बचपन में हमें टीचर ने सिखाया था कि अतिथि देवो भवः और सयाने होने पर दादी ने भी यही सिखाया था।जब भी चाचा, बुआ-फूफाजी अथवा पिताजी के मित्र हमारे घर आतें तो माँ हम सभी भाई-बहनों को एक कमरे में समेट देतीं थीं।अब रात को एक ही बिस्तर पर हम पाँचों भाई-बहन एक-दूसरे पर लातें फेंकते..।सुबह जब माँ से शिकायत करते तो वो हमें प्यार-से समझातीं कि मेहमान भगवान होते हैं।हम चाहे जितना भी दुख झेल ले लेकिन भगवान को कष्ट देना महापाप होता है।हमने उनके इस उपदेश को गाँठ मार लिया।
एक सरकारी अफ़सर के साथ हमारा विवाह हो गया और हम उनके साथ उनके क्षेत्रावास जो कि दो कमरों का एक सरकारी क्वार्टर था।बिजली-पानी की भरपूर सुविधा वाले मकान को हमने कुछ ही दिनों में सजा-सँवारकर घर बना लिया था।साल बीतते हम एक बेटे की माँ बन गये और उसी की परवरिश में हम व्यस्त हो गये।
एक दिन दफ़्तर से आकर पति हमसे बोले,” जानती हो..राघव का फ़ोन आया था।”
” कौन राघव?” हमने आश्चर्य-से पूछा।बोले,” अरे वही जिसके हिप्पी कट बाल थे।उसे हम काॅलेज़ में राघवा कह करके बुलाते थे..तुम्हें बताया तो था।”
” हाँ-हाँ..याद आया।तो…।” हमने फिर प्रश्न किया।तब वो बोले,” उसने कहा है कि कल वो हम लोगों से मिलने आ रहा है।एक दिन रुक कर फिर कलकत्ता चला जाएगा।”
हमें माँ की बात याद आ गई तो बस हम पतिदेव के उस मित्र के आवभगत करने की तैयारी में जुट गये।दूसरे कमरे के एकस्ट्रा कपड़े- फ़र्नीचर को अपने शयनकक्ष में ले आये..बंटी के खिलौने भी हटाकर कमरे को साफ़-सुथरा कर दिया ताकि राघव जी को कमरे में अपनेपन का एहसास हो।किचन के खाली डिब्बों को भरने के लिए एक लिस्ट बना ली और बंटी को पड़ोसिन के हवाले करके शाम को सुपर मार्केट जाकर सारा सामान लाकर भर दिया।
अगले दिन समय पर पतिदेव ऑफ़िस के लिए निकले लेकिन दो घंटे बाद ही अपने मित्र को साथ लेकर लौट आये।हाथ जोड़कर हमने उनका अभिवादन किया।जवाब में वो भी मुस्कुराए और हमारे बंटी के नरम-नरम गालों को छूने लगे तो उसने उनके हाथ को झटक दिया।
हमने उन्हें बोनचाइना के नये कप में इलायची वाली चाय पिलाई जिसका पहला घूँट पीते ही वो बोले,” वाह भाभी..आपके हाथ की चाय का जवाब नहीं।” अपनी प्रशंसा सुनकर हम तो फूले नहीं समाये थे।साथ में, क्रीम वाले बिस्कुट और हल्दीराम का टेस्टी मिक्चर भी सर्व दिया जिसे चबर-चबर खाते हुए उन्हें दो मिनट भी नहीं लगे थे।हम खुश थे कि भगवान ने प्रसाद खा लिया है।
फिर लंच में हमने उन्हें पुलाव, रायता के साथ भिंडी, बैंगन भाजा, मटर- पनीर, चटनी, सलाद-पापड़ परोसा।आइसक्रीम खाते हुए राघव जी बोले,” भाभी..आप तो साक्षात् अन्नपूर्णा हैं।” पतिदेव भी चटखारे लेकर बोले,” यार..दो-तीन और रुक जाते तो तुम्हारे साथ मुझे भी ऐसा लंच खाने को मिल जाता।” तब हँसते हुए वो बोले,” कलकत्ता जाना ज़रूरी है मित्र..अगली बार पक्का।” शाम की चाय के साथ गोभी की पकौड़ियाँ खाकर उनकी तृप्ति देखकर हमें बहुत खुशी हुई।
डिनर के समय तो बंटी उनके पास वाली कुरसी पर ही बैठ गया था।हमें बहुत अच्छा लगा कि बेटा अभी से मेहमान को सम्मान देना सीख रहा है।बंटी सो गया तब फिर से हमने काॅफ़ी बनाई और साथ में पीते हुए हमने शिष्टाचारवश कह दिया,” भाईसाहब..एक दिन और रुक जाते तो…।” उन्होंने भी अपनी चिर-परिचित मुस्कान बिखेरते हुए कह दिया,” अगली बार पक्का भाभी..।”
अगली सुबह उन्हें जाना था तो हम उनसे पूछने गये कि रास्ते के लिये कितने पराँठे पैक कर दूँ लेकिन ये क्या! दोनों बैठकर हा-हा…ही-ही कर रहे थे।मैंने आश्चर्य- से पूछा,” आप तो आज..।”
” भाभी..आज तो संडे है ना..बस आपकी बात मान ली..कल आपसे विदाई ले लूँगा।” उनकी निश्छलता पर हम भी न्योछावर हो गये और ये सोचकर कि दो दिन का मेहमान कल चला जाएगा, हम प्रसन्नतापूर्वक उनके लिये लंच-डिनर बनाने लगे।बंटी भी अंकल-अंकल कहकर उनकी गोद में खूब उछला।
सोमवार की सुबह पति जी ऑफ़िस जाने के लिए तैयार हुए और उसके कमरे में जाकर बोले कि तुम तैयार हो जाओ..मैं स्टेशन ड्राॅप करता हुआ चला जाऊँगा।तब वो बोले,” यार..कोलकता वाला काम तो अब चार दिन बाद होना है..तो सोचता हूँ कि दो दिन और यहीं रुक जाऊँ..क्यों भाभी!” मैं विदाई वाली चाय देने आई थी लेकिन..।
” हाँ..।” धीरे-से बोलकर अपने कमरे में आ गई और पति जी पर बरस पड़ी,” एक से दो दिन और दो से..।मेहमान दो दिनों का होता है लेकिन ये तो..।आपको पता था कि इतना चिपकू है तो मुझे बताया क्यों नहीं..।”
दो दिनों से अपने बेडरूम को कबाड़खाना बने देख तो वो भी चिढ़े हुए थे, दाँत पीसते हुए बोले,” उसकी प्रशंसा से तो तुम ही फूली जा रही थी।इतना भी समझ नहीं पाई कि अतिथि आता है अपनी मर्ज़ी से तो जाता भी..।एकदम डब्बा हो तुम..मैं तो चला..अब तुम झेलो..।” कहकर वो तो चले गये लेकिन उनकी बात ‘ एकदम डब्बा हो ‘ मेरे दिल पर लग गई।माँ-दादी के दिए संस्कार को किनारे करके हमने तय कर लिया कि अतिथि, अब तुम जाओगे।
तभी राघव जी बोले,” भाभी..आपके हाथ की मटर-पनीर..वाह! आज भी वही बना रहीं हैं ना..।” अपने गुस्से को दबाते हुए हमने गरदन हिलाकर हाँ कह दी।वो नहाने गये, तब तक बंटी को नाश्ता करा दिया और फ़टाफट अपने बाँयें हाथ पर क्रेप बैंडेज़ बाँधकर उनके सामने स्टील की प्लेट में चार ब्रेड रख दिये।
” भाभी..आपके हाथ में…।” प्लेट में सादी ब्रेड देखकर उनके चेहरे की मुस्कान गायब हो चुकी थी।हमने भी उदासी भरे स्वर में कह दिया,” मोच आ गई है भाईसाहब…साॅस-बटर भी खत्म हो गया है..आपको सादी ब्रेड..।”
” कोई बात नहीं भाभी…सब अच्छा है..।” चेहरे पर फ़ीकी मुस्कान लिए बोले।बड़ी मुश्किल से अपनी हँसी रोकते हुए बोली,” भाईसाहब..वो तो कैंटिन में ही लंच करते हैं..आई एम वेरी साॅरी..अब एक हाथ से मटर..तो मुश्किल है..ते..ह..री..।”
” हाँ भाभी..आपके हाथ का तो सब बढ़िया..।”
हमने तेहरी परोस दिया।शाम को पतिदेव आये…हाथ पर पट्टी बँधा देखकर घबरा गये,” यार..तुम फ़ोन करके मुझे बता देती..चलो अब तुम आराम से बैठकर बंटी को संभालो.. डिनर मैं बना दूँगा।”
हम अच्छी तरह से जानते थे कि मेरे पति के हाथ का खाना कैसा होगा।डाइनिंग टेबल पर बिना सलाद-पापड़ के बेस्वाद खिचड़ी खाकर राघव जी का मुँह उतर गया।बेमन-से बोले,” यार गुप्ता..तुम तो खाना भी अच्छा पका लेते हो।” बस फिर क्या था, मेरे पति शुरु हो गये,” राघव..बंटी के जन्म के समय तुम्हारी भाभी को ना बहुत दिक्कतें थीं, तब मैं ही..सैंडविच..पुलाव..।” मैं कमरे में चली गई,वो अपनी बखान करते रहे और बेचारे राघव जी…।”
अगली सुबह पतिदेव ने ही चाय बनाई।मुझे देकर अपने मित्र के कमरे में गये जो अपना बैग पैक कर चुके थे।
” तुम जा रहे हो राघव…।”
” हाँ..कोलकता वाला काम निपटाना है..।”
फिर कोई सवाल-जवाब नहीं हुआ।अतिथि महोदय प्रस्थान कर गये।पति ऑफ़िस और हमने अपने हाथ के बैंडेज़ खोलकर घर की सफ़ाई की..मनपसंद गीत गुनगुनाते खाना पकाया…।शाम को फिर से अपने हाथ पर आवरण चढ़ा लिया।
एक सप्ताह तक यही दिनचर्या चली और फिर सब नाॅर्मल।करीब दो महीने बाद हमारी सहेली का फ़ोन आया।उसने अपनी समस्या बताई,” क्या करूँ..एक दिन का कहकर उनका रिश्तेदार चार दिन से टिका हुआ है।वेराइटी का खाना पका-पकाकर मैं तो…।”
” मेरा पट्टी वाला फ़ार्मूला अपना ले..।” कहकर हम रिसीवर रखे ही थे कि गुप्ता जी हँसते हुए बोले,” अच्छा! तो वो सब नाटक था।हम तो सोचते थे कि तुम..।”
” डब्बा हो…।”
” नहीं, उस्ताद हो…।” कहते हुए उन्होंने शरारत से मुझे देखा तो हम अपनी हँसी रोक नहीं पाये।तभी बंटी हाथ में एक कंघी लेकर आया और दिखाते हुए बोला,” पापा..ये अंकल का है..वो फिर आयेंगे..।”
” नहीं
.।” दोनों एक साथ बोल पड़े।
विभा गुप्ता
स्वरचित, बैंगलुरु