आसमान की ओर मुस्कान – ज्योति आहूजा :

कविता की आदत थी कि हर रात सोने से पहले छत पर जाकर आसमान देखे। टिमटिमाते तारों को ताकते हुए उसके मन में एक ही सवाल बार-बार उठता—

“अगर मैं कल न रही… तो मेरे बच्चों का क्या होगा?”

उसका जीवन बच्चों में ही बसता था। सुबह से लेकर रात तक उनकी हँसी, उनकी पढ़ाई, उनका खाना—सब उसकी साँसों की धड़कन से जुड़ा था। 

लेकिन फिर उसे शांति की याद आ जाती—वही पड़ोसन, जो अचानक चल बसी थी। तीन दिन मोहल्ला रोया, पर चौथे दिन सब्ज़ी का ठेला फिर उसी दरवाज़े पर लग गया। 

शांति के बच्चे भी धीरे-धीरे अपने कामों में लौट गए थे। 

उस दिन कविता का दिल चुभ गया—“तो क्या सचमुच मरने वाले का ही सबसे बड़ा नुकसान होता है? बाक़ी सब तो फिर भी जी ही लेते हैं…”

अब उसके बच्चे बड़े हो चुके थे। 

बड़ा बेटा आदित्य दिन-रात मोबाइल और लैपटॉप में उलझा रहता। छोटी बेटी रिया किताबों और दोस्तों की दुनिया में खोई रहती। वही बच्चे,,,,

जो कभी कहते थे—

“माँ, जूता बाँध दो… 

बाल बना दो… 

कहानी सुनाओ…” 

अब बहुत कम ही कहते थे—“माँ, बैठो ना ज़रा।” 

कविता के दिल में टीस उठती—“तो क्या अब मैं कम ज़रूरी हो गई हूँ?”

उस रात उसने अपने मन से काफ़ी लंबी बातें कीं। 

धीरे-धीरे उसे लगा—माँ होना बच्चों में घुल जाना नहीं, बल्कि उन्हें जीना सिखाना है। 

लगाव ज़रूरी है, मगर पकड़ नहीं। अगर उसने जीते जी बच्चों को सँभलना सिखा दिया, तो उसके बाद वो न भी रही, तो भी बच्चे संभल जाएँगे।

उसने तय किया—अब बच्चों से जितना प्यार मिलेगा उसे उपहार की तरह लेगी, हक़ की तरह नहीं। 

और अपने लिए भी थोड़ा वक़्त रखेगी—पौधों के बीच, किताबों में, और कभी पुरानी सहेलियों की यादों में।

इसी सोच ने उसे पुराने दिनों तक पहुँचा दिया। उसने अपने स्कूल की सहेलियों का ग्रुप फिर से बनाने का मन बनाया। 

एक-एक कर नाम याद आए—अंजना, ममता, सुनीता और गीता। फोन नंबर ढूँढने में वक्त लगा, लेकिन धीरे-धीरे सब जुड़ गईं। 

ग्रुप का नाम रखा गया,,,,

“आओ यादों को फिर से दोहरायें “

शुरुआत में बस औपचारिक बातें हुईं—

“कैसी हो? 

कहाँ रहती हो?” लेकिन धीरे-धीरे यादों की बौछार शुरू हो गई।

“याद है मैथ्स वाली मिस?”

“अरे, वार्षिक मेले का गुलाबजामुन?”

और सब हँसते-हँसते बच्चे बन गईं।

फिर कविता ने लिखा—

“ज़िंदगी की भागदौड़ कभी ख़त्म नहीं होगी, क्यों न हम थोड़ा ठहरकर मिलें? 

एक री-यूनियन करें।”

सभी के मन में वही प्यास थी। तारीख़ तय हुई, जगह चुनी गई—शहर से बाहर हरियाली से घिरे गुलमोहर रिसॉर्ट में।

उस दिन कविता ने अलमारी से हल्की हरी साड़ी निकाली। आईने में देखते हुए मुस्कुराई—“आज मैं सिर्फ़ माँ नहीं… आज फिर से वो लड़की हूँ जो सहेलियों संग हँस सकती है। जहाँ बचपन और किशोरावस्था की अनगिनत बातें होंगी। वो पल फिर से लौटेंगे जो जीवन के शायद सबसे हसीन पल थे। वो बेसिर-पैर की बातें और उन पर ठहाके मारकर हँसना—सब जैसे लौट आया है।”

रिसॉर्ट पहुँचते ही सहेलियाँ दौड़कर गले मिलीं। नेत्रों से अश्रु की धार बह गयी ।कोर भीग गए, और फिर अगले ही पल सब खिलखिला पड़ीं। अंजना ने अपने बच्चों की तस्वीरें दिखाईं, सुनीता ने अपने अकेलेपन की दास्तान सुनाई, ममता बोली—“मैं तो घर-ऑफिस की भागदौड़ में खुद को ही भूल गई थी,” और गीता हँसते-हँसते बोली—“याद है, हम चुपके से लंच बॉक्स बदल लेते थे?”

कविता सब सुनती रही और फिर बोली—

“हम सब अपने-अपने घर में मज़बूत बनने की कोशिश करते हैं, पर सच ये है कि हम सबको सहारे की ज़रूरत होती है—कभी दोस्त की हँसी, कभी उसके कंधे की।”

उस दिन बगीचे की हवा और भी हल्की हो गई। सबने मिलकर वादा किया कि अब हर साल मिलेंगी।

 फिर फिल्मी गीत गाए गए, डांस हुआ, अनेक तस्वीरें खिंचीं गयी , और चाय की चुस्कियों में दिल का सारा बोझ उतर गया। 

सभी के दिल से एक ही आवाज़ उठी—

“वक़्त तू ठहर जा, थम जा ज़रा।

ये हसीन पल बड़ी किस्मत से मिलते हैं।”

शाम ढलते-ढलते कविता का मन भर आया। घर लौटते समय उसके चेहरे पर वही चमक थी जो बरसों पहले स्कूल-कॉलेज के दिनों में होती थी।

बच्चों ने जब उसकी फ़ोटो देखी तो रिया ने हँसकर कहा—“माँ, आप तो बहुत क्यूट लग रही हो यहाँ।”

आदित्य ने मोबाइल से झाँकते हुए बोला—“माँ, सच में आप मुस्कुरा रही हो दिल से।”

पति दीपक ने अख़बार से नज़र उठाकर कहा—“अच्छा किया कविता। कभी अपने लिए भी जी लिया करो।”

रात को छत पर खड़ी होकर कविता ने आसमान देखा। मगर इस बार उसकी आँखों में डर नहीं, संतोष था। उसने मन ही मन कहा—

“काम कभी ख़त्म नहीं होंगे, पर अब मैं जान गई हूँ—थोड़ा-सा वक़्त अपने लिए चुराना ही सबसे बड़ा तोहफ़ा है। खुद के लिए भी… और अपनों के लिए भी।”

आसमान उसी तरह टिमटिमा रहा था, पर अब उसमें कविता की मुस्कान भी घुल चुकी थी।

 सखियों ।जीवन की गाड़ी हमेशा चलती रहती है। काम, जिम्मेदारियाँ और थकान कभी ख़त्म नहीं होतीं। लेकिन अगर इंसान थोड़े पल अपने लिए चुरा ले, तो वही पल उसकी साँसों में रोशनी भर देते हैं… और उस रोशनी से ही घर-परिवार जगमगाता है।

प्रिय पाठकों 

ये कहानी आपको पसंद आयेगी ।

इसी आशा में ।

ज्योति आहूजा ।

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