क्या हुआ जी क्या सोच रहे हो?” सरला जी बोली
“अरे सोच रहा हूं कि अभी थोड़े दिन और रुकता हूं और फिर से विचार करता हूं वसीयत के बारे में..” शिवानंद जी बोले
“क्यों क्या हुआ ? आप तो ऐसे न थे जो रुपए पैसे के बारे में इतना सोच रहे हो
आपने ही तो तय किया था कि समय रहते धन का बंटवारा दोनों बेटों में कर दिया जाए तो बेहतर है और हमारे बाद ये सब घर, जमीन, जायदाद उनकी ही तो है फिर सोचना क्यों?”
“हमारे बाद ही ना… हमारे जीते जी तो मैं ये बंटवारा नहीं करूंगा क्या पता मेरे होते हुए भी मेरा अस्तित्व मिट जाए”
“ये क्या बोल रहे हो आप , शुभ शुभ बोलो “सरला जी चिंतित होते हुए बोली
“वक्त का कोई पता नहीं । पैसों के लिए मैने अच्छे अच्छों को बदलते देखा है इसलिए जब तक हम हैं तब तक अपनी इच्छा से जीयेंगे भगवान न करे मुझे भी दोनो बेटों के होते हुए शर्मा जी की तरह कहीं वृद्धाश्रम…. “
शुभ शुभ बोलो जी सरला जी शिवानंद जी के मुंह पर हाथ रखते हुए बोली और अब वो उनकी सोच से सहमत थी।
“शर्मा जी के बारे में सोचकर तो मुझे बहुत दुख होता है । कितने सज्जन और परोपकारी इंसान है। उन्होंने और उनकी पत्नी ने कितनी मेहनत से बच्चों को पढ़ाया लिखाया काबिल बनाया, नौकरी वाली बहुएं लाए ताकि समाज में उनकी इज़्ज़त और बढ़ जाए पर देखो तो दोनों पति पत्नी चार बेटों के होते हुए भी वृद्धाश्रम में रहते हैं और उनके बड़े बेटे ने तो जीते जी शर्मा जी का अस्तित्व खत्म कर दिया” जैसे ही शिवानंद जी बोले सरला जी ने बीच में ही टोकते हुए पूछा
“क्यों जी.. क्या हुआ ?
अभी तो पिछले साल ही उनके पोते के बेटे का जन्मदिन मनाया , उन्हें तो सोने की सीढ़ी चढ़ाई होगी”
“अरे कहां की सोने की सीढ़ी .. बेटे ने तो जन्मदिन के कार्ड पर उनका और उनकी पत्नी का नाम तक नहीं छपवाया
अरे जिन माता पिता से औलाद का अस्तित्व है , उन्हीं को अपने अस्तित्व पर खतरा मंडराता हुआ दिखाई दे तो सोचो क्या बीती होगी उन पर” शिवानंद जी चिंतित होते हुए बोले
“अरे ये तो बहुत गलत हुआ उनके साथ।तभी जब मुझे भाभी मिली कुछ उदास सी दिखाई दे रही थी और बोल रही थी गांव का पुश्तैनी घर बेचकर बहुत बड़ी गलती हो गई हमसे। कम से कम वहां दोनों बूढ़े बुढ़िया अपनी मर्जी से रह तो रहे थे यहां शहर आकर बेटे बहुओं ने तो हमे बोझ समझना ही शुरू कर दिया है। भगवान की दया से अभी हाथ पैर चल रहे हैं वरना पता नहीं क्या होगा” और कहते कहते रोने लगी
सरला जी भी कहते कहते द्रवित हो उठी
चलो कल मिलकर आते हैं उनसे उन्हें भी थोड़ा अच्छा लगेगा
अगले दिन वृद्धाश्रम में…
“अरे गुप्ता जी मेरे दोस्त ,मेरे यार ..शिवानंद जी को देखकर शर्मा जी खुशी से चहक उठे और शर्मा जी की पत्नी सरला जी के गले लगकर रोने लगी
“और बच्चे आते हैं मिलने?”सरला जी ने पूछा
“नहीं पहले एक दो महीने आए पर अब नहीं “शर्मा जी की पत्नी बोली
“आपने घर छोड़ क्यों दिया , बेटे के घर पर मां बाप का भी पूरा हक होता है। आप कहे तो मैं वकील से बात करूं?”
“नहीं सरला , जहां हमारा अस्तित्व न के बराबर है मै वहां नहीं जाना चाहती
गिन गिन कर रोटी दी जाती , छोटी कटोरी सब्जी , न दही न दूध , मन की इच्छा मन में दबाकर बहुत दिन रह लिए पर अब नहीं
शर्मा जी तो खाने के इतने शौकीन हैं और पूरी पेंशन उन्हीं के काम आ रही थी फिर भी अपने अस्तित्व के लिए लड़ना पड़ता था पर यहां सब अच्छा है। बोलने वाले लोग हैं , ध्यान रखने के लिए सब साथ हैं और यहां आकर सेहत भी सुधर गई है , शरीर में फिर से जान आ गई है अब मैं अपना मन बना चुकी हूं यहां से कहीं नहीं जाना
गलती तो हम लोगों से ही हो गई जो गांव छोड़कर यहां आ गए और सारे पैसों का बंटवारा कर दिया अपने जीते जी
बच्चों को अपना अपना हिस्सा क्या मिला वो तो हमारा किस्सा ही भूल गए । काम वाली के भरोसे छोड़ दिया हम पति पत्नी को
और एक दिन तो हद हो गई जब बहु ने पड़पोते को हाथ लगाने से मना कर दिया ये कहकर कि आप साफ सुधरे नहीं रहते हो , वॉशरूम जाकर अच्छे से हाथ नहीं धोए आपने इसलिए बच्चे को बीमार होने का खतरा है आप इसे ऐसे ही दूर से खिलाए तो बेहतर है
मेरे तो पैरों तले जमीन खिसक गई पर कर भी क्या सकती थी
कुछ बोलती तो वही लड़ाई झगड़ा इसलिए चुप रहकर अपने कमरे में वापस आ गई।
और तभी से दम घुटने लगा हम दोनों का , कोई बात करने वाला नहीं, कोई पास बैठने वाला नहीं अकेले पड़ गए थे बिल्कुल
तनाव और अकेलेपन की वजह से बीमारी भी घर करने लगी थी और अपना अस्तित्व भी खतरे में लगा तो यही निश्चय किया कि जो थोड़ी बहुत जिंदगी बची है उसे अपने मन मुताबिक जिएंगे।
तीन बेटे बहु तो पहले से ही हमसे किनारा कर चुके हैं और एक बड़ा बेटा है जो दुनिया के डर से रख तो रहा है पर व्यवहार अजनबियों की तरह है। उसे बोला कि हमे वृद्धाश्रम जाना है तो एक बार भी कारण नहीं पूछा और जैसी आपकी इच्छा बोलकर हमें यहां छोड़ गया
अब तुम ही बताओ ऐसे पैसे और इज्जत का क्या फायदा जब बेटे बहु को मा बाप बोझ लगने लगे। “कहते कहते सुबक पड़ी मिसेज शर्मा
सरला जी दुखी भी थी और थोड़ी चिंतित भी। उनसे विदा ली और घर वापस आ गए
घर आकर दोनों ने विचार विमर्श किया और वसीयत बनाने का प्लान बदल दिया
शिवानंद जी ने तुरंत ही सारे अकाउंट ज्वाइंट अकाउंट में बदल दिए और सरला जी को भी इसकी जानकारी दे दी ताकि उनके बाद भी वो अपना अस्तित्व बनाए रखने में सक्षम रहे।
बेटे बहु तो अपनी जिंदगी की आपाधापी में व्यस्त है पर सरला जी और शिवानंद जी एक दूसरे को पूरा समय देते हैं और घर की जिम्मेदारियां भी देखते है क्योंकि अपने घर में हक से जो रहते हैं।
पैसे की जगह पैसे, प्यार की जगह प्यार और डांट की जगह डांट भी देते हैं ताकि बहु बेटे उनके अस्तित्व की रक्षा करें और बड़े बुजुर्गों की घर में क्या अहमियत है ये अपने बच्चों को भी समझा सके।
वो अपने माता पिता की परवाह करेंगे तो उनके बच्चे भी आगे उनकी परवाह करना सीख जाएंगे और उन्हें अपने अस्तित्व के लिए लड़ना नहीं पड़ेगा ये सुनिश्चित भी कर जायेंगे।
दोस्तों ऐसा अक्सर देखा गया है कि बुजुर्ग लोग अपने अस्तित्व के लिए बहुत जद्दोजहद करते हैं पर ये नौबत आती ही क्यों है ? क्या इस पर कभी विचार किया है?
मुझे लगता है ये हमारे संस्कार हमे सिखाते हैं कि हमारा अस्तित्व बनाने के लिए माता पिता पूरी जिंदगी संघर्ष करते हैं और जब उनके अस्तित्व की रक्षा की बारी आती है तो हमे भी पूरा प्रयास करना चाहिए कि वो खुद को अकेला महसूस नहीं करे ।
आपको क्या लगता है ? अपने विचारों से मेरा उत्साहवर्धन करना नहीं भूलें
धन्यवाद
स्वरचित और मौलिक
निशा जैन