अस्तित्व – रेनू अग्रवाल

“प्रीति, अगर तुम्हें मुझसे शादी करनी है तो तुम्हें ये नौकरी छोड़नी होगी!”

आकाश फोन पर किसी से गुस्से में चिल्ला रहा था। उसकी माँ, सीता, पास के कमरे में यह सब सुन लेती हैं। घबराई हुई वह कमरे में आती हैं और पूछती हैं,

“क्या हुआ आकाश?”

आकाश गुस्से में जवाब देता है,

“माँ, आप जानती हैं पापा ने कितनी मुश्किल से मेरी और प्रीति की शादी के लिए हाँ की है। लेकिन उन्होंने एक शर्त रखी है — कि प्रीति शादी के बाद नौकरी नहीं करेगी। पर वो मेरी बात ही नहीं सुन रही। इतना बड़ा बिज़नेस है हमारा, उसे किसी चीज़ की कमी नहीं होगी, फिर भी वो नौकरी क्यों करना चाहती है?”

सीता मुस्कुराती हैं।

आकाश चौंक कर पूछता है, “माँ, मैं इतना परेशान हूँ और आप हँस रही हैं?”

सीता कहती हैं, “आओ, बैठो, मैं तुम्हें एक कहानी सुनाती हूँ… मेरी अपनी।”

“जब मेरी शादी हुई थी, तब तुम्हारे पापा का बिज़नेस उतना अच्छा नहीं चलता था। घर की जिम्मेदारी सिर्फ उन्हीं के कंधों पर थी। तुम्हारे चाचा और बुआ की भी परवरिश उन्हीं ने की थी। हमारे घर में एक नियम था — हर रविवार तुम्हारे पापा दोनों को ₹5 पॉकेट मनी दिया करते थे। एक दिन उन्होंने बुआ को कहा, भाभी को जाकर ₹5 दे आओ।’

मुझे बहुत बुरा लगा। मैं गुस्से में किचन से निकलने ही वाली थी कि तभी तुम्हारी दादी चिल्लाईं। मुझे लगा उन्हें भी बुरा लगा होगा कि कौन अपनी पत्नी को ₹5 देता है। लेकिन उन्होंने जो कहा, वो मेरी आत्मा को झकझोर गया। उन्होंने तुम्हारे पापा से कहा, ‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई अपनी पत्नी को पॉकेट मनी देने की? आज ₹5 दिए हैं, कल घर उसके नाम कर दोगे!’

मैं अंदर से टूट गई, पर कुछ कह नहीं सकी। तुम्हारे पापा ने तो शादी की पहली रात ही कह दिया था, ‘तुम जो चाहो करो, लेकिन मेरी माँ का दिल मत दुखाना।’ उस दिन के बाद से पापा इतने डर गए कि उन्होंने कभी मुझे ₹1 भी नहीं दिया।

हर छोटी-छोटी चीज़ के लिए मुझे तरसना पड़ता था। मायके जाती थी, तो माँ कुछ रुपए देती थीं, लेकिन वो भी मेरी दो छोटी बहनों की जिम्मेदारी के चलते कम ही होते थे। मैं सोचती थी — मेरा क्या अस्तित्व है?

काश, मैं भी कुछ कमा पाती। मेरे पास भी पैसे होते। मैं अपने बच्चों को आइसक्रीम खिला पाती, खुद गोलगप्पे खा पाती। काश, मेरा भी कोई ‘अपना’ होता — मेरा कमाया हुआ।

इसलिए, आकाश, आज जब प्रीति अपनी नौकरी को लेकर अडिग है, तो मैं उसे पूरी तरह समझती हूँ। नौकरी केवल पैसे कमाने का जरिया नहीं होती, वो एक औरत का आत्मसम्मान, उसका अस्तित्व होती है।”

आकाश की आँखें भर आती हैं। वह कहता है,

“माँ, मैं प्रीति को कभी वह सब नहीं देखने दूँगा जो आपने झेला। लेकिन पापा…”

सीता मुस्कराकर कहती हैं, “पापा को मैं संभाल लूंगी।”

फिर वह आकाश से कहती हैं, “क्या तुम्हें पता है प्रीति के मम्मी-पापा ने कितनी मुश्किलों से उसे पढ़ाया है? वह उनकी इकलौती बेटी है, और उनके बुढ़ापे की जिम्मेदारी भी उसी पर है। क्या तुम्हें लगता है, ये सब छोड़कर वो सुकून से जी पाएगी?”

आकाश सिर हिलाता है, “नहीं माँ, अब मैं सब समझ गया हूँ।”

सीता ने मुस्कुराकर आकाश के सिर पर हाथ फेरा और कहा,

“मुझे पता था, मेरा बेटा सही फैसला करेगा।”

आज प्रीति और आकाश एक खुशहाल विवाहित जीवन बिता रहे हैं — जहां प्रेम है, समझ है और सबसे ज़रूरी, एक-दूसरे के अस्तित्व का सम्मान है।

लेखिका :रेनू अग्रवाल

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