प्रभा बचपन से ही संकोची स्वभाव की थी। काफी समझदार और संस्कारी भी। बचपन संयुक्त परिवार में बीता और विवाह भी संयुक्त परिवार में ही हुआ। बचपन से ही त्याग और समर्पण की संयुक्त परिवार में एक स्त्री को उसकी शिक्षा दी जाती है।
प्रभा भी वही अनुभव कर रही थी।आज एकांत में बैठी वह बचपन से लेकर वर्तमान तक के इस जीवन यात्रा में अपने अस्तित्व को ढूंढ रही थी और चिंतन कर रही थी। संयुक्त परिवार में चार-पांच भाई बहनों के बीच में प्रभा भी थी।परिवार में माता-पिता सबसे बड़े थे।दादी थी।चाचा चाचा उनके बच्चे सब थे।
आज माँ ने भजिया मंगवाया!
प्रभा के बड़े भैया ने पूछा,”क्या हुआ माँ आज बाजार से तुमने भजिया मंगवाया?”
प्रभा की मां के कहते हुए आंखों से आंसू छल छला गए,उन्होंने कहा,’आज प्रभा का जन्मदिन है बेटा,लेकिन मेरे पास इतने पैसे नहीं कि मैं उसका जन्मदिन सबके साथ मना सकूं उत्सव के रूप में, पिताजी ने अभी पैसे भी नहीं भेजे हैं,इसलिए ये लो भजिया पूरे परिवार में बांट दो और बता देना प्रभा का जन्मदिन है!”
प्रभा सोचने लगी कि “भाइयों के जन्मदिन में पूजा की जाती है उन्हें टीका लगाया जाता है,चार लोग इकट्ठे होते हैं,वहीं लड़कियों के जन्मदिन में कोई उत्सव हो ना हो परंतु क्या ईश्वर का भी आशीर्वाद संभव नहीं!”
प्रभा पढ़ने लिखने में कुशाग्र थी,और उसे पढ़ना लिखना बहुत ही अच्छा लगता था। किताबें पढ़ने में उसे बहुत ही आनंद प्राप्त होता था,भले उस बचपन की अवस्था में भोले मस्तिष्क में कुछ बातें समझ में आती थी कुछ अधूरी रह जाती थीं बातें,परंतु वो पढ़ती थी । स्वयं से पढ़ती थी कोई सहयोग नहीं था ना कोई ट्यूशन ना कोई समझाने वाला।
उसी जगह उसने देखा मां पिताजी भाइयों की पढ़ाई को लेकर चिंतित रहते थे।उन्हें समझ में आ रहा है या नहीं आ रहा है बहुत ही ध्यान दिया जाता था।प्रभा को लगा कि “मुझे पढ़ाया जा रहा है क्योंकि शिक्षा आवश्यक है सिर्फ पढ़ने और लिखने के लिए,परंतु भाइयों को पढ़ाया जा रहा है कुछ करवाने के लिए उनके सपनों को साकार करने के लिए,क्या यहां भी मुझे त्याग करना पड़ेगा?”
एक दिन उसके चाचा ने पूछा,”प्रभा तुम पढ़ने में इतनी अच्छी हो,तुम बुद्धिमान हो,तुम क्या करना चाहती हो बड़े होकर ?”
प्रभा ने कहा,”मैं टीचर बनना चाहती हूं!”उसके चाचा हंसते हुए उसके सर पर हाथ फेर कर बाहर चले गए। उसके भाई ने चिढ़ाते हुए कहा,”टीचर !तूने डॉक्टर क्यों नहीं बोला,इंजीनियर क्यों नहीं बोला?”
प्रभा कुछ समझ नहीं सकी और उसने कुछ जवाब नहीं दिया।
पढ़ते पढ़ते उसकी शादी कर दी गई,डॉक्टर इंजीनियर तो दूर की बात है टीचर तक न बन पाई और ससुराल में एक नए जीवन की यात्रा शुरू हो गई।
वहां भी उसने देखा सब अजनबी उनके बीच क्या वो अपनी पहचान बना पाएगी? अपने अस्तित्व को ढूंढ पाएगी?बचपन से लेकर तो त्याग और समर्पण की सीख मिली और उसी का आवरण वह ओढ़ चुकी थी और ससुराल में भी वैसे ही जीवन बिता रही थी। नन्हे मुन्ने सपने वहां भी कुछ पनपे परंतु उसने उन सपनों को अपने बच्चों पर न्योछावर कर दिया।इतने वर्ष बीत गए बच्चे अपने सपनों को साकार करने में लग गए। प्रभा आज भी अपना अस्तित्व ढूंढ रही थी।
पति ने खाते हुए समझाते हुए प्रभा को कहा,”भाभी कुछ भी बोले तुम जवाब मत देना!”
प्रभा ने कहा,”मैं कभी पलट कर जवाब नहीं देती हूं और खामोश रहती हूं,उन्होंने जो भी गलत व्यवहार किया,मुझे इतने ताने मारे, परंतु आज तक मैंने पलट कर कोई जवाब नहीं दिया। “
पति ने कहा,”उन्हें बोलने दो जो बोलना है,परंतु तुम पलट कर जवाब नहीं देना।”
प्रभा ने कहा,”आज तक तो नहीं दी हूं,परंतु सहनशक्ति की भी सीमा होती है, और अनुशासित मेरे निजी जीवन को कोई करना चाहे,शिकंजा कसना चाहे,तो ये मैं बर्दाश्त नहीं कर सकती।”
उसके पति ने कहा,”बहुत ज्यादा बोलने लगी हो आजकल!”
प्रभा फिर कुछ जवाब नहीं दी और चुपचाप रसोई में जाकर अपने बाकी काम को करने लगी।
एकांत में जाकर दबे हुए भारी हृदय में पीड़ा को भरकर वो यही सोच रही थी कि,”यहां भी आत्मसम्मान खोना पड़ेगा,कहां है मेरा अस्तित्व?”
तभी उसकी बेटी आती है और कहती है,”माँ क्या बात है ?तुम इतनी उदास और परेशान दिख रही हो !”
प्रभा ने दिल की बात बता दी।तो उसकी बेटी ने कहा,”मां इसमें हम किसी को गलत नहीं कह सकते,हमारा अस्तित्व हमें खुद तलाशना होता है,तुम थोड़ी जिद्दी नहीं थी जैसा सब रास्ते दिखाते गए, तुम उसी रास्ते पर चल पड़ी,तुमने अपना कोई दृष्टिकोण नहीं रखा था,इसी वजह से तुम गुम हो गई हो मां,एक काम करो,कल से मैं दो-तीन बच्चों को बुलाती हूं,आप घर पर ही ट्यूशन पढ़ाओ!”
प्रभा राजी हो गई और सोचने लगी, आठवीं कक्षा की बच्ची उसे राह दिखा रही थी।
अगले दिन से वो ट्यूशन पढ़ना शुरू करती है। धीरे-धीरे और बच्चे बढ़ते हैं। ट्यूशन पढ़ाते हुए उसे अपने अंदर एक अलग ही शक्ति और अपने अस्तित्व का एहसास हुआ। हालांकि उसे किसी चीज की कोई कमी नहीं थी,कमी तो थी सिर्फ अस्तित्व के पहचान की।
आज उसने अपने बेटे के नाम पर अभ्युदय विद्यालय भी खोल लिया। जो टीचर बनना चाहती,थी उसी के स्कूल में इतने टीचर उसने रख लिए।
तभी जेठानी ने ताने मारते हुए कहा,इस घर की बहूएं कभी इतनी आगे नहीं बढ़ी, डेहरी लांघ कर कमी बाहर नहीं निकली,ये अच्छी बात थोड़ी है। प्रभा कुछ कहती उसके पहले ही उसके पति ने कहा,”इसमें बुराई क्या है भाभी जी,इसने ऐसा कुछ गलत काम तो किया ही नहीं है,और जरूरी नहीं है कि और बहुएं जिस तरह से जीवन यापन की है तो हर बहू भी उन्हीं के पैर में पर रखें,मुझे तो गर्व है प्रभा पर!”
आज प्रभा को कुछ और चिंतन करने की आवश्यकता नहीं थी,जो वो चाह रही थी अस्तित्व की पहचान आज उसे अपनी पहचान मिल गई।
प्रभा ने कहा कि,”हमारा स्कूल तो अब सीबीएसई एफिलिएटिड हो गया है,मेरी जिम्मेदारियां तो और भी बढ़ गईं है,अब तो मुझे और स्कूल की तरफ ध्यान देना पड़ेगा!”
उसकी जेठानी चुपचाप वहां से चली गई और प्रभा आज नियति को,प्रकृति को ऊपर की ओर देखकर,अपनी उन्मुक्तता भरे जीवन के लिए आभार व्यक्त कर रही थी मुस्कुराते हुए।
स्वरचित- अनामिका मिश्रा