हताश-निराश नमिता सोच रही है कि कभी-कभी मनुष्य की ज़िन्दगी में ऐसे मोड़ उपस्थित हो जाते हैं कि अपनों से गैर ही भले लगने लगते हैं। मनुष्य अपनों की जहरीली चाल को समझ नहीं पाता है,उन पर भरोसा कर अपना सर्वस्व लुटा बैठता है।बाद में पछताने के सिवा उसके हाथ में कुछ भी नहीं आता है।
उमेश जी और नमिता पति -पत्नी थे। उमेश जी सरकारी नौकरी में थे और नमिता गृहिणी।उनके पास सब कुछ था।बड़ा घर, बड़ा बगीचा,सरकारी नौकरी और आपस में प्यार।उनकी जिंदगी में कमी थी
तो बस संतान की।काफी इलाज के बाद जब उनको संतान नहीं हुई,तो उमेश जी ने पत्नी को सांत्वना देते हुए कहा -“नमिता! ईश्वर ने हमारी किस्मत में औलादें नहीं लिखी है,हम दोनों एक-दूसरे के लिए काफी हैं।”
नमिता ने भी इसे ईश्वर की मर्जी समझकर स्वीकार कर लिया।
उमेश जी दफ्तर चले जाते,नमिता एक-दो घंटा समय बागवानी में व्यतीत करती। बागवानी को ही उसने अपना शौक बना लिया था।बगीचे में कभी आम के पेड़ों पर लदे फलों को देखकर बातें करते हुए कहती -“इस बार तो खूब फल-फूल रहे हो,पिछले साल क्या हो गया था?चटनी खाने को भी तरस गई थी।”
हवा के झोंके से झूमते पेड़ों को देखकर खुशी से आगे गुलाब के पौधे के पास पहुॅंचकर फूलों को प्यार से सहलाती,मानो कोई छोटा-सा नाजुक बच्चा हो।खिले हुए फूलों को देखकर नमिता के चेहरे की मुस्कराहट दुगुनी हो जाती। नमिता अपने बगीचे के प्रत्येक पेड़ -पौधों की देखभाल का ख्याल अपने बच्चों की भाॅंति करती और उनसे बातें भी करती।
उन्हें ही दोनों ने अपनी संतान मान लिया था।आम-लीची के मौसम में तरह-तरह की चिड़ियाॅं उसके बगीचे में आ जातीं। नमिता कुछ देर तक उन चिड़ियों का फुदकना बड़ी तन्मयता से देखती, फिर उन्हें पुचकारते हुए कहती -“रूको!रूको!अभी जाना नहीं। तुम्हारे लिए दाना लाती हूॅं।”
चिड़ियाॅं भी मानो उसकी भाषा समझती थीं।दाना का इंतजार करती रहतीं।दाना चुगने के बाद फुर्र से उड़ जातीं।अब नमिता घर के अंदर जाने लगती,उसी समय उसे कोयल की कूक सुनाई देती।
कोयल की मधुर कूक से सम्मोहित होकर नमिता उसकी आवाज में अपनी आवाज मिलाती।इन सबके बाद वह अपने नित्य कर्म में व्यस्त हो जाती।इस तरह नमिता इन सब बातों में खुद को मगन रखती।
शाम को जब उमेश जी दफ्तर से घर आते,तो दोनों पति-पत्नी बगीचे में बैठकर चाय पीते।नमिता चाय पीते हुए हर पेड़ -पौधों की जानकारी उमेश जी को देती। उमेश जी भी बड़ी तन्मयता से बातें सुनतें।
छुट्टी के दिन उमेश जी भी पेड़ -पौधों में खाद-पानी और दवा देते।मौसमी फल,फूल और सब्जियों से उनका बगीचा हरा-भरा रहता। अतिरिक्त फल और सब्जियाॅं जरुरतमंदों को दान कर देते।इस तरह दोनों की जिंदगी खुशहाल बीत रही थी।
उमेश जी और नमिता छुट्टियों में कभी रिश्तेदार के यहाॅं,कभी बाहर घूमने निकल जाते। कुछ समय बाद उन लोगों ने रिश्तेदारों के यहाॅं जाना छोड़ दिया, क्योंकि उनकी नजर उनकी सम्पत्ति पर थी।वे उन पर कटाक्ष करते हुए कहते -“क्या फायदा,इतने बड़े घर और बगीचे का?कोई तो इसका वारिस ही नहीं है!”
रिश्तेदारों की बातें उनके मर्मस्थल को बेध जातीं। धीरे-धीरे उनलोगों ने रिश्तेदारों से किनारा कर लिया। दोनों पति-पत्नी एक-दूसरे का सहारा बनकर अपनी दुनियाॅं में मगन रहतें। उमेश जी के दोस्त रमण जी से उनका भाईचारे का रिश्ता था। दोनों एक-दूसरे के सुख-दुख में काम आते।
समय निर्बाध गति से आगे बढ़ रहा था। देखते-देखते उमेश जी नौकरी से रिटायर हो गए।कहा गया है कि ‘सबै दिन न होता एक समान!’
बढ़ती उम्र के साथ दोनों का शरीर आशक्त होने लगा।अब बागवानी उनके वश की नहीं रही। उम्र के इस पड़ाव पर एक बार फिर से उन्हें संतान की कमी खलने लगी।उनकी उदासी देखकर रमण जी ने उन्हें सलाह देते हुए कहा -“दोस्त!ऊपर के कमरों में कोई किराएदार रख लो,घर भी हरा-भरा रहेगा और तुमलोगों का दिल भी बहलेगा।”
उमेश जी को आरंभ से घर में किराएदार रखना पसंद नहीं था,इस कारण उन्होंने रमण जी की बातें नकार दीं।
पति की मनोभावों को समझते हुए नमिता ने कहा -“किराएदार नहीं,तो मैं अपनी बहन के बेटे सुमित को ऊपर के एक कमरे में रख लेती हूॅं।अभी मेरी छोटी बहन आर्थिक कठिनाईयों से जूझ रही है।उसे भी मदद मिल जाएगी और हमें भी अपनों का सहारा मिल जाएगा!”
उमेश जी ने नमिता की बातों पर हामी भर दी।ऊपर के एक कमरे में सुमित और दूसरे कमरे में उमेश जी के गाॅंव का गरीब लड़का अनिल रहने लगा।
सुमित इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था और अनिल ग्रेजुएशन करके किसी कंपनी में साधारण नौकरी कर रहा था।उन दोनों के आ जाने से उनके घर में चहल-पहल हो गई।
उनके घर में दिन भर की मेड रहती थी,वहीं उनका भी खाना बना देती। उमेश जी और नमिता सुमित पर जान छिड़कते थे। दोनों उसे अपना बेटा ही समझने लगें। सुमित भी काॅलेज से आकर उन दोनों के पास ही बैठता। उन्हें देश-दुनियाॅं की सारी बातें बताता।
उमेश जी काम से बैंक या कहीं भी जाते, सुमित उनके साथ चला जाता। सुमित उन्हें कहता -“मेरे रहते हुए आपलोग कहीं अकेले मत जाओ। मैं यहाॅं आपलोगों की मदद के लिए ही तो हूॅं!”
सुमित की बातें सुनकर पति-पत्नी गदगद हो उठते। उमेश जी पत्नी से कहते -“बुढ़ापे में कोई साथ रहता है,तो मन को संबल मिलता है!”
उमेश जी ने अपने पैसों के बारे में नमिता को कुछ नहीं बताया था,वैसे भी नमिता को इन सब बातों से कोई मतलब नहीं था। परन्तु उमेश जी ने अपने सारे पैसों की जानकारी सुमित को दे दी थी।
पैसों को देखकर सुमित के मन में लोभ करवटें लेने लगा।उसकी नीयत में खोट आने लगी। उमेश दम्पति सुमित पर ऑंख मूॅंदकर भरोसा करते थे, परन्तु अनिल को सुमित पर शक होने लगा था। सुमित के रहस्यपूर्ण व्यवहार देखकर एक दिन अनिल ने नमिता से कहा -“ऑंटी!मुझे सुमित का व्यवहार कुछ शंकित कर रहा है!”
नमिता ने उल्टे अनिल को डाॅंटते हुए कहा -” तुम चुप-चाप अपने काम से काम रखो। सुमित हमारे बेटे के समान है।उसके खिलाफ मैं कुछ नहीं सुन सकती हूॅं!”
उस दिन के बाद से अनिल खामोश हो गया। सुमित के लिए रास्ता साफ हो चुका था।वह मन-ही-मन षड्यंत्र रचने लगा।
कुछ दिनों बाद अचानक से उमेश जी को दिल का दौरा पड़ गया। सुमित ने उस समय जान-बूझकर अस्पताल जाने में देरी कर दी।अनिल के हड़बड़ाने पर उन्हें अस्पताल लेकर गया। उमेश जी की हालत नाज़ुक थी। डॉक्टर ने जबाव देते हुए कहा -“आपलोगों ने मरीजको लाने में काफी देरी कर दी।”
नमिता का भरोसा जीतने के लिए सुमित दिन-भर दौड़ -धूप करता रहा, परन्तु उमेश जी को नहीं बचाया जा सका। सुमित नमिता के पास बैठकर घड़ियाली ऑंसू बहाता और मन-ही-मन अपने षड्यंत्र को अंजाम तक पहुॅंचाने का प्लान बनाता।उसकी इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी हो चुकी थी।
पति के गुजर जाने के बाद नमिता को एकमात्र सुमित ही अपना लगता।उसने सुमित पर ही सारा कुछ सौंप दिया।अब सुमित कभी मृत्यु प्रमाण-पत्र,कभी बिजली बिल जमा कराने,कभी मकान के टैक्स जमा करने के बहाने,कभी इंश्योरेंस के बहाने आए दिन नमिता से सादे कागज पर दस्तखत करवा लेता।नमिता सुमित पर ऑंखें बंद कर भरोसा करने लगी।
अनिल को सुमित की चाल समझ में आ रही थी।एक दिन फिर हिम्मत कर उसने नमिता से कहा -“ऑंटी!बिना सोचे-विचारे किसी कागज पर मत दस्तखत किया करो!”
परन्तु जब मति मारी जाती है,तो किसी की अच्छी बातें भी बुरी लगतीं हैं।वही हाल नमिता का था।इस बार भी नमिता ने कड़े शब्दों में कहा -“अनिल! मैं सुमित के खिलाफ कुछ नहीं सुन सकती हूॅं।”
एक बार फिर अनिल के पास चुप रहने के सिवा कोई चारा नहीं था।पराया होकर भी अनिल की आत्मा नमिता की मदद के लिए तड़प रही थी, परन्तु वह बेबस था।साजिश के तहत एक दिन सुमित ने नमिता को बैंक मैनेजर से मिलवा दिया। नमिता भी उसकी चिकनी -चुपड़ी बातों पर भरोसा करने लगी थी।उसने बैंक मैनेजर से कहा -“मैनेजर साहब! सुमित मेरे बेटे जैसा है।इसे जितने पैसे चाहिए,उतने दे देंगे।”
अब सुमित को खुली छूट मिल गई थी।जब वह बैंक जाता,तो जान-बूझकर नमिता का फोन बंद कर देता।ए टी एम से पैसे निकाल लेता और सारे मैसेज डिलीट कर देता।इस तरह धीरे-धीरे सुमित ने उमेश जी और नमिता के खाते से सारे पैसे निकाल लिऍं और बहाने बनाकर लापता हो गया।
काफी दिन बीत जाने पर नमिता ने चिन्तित होते हुए अनिल से सुमित के बारे में पता लगाने को कहा। अनिल ने पता लगाकर कहा -“ऑंटी! सुमित तो अमेरिका आगे की पढ़ाई करने चला गया है !”
नमिता अब भी नहीं समझ पा रही थी कि सुमित उसे बिना बताए क्यों विदेश चला गया? एक दिन जरूरी काम से बैंक जाने पर उसे सुमित के षड्यंत्र के बारे में पता चला।धोखे की दीवार अचानक से रेत की भाॅंति ढ़ह गई।उसने अपने उबलते गुस्से को काबू में किया। जिन्दगी ऐसे खेल दिखाएगी,ऐसा उसने कभी सोचा भी नहीं था। विचित्र झंझावात उसके मन-मस्तिष्क में द्वंद्व मचाए हुआ था।अपनत्व का ऐसा परिणाम हो सकता है,यह उसके लिए कल्पनातीत था।ऐसी कठिन परिस्थिति में अनिल मजबूत संबल के रूप में उसके साथ बना हुआ था।
सुमित की चालबाजी याद कर नमिता के दिल का दर्द बार-बार ऑंखों में उभरकर आ जाता।खामोश जुबां,क्रंदन करता मन सोचता -“ये कैसा अपनों का रिश्ता था,जो अपना होकर भी पराया हो गया?”
आज खून के रिश्ते का भ्रम बेनकाब हो गया। जिसको अपना मानती थी,वहीं दगाबाज निकल गया और जिसको बेगाना समझ रही थी,वहीं एक मजबूत स्तंभ की भाॅंति उसके साथ खड़ा है!”
नमिता जिन्दगी से बेजार हो चुकी थी।उसे किसी बात की सुधि नहीं थी। नमिता की हालत से दुखी होकर अनिल रमण जी को बुलाकर ले आया। रमण जी ने नमिता समझाते हुए कहा -“जीवन बहुत मूल्यवान है।यह बस कुछ रिश्तों तक सीमित नहीं होता है कि उनके जाते ही सब खत्म हो जाऍं।जीवन में कुछ स्थायी नहीं है।एक रिश्ता टूटता है,तो दूसरे रिश्ते जुड़ते भी हैं।यह अवसाद से घिरने के लिए नहीं है।ईश्वर के दिऍं इस उपहार का सम्मान और आदर करो। तुम्हारे साथ तो सच्चे हीरे के रूप में अनिल खड़ा है!”
अनिल को देखकर नमिता की ऑंखें भर उठीं।जिसको उसने सदा पराया समझा,वहीं मुश्किल घड़ी में चट्टान की मानिंद उसके साथ खड़ा है। सचमुच खून के रिश्तों से दुखी हुई,तो हालात ने पराए रिश्तों को अपना बना दिया।
समाप्त।
लेखिका -डाॅ संजु झा (स्वरचित)