ऑफिस की चौथी मंजिल पर, अमर की उँगलियाँ कीबोर्ड पर थिरक रही थीं, पर उसका मन कहीं दूर, शायद उसके भीतर की किसी खाली गुफा में भटक रहा था। स्क्रीन पर नंबरों और चार्टों की भीड़ थी। एकाएक, उसकी उँगलियाँ ठिठक गईं। एक विचित्र प्रश्न, जैसे कोई चट्टान टूटकर गिरा हो, उसके मस्तिष्क में आ धँसा: “मैं क्यों हूँ?”
यह सवाल उसके जीवन में कभी नहीं आया था। नौकरी, घर-गृहस्थी, दोस्तों के साथ गपशप – यही तो जीवन था ना? पर आज, यह प्रश्न उसकी साँसों में जहर की तरह घुल गया। उसकी नज़रें स्क्रीन से हटकर खिड़की से झाँकते शाम के सूरज पर टिक गईं। सुनहरी किरणें गगनचुंबी इमारतों को छू रही थीं, लेकिन उनमें कोई गर्मी नहीं लग रही थी।
सब कुछ एक फिल्म के सेट जैसा लगा – बनावटी, नाटकीय। “ये सब किस लिए है? इस दौड़ का अंत कहाँ है? क्या मेरा होना… सिर्फ एक संयोग है?” उसके मन में एक सिहरन दौड़ गई।
घर लौटते हुए मेट्रो में वह जैसे पहली बार अपने आसपास के लोगों को देख रहा था। एक बूढ़ी औरत, उसकी आँखों में गहरी थकान और किसी अघोषित दर्द की छाया; एक युवक, इयरफोन लगाए, बीट पर सिर हिलाता हुआ, पर उसकी नज़रों में एक खालीपन; दो प्रेमी हाथों में हाथ डाले खड़े थे, पर उनके बीच भी एक अदृश्य दूरी लग रही थी। “क्या सबके भीतर यही खालीपन गूँज रहा है? क्या यही है… अस्तित्व का दंश?”
घर पर पत्नी नीतू ने पूछा, “क्या हुआ? चेहरा उतरा हुआ सा लग रहा है।”
“कुछ नहीं… बस थोड़ी थकान है,” अमर ने बिना उसकी आँखों में देखे कहा। वह शब्दों को ढूँढ नहीं पा रहा था। उस विचार का वजन कैसे बाँटता?
रात को बिस्तर पर लेटे, छत की सफेदी उसे एक विशाल, सूनी खालीपन का प्रतीक लगी। उसका दिमाग एक चक्रव्यूह में फँसा हुआ था:
“अगर मैं नहीं होता, तो क्या वाकई कुछ बदलता?” दफ्तर का काम किसी और को मिल जाता। घर… शायद दूसरा रास्ता खोज लेता।
“मेरी इच्छाएँ, मेरा दर्द, मेरा प्रेम – क्या ये सब सिर्फ मेरे मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाले रासायनिक प्रतिक्रियाओं का खेल है?” वैज्ञानिक स्पष्टीकरण अचानक बेहद निर्मम लगने लगा।
“क्या यह जीवन… महज कर्मकांडों और दैनिक दिनचर्या की पुनरावृत्ति है, जिसका कोई परम अर्थ नहीं?”रोज की दौड़ अब एक निरर्थक चक्कर जैसी लगी।
अगले कई दिन अमर के लिए एक धुंध में गुजरे। वह काम तो करता रहा, पर उसकी मौजूदगी सिर्फ शारीरिक थी। उसकी आत्मा उस विचार के गहरे कुएँ में डूबी हुई थी। जीवन के छोटे-छोटे सुख – चाय की चुस्की, नीतू की मुस्कान, बरसाती हवा की खुशबू – सब उससे दूर होते चले गए। उनका कोई मतलब ही नहीं रह गया था। वह एक भूत बनकर अपने ही घर में घूम रहा था।
एक शाम, बरसात के बाद की ताज़ा हवा में, वह बाज़ार से कुछ सामान लेने निकला। गीली सड़कों पर रंगीन रोशनी का प्रतिबिंब टिमटिमा रहा था। तभी उसकी नज़र फुटपाथ पर बैठे एक बूढ़े आदमी पर पड़ी। उसके चेहरे पर जीवन की कठोर रेखाएँ थीं, कपड़े मैले थे, पर उसकी आँखें… उसकी आँखें एक छोटे से बच्चे की ओर टिकी थीं,
जो एक सस्ते प्लास्टिक के पंखे को हवा में घुमा-घुमाकर खुशी से चिल्ला रहा था। बूढ़े व्यक्ति के चेहरे पर एक ऐसी कोमलता, ऐसा प्रेम और ऐसी गहरी संतुष्टि थी जो अमर को स्तब्ध कर गई। उस बच्चे की हँसी में, उस बूढ़े के निहारने में, कुछ पल के लिए उसकी खोखली दुनिया में एक जीवंत रंग भर गया।
वहीं खड़े-खड़े अमर को लगा जैसे कोई बर्फ़ीला तूफ़ान थम गया हो। उसके भीतर की खामोशी में एक स्पष्ट आवाज़ गूँजी:
” जीवन का अर्थ बाहर कहीं नहीं, इन्हीं छोटे क्षणों में छिपा है।”
“मेरा होना शायद कोई विराट रहस्य नहीं, पर मेरी उपस्थिति किसी के लिए आशा, किसी के लिए प्रेम, किसी के लिए सहारा हो सकती है।”
“अस्तित्व का दर्द ही उसकी गहराई है। इस दर्द को महसूस करने की क्षमता ही तो मुझे जीवित प्राणी बनाती है।”
“शायद अर्थ की खोज ही नहीं, बल्कि इस खोज की यात्रा में जीवन को पूरी तरह अनुभव करना ही सार्थकता है।”
घर लौटकर उसने नीतू को देखा, जो रसोई में खाना बना रही थी। उसके चेहरे पर पसीने की बूँदें थीं, काम की थकान थी, पर उसकी आँखों में एक सामान्य सी शांति थी। अमर ने पहली बार महसूस किया कि यह साधारण दृश्य कितना असाधारण है।
उसने पास जाकर उसे बिना कुछ कहे, बस अपने हाथों से उसके कंधों को हल्का सा सहलाया। नीतू ने पलटकर देखा, थोड़ा हैरान। अमर की आँखों में वह खोया हुआ प्रकाश लौट आया था। उसने एक गहरी साँस ली, जैसे सालों बाद सही से सांस ले रहा हो।
वह खिड़की के पास गया। बाहर शहर की रोशनियाँ टिमटिमा रही थीं। प्रत्येक बिंदु के पीछे कोई जीवन था – अपने संघर्षों, अपनी खुशियों, अपने अस्तित्व के प्रश्नों से जूझता हुआ। उसे अहसास हुआ कि वह अकेला नहीं है। यह प्रश्न, यह खोज, यह दर्द और फिर इस दर्द में ही छिपी सुंदरता को खोज लेना – यही तो मानव होने का सार है।
अमर ने मुस्कुराते हुए खिड़की पर अपनी परछाई देखी। प्रश्न अभी भी वहाँ था, शायद हमेशा रहेगा। लेकिन अब वह एक भयानक राक्षस नहीं, बल्कि एक ऐसा साथी लग रहा था जो उसे गहराई में ले जाता है। उसने महसूस किया कि **अस्तित्व का उत्तर शायद कोई एक वाक्य नहीं, बल्कि हर सुबह उठकर जीवन को फिर से चुनने, हर छोटी खुशी को पहचानने, और हर दर्द में भी जीवन की धड़कन को महसूस करने का सतत साहस ही है।**
वह पलटा। नीतू ने खाने की मेज सजा दी थी। एक साधारण सी दाल, चावल, सब्जी। उसकी गंध से हवा भर गई थी। अमर ने पहली बार उस गंध को पूरी तरह महसूस किया। यह गंध उसके होने की गवाही थी। उसने पूरी तरह से साँस ली। आज रात का खाना उसे बहुत स्वादिष्ट लगने वाला था। जीवन का स्वाद वापस आ गया था।
डॉ० मनीषा भारद्वाज
ब्याड़ा (पालमपुर )
हिमाचल प्रदेश