अपने काम से काम रखो – विमला गुगलानी :

“नमस्ते ममी, कैसी हो, क्या हाल है आपकी बहूरानी के, आ गए दोनों हनीमून से”

          शिखा ने घर में घुसते ही मां से पूछा। “ हाँ, आ गए तेरे भैया भाभी, और आज दोनों काम पर भी गए, थके हुए तो थे, पंरतु छुट्टियां भी खत्म हो गई थी तो जाना ही पड़ा, एक अच्छी बात ये हुई कि नंदनी का स्कूल भी रास्ते में ही है, आधे घंटे का अंतर है टाईम में, पंरतु शिखर ने कहा कि वो कहीं पार्क में बैठ जाएगा और सैर भी कर लेगा। “ मनोरमा ने शिखा के आगे पानी का गिलास रखते हुए कहा।

    “ मतलब कि दोनों आठ बजे ही निकल गए, फिर तो जल्दी उठ कर नंदनी ने टिफिन पैक किए होगें” शिखा ने कुरेदते हुए कहा।

  “ क्यों , अभी इतनी भी क्या जल्दी है काम की, अभी तो रसोई की जानकारी ही कहां है उस नई नवेली को, और फिर मैं हूं ना , अभी तो तेरी माँ जवान है,”मनोरमा जी ने हंसते हुए कहा। 

     बेटे की शादी को लगभग बीस दिन हो चुके थे। सारा कार्यक्रम भले ही आजकल होटलों वगैरह में होता है, लेकिन फिर भी पूरा घर तो बिखर जाता है। मनोरमा जी अकेली ही थी संभालने वाली। 

      बेटी शिखा, वैसे तो भाई शिखर से तीन साल छोटी थी परतुं उसकी शादी को चार साल हो चुके थे और अब दो साल की प्यारी बेटी रूबी की मां भी थी।लोकल होने के कारण शिखा आती जाती रहती , रात को रूकना कम ही होता क्योंकि ससुराल में उसे काफी कुछ संभालना होता। वो वहां ज्यादा खुश नहीं रहती थी। 

             मायके में मां बाप की लाडली बेटी, भाई की इकलौती बहन कुछ ज्यादा ही सिरचढ़ी थी। ससुराल में दो बड़ी शादीशुदा ननदें और एक जेठानी और उसके दो बच्चे भी थे। जेठानी उसी घर में उपर वाली मंजिल पर अलग रहती थी। शिखा ने तो यही सोचकर शादी के लिए हां की थी कि उसका पति सुगम और सास कुल दो लोग ही तो है। ससुर का देहांत हो चुका था।

      लेकिन अक्सर बच्चे दादी के पास ही रहते और बेटियां भी मायके आती रहती। सब परिवार अच्छा था लेकिन शिखा को घर में भीड़ पंसद नहीं थी, वो कम ही मिक्स होती जबकि जेठानी बहुत खुशमिजाज थी। अब जहां मां होगी वहां बच्चों ने तो आना ही होता है। 

      शिखा को जब भी मौका लगता मायके चली जाती। पूरा दिन वहीं रहती, कभी सुगम ले जाता या फिर कैब से आ जाती। और अब तो भाई की शादी का बहाना मिल गया था।

    “ अच्छा मां , दिखाओ भाभी क्या लेकर आई मनाली से, वहां पर तो हिमाचल एम्पोरियम पर बहुत अच्छा हाथ से बना सामान मिलता है” शिखा ने बड़ी उत्सुकता से कहा।

    “ तुम भी ना, रात को देर से आए है, सुबह काम पर चले गए, आराम से बैठेगें तो बातचीत होगी, अभी तो मुझे शादी के भी पूरे तोहफे खोलने का समय नहीं मिला”।

           इधर उधर की कुछ बातें करने के बाद खाना पीना हुआ और चार बजे नंदनी आई तो शिखा को देखकर बहुत खुश हुई, बड़े चाव से गले मिली, जबकि शिखा मिली तो सही मगर कुछ दंभ से। मनोरमा चाय के लिए जाने लगी तो शिखा बोली, बैठ जाओ, अब बहू आ गई है तो वो बना लाएगी चाय, अब तुम्हारे आराम करने के दिन है।

       अभी लाती हूं, कह कर नंदनी रसोई में घुस गई।” ये क्या शिखा, बेचारी थकहार कर आई है, उसे चेंज तो करने देती, चाय मैं बना लेती”

    “ मेरी भोली माँ, अभी से नकेल कस कर रखो, एक बार हाथ से निकल गई तो फिर सारी उम्र तुम्हीं चूल्हा फूंकती रह जाओगी” शिखा आगे कुछ कहती तभी जतिन यानि कि शिखा के पिता जी आ गए, और बात वहीं पर खत्म हो गई। शाम को सुगम आया , शिखर भी आया, खूब रौनक लगी, नन्हीं रूबी भी मामी के साथ खूब खुश थी।

          डिनर के बाद सब चले गए। शिखा का घर लोकल भले ही था परंतु इतना पास भी नहीं था, फिर भी वो हफ्ते में दो तीन चक्कर मायके के लगा ही जाती। सुगम ने दो तीन बार टोका, लेकिन वो कहती , अभी तो रूबी छोटी है और भाई की भी नई नई शादी हुई है, जब रूबी स्कूल जाएगी तो कहां जा पाऊंगी। अब सुगम क्या कहता।

        मायके आकर वो ज्यादातर बातें नंदनी की ही करती, कितने बजे उठती है, काम करती है या नहीं, मायके कब गई, क्या लेकर आई, सैलरी कितनी है, घर में कुछ देती है या नहीं,हर समय फोन पर तो नहीं लगी रहती,उसके मायके वाले कितना आते है ,वगैरह वगैरह। 

   मनोरमा जी बहुत ही सुलझी हुई औरत थी, उन्की अपनी बहू से बहुत अच्छी बन रही थी, दोनों दोस्तों की तरह ही थी, उन्हें अपनी बेटी का ये रवैया पंसद नहीं आ रहा था लेकिन वो चुप रहती। कुछ बातें उनहें शिखा की सही भी लगती मगर वो अपने बेटे बहू के साथ खुश थी और वो उन दोनों को हमेशा खुश देखना चाहती थी।

           शिखर की शादी को लगभग चार महीने हो गए थे, एक दिन शिखा मायके गई तो उसने देखा कि मनोरमा जी लेटी हुई थी और उस दिन काम वाली रेखा भी नहीं आई थी। रसोई पूरी बिखरी पड़ी। उसके पापा चाय बना रहे थे, यह सब देख शिखा का पारा सांतवे आसमान पर पहुंच गया।

“ भाभी को चाहिए था आज छुट्टी ले लेती” शिखा बिफर पड़ी। बेटा वो दो दिन से घर पर ही थी, जतिन रसोई से आते हुए बोले।

    तो क्या हुआ, तनख्वाह कट जाती, शिखा ने मां के पास बैठते हुए कहा। 

     “बेटा आज स्कूल में इन्सपैक्शन थी, नंदनी का जाना जरूरी था। काम तो हो जाएगा, अब तुम आ गई हो तो चिंता किस बात की”। 

             शिखा की तो शामत आ गई, ना भी कैसे बोलती। झाड़ू , पोचा , बर्तन ,खाना सब बाप बेटी ने मिलकर किया। शाम तक मनोरमा जी की हालत भी कुछ सुधर गई थी। नंदनी भी आ चुकी थी। शिखा इतनी थक गई थी कि उसने सुगम के आने का इंतजार भी नहीं किया और वापिस चली गई। अब वो समझ गई थी कि शादी के बाद अपना घर सभांलने में ही भलाई है। मायके में तो हैसियत मेहमान जैसी होती है। बस अपने काम से ही काम रखो। 

        अब शिखा का मायके सिर्फ तीज त्यौहार पर ही जाना होता और मनोरमा जी को भी कान भरने वाली से मुक्ति मिल गई, भले ही वो अपनी बेटी हो।

दोस्तों हम सभी को अपने दिमाग से काम लेना चाहिए, क्योंकि हर एक के अपने अपने हालात होते है और मुफ्त में कान भरने यानि की चुगली 

करने वाले मिल जाऐगें, उन्की संगत से दूरी रखने में ही भलाई है। 

विमला गुगलानी

चंडीगढ 

मुहावरा- कान भरना

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