास?“

”चलो तुमने स्वीकार तो किया, तुम मेरी पत्नी हो। पत्नी न होते हुए भी जिसे पत्नी का नाम दिया, वह तो सच बताने नहीं आ सकती, मीत?“

”जो नहीं रही, उसे ढाल बनाने की क्या जरूरत है, अनिन्द्य।“

”वही तो नहीं चाहा था। जब सब कुछ बदल गया तो बस तुम्हें लम्बा पत्र लिखकर क्षमा माँगने का साहस भी नहीं कर पाया-वही मेरी कमजारी थी, मीत।“

”तुम्हारा पत्र पढ़ती इसका विश्वास था तुम्हें?“ अमृता ने दृष्टि उठा अनिन्द्य के उदास चेहरे को ताका था।

”रजनी हमारे घर बस एक सप्ताह ही रह पायी थी……… पिताजी के साथ मैं दूसरे गाँव गया था, तभी वह दुर्घटना घट गयी…… लौट कर रक्त-रंजित रजनी को मूर्छित पाया था। दुष्ट बलात्कारी उसका सर्वनाश कर भाग चुके थे।“

क्या कह रहे हो?“ अमृता चौंक उठी थी।

”तुम्हीं बताओ, बलात्कारियों के अत्याचार के परिणामस्वरूप गर्भवती रजनी के सम्मान की रक्षा करना, क्या मेरा कर्तव्य नहीं था, मीत?“

स्तब्ध अमृता को अपनी ओर ताकते देख आनिन्द्य ने फिर कहा था-

”पिताजी तुम्हारे-मेरे विषय में सब कुछ जानते थे,  अतः उन्होंने मुझसे कभी कुछ नहीं कहा,  पर रातों में करवटें बदलते पिता की व्यथा क्या मैं समझ नहीं सकता था। स्वर्गवासी मित्र की अन्तिम निशानी उनकी बेटी की अपने घर में रक्षा न कर पाना, उनके लिए कितना कष्टदायक रहा होगा, समझ सकती हो न?“

”तुमने मुझे कुछ बताया क्यों नहीं, अनिन्द्य………..“

”क्या बताता…… कुछ बताने से रजनी का सम्मान क्या रह जाता? स्वंय मैंने पिताजी से अपने साथ रजनी के विवाह का प्रस्ताव रख,  उन्हें पीड़ा-मुक्त करने का प्रयास किया था, मीत।“

”आनिन्द्य……….“ अमृता का कंठ भर आया था।

”रजनी हमेशा अपने को अपराधिनी ठहराती रही। मैंने उसे साहस-सम्मान देना चाहा,  पर तुम्हारे प्रति अपने अपराध के लिए मैंने स्वंय दंड-निर्धारित किया था।“

”कैसा दंड, अनिन्द्य?“

”मैंने ऐश्वर्य से नाता तोड़ लिया था, मीत। घर के सुख-वैभव के मध्य मैं अछूता वीतरागी बना रहा-इसके लिए रजनी बहुत दुखी होती थी,  पर वह न रहे इसकी कामना कभी नहीं की थी मैंने।“

” ये सब जानकर मैं अपनी दृष्टि में बहुत नीची हो गयी हूँ, अनिन्द्य।  मैंने तुम्हें स्वार्थी, नीच क्या नहीं कहा………. मेरे लिए क्या दंड निर्धारित करते हो………..?“ अमृता ने अश्रुपूर्ण नयन आनिन्द्य के मुख पर निबद्ध थे।

”मुझे क्षमा कर,  अपना लो, मीत।“

आनिन्द्य के बढ़े हाथों में अमृता ने अपने को सौंप दिया।

लेखिका : डॉ पुष्पा सक्सेना

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