घड़ी की टिक-टिक ने मीनाक्षी को जगा दिया। सुबह के 5:30 बजे थे। उसने आँखें मलते हुए अलार्म बंद किया और धीरे से बिस्तर से उठी ताकि उसके पति अंकित की नींद न खुल जाए। रसोई में जाते हुए उसने बरामदे में पड़े कपड़े उठाए—कल रात सोने से पहले बच्चों ने वहीं फेंक दिए थे।
चूल्हे पर बर्तन रखते हुए उसकी नज़र कैलेंडर पर पड़ी— 8 मार्च, अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस। सोशल मीडिया पर आज उसके लिए कितने संदेश आएँगे? “महिलाएँ सशक्त हैं” , “महिलाएँ समाज का आधार हैं ” पर क्या वह सच में सशक्त थी?
नहाने के बाद, शीशे के सामने खड़ी मीनाक्षी ने अपने चेहरे को गौर से देखा। उम्र के साथ आँखों के नीचे काले घेरे गहरे हो गए थे। उसने माथे पर पड़ी एक झुर्री को छुआ— यह कब आ गई? उसे याद आया, जब वह कॉलेज में थी, तो उसकी सहेलियाँ उसकी खिलखिलाती हँसी के लिए उसे “छोटी बच्ची” कहती थीं। आज वह हँसती कब है? उसके हाथ अपने चेहरे पर रुके। “यह सच में मैं हूँ?”
ऑफिस में, मीटिंग के दौरान सभी अपनी-अपनी राय रख रहे थे। मीनाक्षी के मन में भी एक विचार था, लेकिन उसने चुप रहना ही बेहतर समझा, “क्या पता, लोग कहेंगे—’घर की जिम्मेदारियाँ संभालो, यहाँ दखल मत दो।'”
दोपहर के भोजन पर, उसकी सहकर्मी नेहा ने पूछा, “तुमने अपनी पेंटिंग वाली क्लास ज्वाइन की?”
मीनाक्षी ने झट से उत्तर दिया, “अभी तो बच्चों की परीक्षाएँ चल रही हैं, फिर देखेंगे…”
लेकिन दिल में एक कसक थी, क्या वह कभी फिर वह दिन देख पाएगी?
शाम को, अलमारी में कुछ ढूँढ़ते हुए मीनाक्षी को एक पुरानी नोटबुक
मिली— यह उसकी कॉलेज की डायरी थी। उसने पन्ने पलटे। एक जगह लिखा था-
“आज प्रोफेसर ने मेरी पेंटिंग की तारीफ की! मैं बड़ी होकर एक आर्टिस्ट बनूँगी। समुद्र के किनारे एक छोटा-सा घर, जहाँ मैं रंगों से खेलती रहूँ…” उसकी आँखें नम हो गईं। कब उसने अपने सपनों को मरने दिया?
अगली सुबह, बिना किसी को बताए, मीनाक्षी ने एक दिन की छुट्टी ली और बस स्टैंड की ओर चल पड़ी। जब वह गोवा की एक सुनसान बीच पर पहुँची, तो उसने पहली बार स्वयं को स्वतंत्र महसूस किया।
लहरों की आवाज़, रेत का स्पर्श, हवा की लय—सब कुछ उसे जीवित होने का एहसास दिला रहा था। उसने अपने पैर पानी में डाले और आँखें बंद कर लीं। तभी उसे लगा, जैसे कोई कह रहा हो—
“तुम सिर्फ एक माँ, पत्नी या बहू नहीं हो… तुम ‘मीनाक्षी’ हो। और तुम्हारा अस्तित्व तुम्हारे सपनों में बसता है।”
घर लौटकर, मीनाक्षी ने एक फैसला किया। उसने बच्चों को अपने सपनों के बारे में बताया। अंकित ने पहले तो हैरानी जताई, लेकिन फिर मुस्कुराकर बोला, “मैं तुम्हारे साथ हूँ।”
अगले हफ्ते, उसने एक आर्ट क्लास ज्वाइन की। पहले दिन, जब उसने कैनवास पर रंग उड़ेले, तो उसे लगा—जैसे वह फिर से जन्म ले रही हो।
आज मीनाक्षी के जीवन में सब कुछ वैसा ही है—घर, बच्चे, ऑफिस। लेकिन अब उसके पास “स्वयं” के लिए भी समय है। उसकी डायरी के आखिरी पन्ने पर लिखा है:
“मैंने सीख लिया है—प्रेम देने के लिए, पहले अपने अस्तित्व को पहचानना ज़रूरी है। अब मैं सिर्फ दीया नहीं, एक जलती मशाल हूँ… जो अपनी रोशनी से दूसरों को रास्ता दिखाती है।”
डॉ. इन्दुमति सरकार