“ये क्या रूचि, दूध गैस पर रख, तुम यहाँ मोबाइल पर गप्पे मार रही हो, सारा दूध जल गया,”कनक ने कहा तो रूचि का मुँह फूल गया…, ये सास और ससुराल दोनों ही आफत है, एक मिनट भी चैन नहीं…,भुनभूनाते हुये रसोई की ओर चल दी।
रूचि को भुनभूनाते देख कनक जी सोच में डूब गई, कितना फर्क आ गया है पहले और अब में., आज के बच्चे बड़ों का कोई लिहाज नहीं करते…..। विगत चलचित्र की तरह उनकी आँखों के सामने गुजरने लगा…।
बिदाई के समय माँ ने समझाया “अब वही तुम्हारा घर है, तुम नई हो उस घर परिवार के लिये इसलिये सामंजस्य तुम्हे ही बैठाना होगा, बदलना तुम्हे ही होगा,कोई ऐसा काम न करना जिससे माँ -बाप का नाम खराब हो…”
आँखों में अनगिनत सपनें ले ससुराल की देहरी पहुंची.. एक नये माहौल में घबराई कनक सासू माँ में माँ की छवि ढूढ़ रही थी…, वो स्नेहमयी थीं पर अपने बच्चों के लिये, कनक के लिये नहीं…,वो परायी जो थी,एक सिंदूर की रेखा ने उसे कई किरदारों में बांट दिया…। पर माँ की बात याद कर अब वही तुम्हारा घर है… उस घर को ढूढ़ने की कोशिश में उम्र बीत गई…। आगे बढ़ ननद -देवर के लिये जब कुछ किया…दोनों ने श्रेय अपने भाई विपुल को दिया, कनक को नहीं.., तब कनक ने जाना वो इस घर के लिये परायी है और रहेगी.. उसके प्रयास को कभी सराहना नहीं मिलेगी..।क्योंकि यहाँ उसका अस्तित्व विपुल के अस्तित्व में विलीन हो गया…, और जीवन की नई परीक्षा चालू हो गई, जो अनवरत चलती है….। कितने किरदार होते है जिसे निभाने पड़ते है…।
बचपन की सहेली हमेशा समझाती थी, “तू अपनी पढ़ाई पूरी कर ले…,अपना भी देख, पढ़ाई पूरी करके ही आगे की सोच….।कनक को उस समय पढ़ाई नहीं गृहस्थी का क -ख….पढ़ना ज्यादा जरुरी लगा।
अनाड़ी हाथों से जब गृहस्थी की गाड़ी सँभालने की कोशिश की, कई परीक्षाएं देनी पड़ी…, तब जाना अपने आँसू खुद पोंछना , दूसरे को नाराजगी का हक़ है, उसे तो सिर्फ मनाने का हक़ है …।अच्छी बहू का तमगा हासिल करने में और कितनी परीक्षा पूरी उम्र खर्च हो गई, पूरे सपनों को दिल में दफना कर होठों पर हँसी रखनी पड़ी… आँखों के आँसू, “कुछ गिर गया “कह चुपके से खुद पोंछना सीखना पड़ा …,।
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पहली बार रसोई में बनी खीर की सबने तारीफ की पर सासू माँ ने एक शब्द नहीं कहा। घर के काम -काज में निपुण नहीं है बहू…,कह किनारे हो गई…,हाँ अब वो कनक नहीं बहू के नाम से जानी जाती है, कनक नाम तो मायके की देहरी में ही छूट गया,पहली परीक्षा तो नाम बदलने की ही थी, जिसे उसने आत्मसात कर लिया…।सिर्फ नाम ही नहीं, रूठना -मनाना , जिद, फरमाइश, वो बचपना सब कुछ मायके की देहरी पर छोड़ना पड़ा, ससुराल में धैर्य और परिश्रम की पोटली संभालनी पड़ी, जिसकी सुबह आठ बजे होती थी वो सूर्योदय से पहले उठना सीख गई…।धीरे -धीरे आदतों के बदलने की परीक्षा भी उसने पास कर ली…।
एक लड़की की मायके की आदतें, ससुराल में बेकार के चोंचले में बदल गईं…। जीवन जीने की जद्दोजहद में कई तानों और कटाक्ष को हँस कर झेल जाती थी,यूँ तो जुबान उसके पास भी थी, पर माँ की शिक्षा और संस्कार ने जुबान पर ताला लगा दिया ..।कभी तिलमिला कर बोली भी तो इतना हंगामा हुआ, उसने चुप्पी साध लेने में भलाई समझी ..।
पति ने पहले दिन ही कह दिया था,”जो माँ को पसंद हो, वही करना है, मुझे तुम्हारी कोई शिकायत नहीं सुनना है “, कनक ने सर हिला दिया, समझ नहीं पा रही थी, क्यों रिश्ते सिर्फ उसे ही बनाना हैं दूसरे को बनाने का कोई प्रयास नहीं करना….। कॉलेज की मॉर्डन कनक पति के अनुरूप बदलने लगी, मान गई साड़ी पहनना, पल्लू रखना ही संस्कार है…, भले ही इसकी आड़ में कोई कितना भी भला -बुरा बोले…।
माँ बनने के बाद भी, परीक्षा जारी रही..,”अभि की मम्मी को देखो क्या धारा प्रवाह अंग्रेजी बोलती है, कितनी स्मार्ट है, एक आप हो माँ… दिन भर साड़ी पहन घूमती हो, जरा भी स्मार्ट नहीं हो,”नकुल के मुँह से सुनते ही कनक सन्न रह गई,।आँखों में आँसू भर आये… नकुल भूल गया, नकुल का बिस्तर गीला न हो,पूरी रात जग -जग कर चेक करती थी, कहीं बच्चा गीले में न हो, एक माँ, आराम की नींद कहाँ ले पाती,… पति को सुबह काम पर जाना है तो बच्चे की वजह से उसकी नींद खराब न हो, सो वो दूसरे कमरे में आराम से नींद पूरी करते थे …।
बहू आने के बाद कनक को लगा अब उसकी परीक्षा के दिन गये… पर ये क्या…रूचि के बुखार होने पर रात भर रूचि के माथे पर ठन्डे पानी की पट्टियां रखते , कब थकी कनक की आँखों लग गई, पता नहीं चला…, नकुल आया तो बोला “माँ आप कमरे में जा कर सो जाओ, मैं लगाता हूँ पट्टीयां ..।, अगले दिन सुबह बहू को चाय देने जा रही थी “मेरी माँ होती तो मुझे यूँ बुखार में छोड़ कर खुद सोती नहीं.., वो सास है न इसलिये सो गई,बहू बिना सच्चाई जाने फोन पर अपनी सहेली से कह रही थी।
अच्छी सास बनने की कई परीक्षा दी… पहले अच्छी बहू की परीक्षा दी अब अच्छी सास बनने की,पर अब और नहीं…. कल को बेस्ट दादी -नानी की परीक्षा देनी पड़ेगी… कब तक परीक्षा देगी…, कब तक पास -फेल के चक्रव्यूह में फंसी रहेगी .. न अब अपने हिसाब से जियेगी, दूसरों के हिसाब से नहीं…।
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अगले सुबह मॉर्निंग वाक कर आई कनक पेपर पढ़ रही थी, नकुल बोला “मम्मी चाय नहीं मिलेगी क्या आज …।”
“बेटे, रूचि को बोलो, वो चाय बना ले… आज से मैं उतना ही काम करुँगी जितना मैं कर पाऊँगी, और सारे काम सब को बाँटना पड़ेगा..,मुझे भी समय चाहिए अपने लिये……”कह कनक पेपर पढ़ने लगी..। सब एक दूसरे का चेहरा देख रहे थे…।
दोस्तों, घर -परिवार में अच्छे बने रहने के लिये हम क्षमता से ज्यादा दूसरों को देने लगते हैं, दूसरा उसे ग्रांटेड लेने लगता, क्योंकि उसे बिना मांगे मिलता है, वो उसकी कीमत नहीं समझ पाता…। हमेशा आप अच्छे नहीं रहोगे कितनी भी कोशिश कर लो… तो क्यों न मन को दबाने के बजाय खुल कर जी लो…, आप क्या कहते हो, मुझे कमैंट्स में जरूर बतायें..।
लेखिका : संगीता त्रिपाठी