उसका दुग्ध सा सफेद वर्ण झुर्रियों के ताने-बाने में से झांकती लालिमा और गहरा जाती जब उसके अधरों पर निश्चल हंसी आती थी। कितना हंसती थी….. बात बात पर….. स्वयं ही कोई बात कहती और हंसती। बच्चों की सी उसकी निश्चल हंसी सामने वाले को मंत्रमुग्ध कर देती। जितनी शीघ्रता से वह हंस देती थी
उतनी ही शीघ्रता से आंखों से नमकीन पानी भी बह निकलता। मौन रुदन….. सिर्फ पानी का बहाव… अविरल। कभी-कभी सैलाब इतना उमड़ आता कि आंखें पोंछते-पोंछते उसका सारा दुपट्टा भीग जाता।
यशोधरा दु:खों की जैसी कोई गठरी ही थी। उम्र के छः दशक बीत जाने के बाद भी घर के काम ऐसे करती जैसे कोई नवयौवना करती है। हर काम सलीके से, सफाई से और स्वयं भी कोई कपड़ा बगैर इस्त्री के बिना ना पहनती। ईश्वर ने हर काम का सलीका देकर भेजा था उसे, मगर किस्मत देते वक्त अपना हाथ खींच गया।
परी सी सुंदर यशोधरा इतने गरीब घर में ब्याह के आई कि दो जून की रोटी भी जुटा पाना मुश्किल,फिर पति इतना अड़ब , इतना गुस्सैल कि गाली गलौज, मारपीट उसके लिए सामान्य सी बात थी। निर्दोष होते हुए भी अनेकों बार यशोधरा किशने के कोप का भाजन बनती।
वक्त अपनी रफ्तार से चलता रहा और उसकी तीनों बेटियां ब्याह के अपने-अपने घर चली गई और बहू ने आकर घर संभाल लिया और ऐसा संभाला कि दोनों बुजुर्गों अब उसे अपनी आंखों में खटकते थे। रोज का झगड़ा यशोधरा कोल्हू के बैल की तरह काम करती फिर भी बहू की प्रताड़ना से बच नहीं पाती थी।
एक दिन झगड़ा इतना बढ़ा कि बेटा अपने बाप को कुल्हाड़ी से मारने तक गया लोगों ने बीच बचाव करके झगड़ा तो निपटा दिया लेकिन उस शाम किशना जो घर से गया वापस नहीं आया।
यशोधरा की दुनिया सूनी हो गई। भले ही किशने ने उसे सारी उम्र दुःख ही दिए थे मगर वह उसके सिर की छाया था स्वयं चाहे जितना भी लड़ता मगर किसी दूसरे को यशी को कुछ ना कहने देता,उसके लिए लड़ बैठता था। यशोधरा को बुढ़ापे में यह दुःख देखना भी बाकी था। वह जब भी किसी पड़ोसन से बात करती उसकी आंखें भर आती, ‘मुझे अपनी चिंता नहीं…..
पता नहीं किस हाल में होंगे…. जब गए थे ना हाथ में कोई पैसा था…. ना ओड़ने को कोई कंबल…. अरे! जाना ही तो था तो मुझे भी साथ ले जाते….. मुझे क्यों यहां छोड़ गए…….?”कहते कहते आंखों से अश्रुधारा फूट पड़ती।
जब एक बार दु:खों के तार छिड़ते तो सारा अतीत उसकी आंखों के सामने आकर खड़ा हो जाता। ब्याही आई के पैर सास ने कभी लगने ही न दिए। दिन भर चूल्हा चौंका करने के बावजूद भी उसका हृदय तानों से छलनी किए रहती। वह मायके जाकर अपना दुःख रोती तो मां कहती, “ना ना ! घर ना छोड़ना….
वही घर तेरा अपना है….. देर सवेर….. तेरा राज चलेगा…।” भोली भाली यशोधरा यकीन कर बैठती और आश्वस्त होकर फिर उसी नर्क में लौट आती।
उसकी किस्मत ने भी उसके साथ जम के बैर निभाया। लड़के की आस में तीन लड़कियां उसकी झोली में डाल दी। कौन सा ऐसा ईश्वर का दर थी जिस पर उसने माथा नहीं रगड़ा कि ईश्वर उसे एक बेटा दे दे। कदाचित उसकी किस्मत में ईश्वर सुख लिखना भूल ही गया था।
ईश्वर ने तरसा-तरसा के उसे बेटा तो जरूर दिया पर बेटे का सुख नहीं दिया।जब उसके हुक्म चलाने का समय आया तो उसकी सास की जगह उसकी बहू ने ले ली। यशोधरा की हालत तो ढाक के वही तीन पात जैसी बनी रही।
नित के झगड़ों से उसकी ‘अपने घर’ की उम्मीद बिल्कुल जाती रही। काम निपटाती और अपने कमरे में चली जाती किशने के जाने के बाद तो अब उसका किसी भी काम में मन ना लगता।अकेले में बहुत रोती। लगभग एक वर्ष बाद अचानक किशना घर वापस आ गया। सफेद धोती कुर्ता, निरोई सेहत,चेहरे पर ऐसा रोब जो किसी धनी व्यक्ति के होता है।
खबर जंगल की आग की तरह पूरे गांव में फैल गई ….”किशना आ गया… किशना आ गया….!” यशोधरा के तो जैसे भाग खुल गए। शर्म के मारे मुंह से तो कुछ ना कहती पर इतनी तेज भी नहीं थी कि अपने अंदर की खुशी को छिपा लेती। किशने के आने की खुशी उसके चेहरे से झलकती थी।
किशना अपने साथ बहुत कुछ लाया था पता नहीं क्या कोई खजाना उसके हाथ लग गया था।महीने दो महीने आनंद में बीते।पैसे की तो बात ही निराली है, वही बूटा कल जो कुल्हाड़ी लेकर किशने के पीछे दौड़ा था आज वही उसके पैर दबाता फिरता।
जहां रिश्ते स्वार्थ पर टिके हों ज्यादा देर निभते नहीं हैं। एक रात बाप बेटे में फिर कहा सुनी हुई। किशने ने कहा, “यशी! चल अपने घर….. यहां नहीं रहना…अब!” किशन की आंखों में क्रोध के साथ-साथ अश्रु भी थे। “कौन सा घर है……?” यशोधरा ने डरते डरते कहा, “तू अपने कपड़े बांध….कल निकलना है……!” किशने ने दृढ़ता के साथ कहा।
ज्यादा सवाल जवाब वह करती नहीं थी। हुक्म उदूली करना उसके निश्चल स्वभाव में नहीं था। अनगिनत प्रश्न मन में लिए अपने कपड़े बांधती रही। सुबह बिना किसी से कहे सुने दोनों रेलवे स्टेशन पहुंच गए।रास्ते भर एक दूसरे से कोई खास बातचीत नहीं की। उदयपुर के स्टेशन पर उतरे तो दो आदमी कार लेकर उन्हें लेने आए।
“प्रणाम बाबा ! प्रणाम माताजी..!” दोनों आदमियों ने एक-एक करके दोनों बुजुर्गों के चरण स्पर्श किए।भोईयों की पचोली पहुंच कर कार एक घर के सामने जाकर रुकी।यशोधरा हैरान होती हुई कार से उतरी। बड़ा सा लोहे का गेट,फूलों की बेलों से ढकी दीवारें। उसने अंदर प्रवेश किया तो अनार,अमरुद कितने ही फलदार वृक्ष आंगन में दीवारों के साथ-साथ लगे थे।
सामने दो कमरे, आगे बरामदा, रसोई… भरा पूरा घर था।यशोधरा को लगा जैसे वह कोई सपना देख रही है। “ले….? तेरा अपना घर …….बस तेरी ही कमी थी…… संभाल इसे……।” किशने ने अचंभित यशोधरा की आंखों में आंखें डालकर कहा।
जीवन में जितने भी ज़ख्म मिले थे उन सब पर जैसे मरहम लग गई। भावुक होकर उसने सारे घर को निहारा जैसे उसे अपनी आंखों में भर लेना चाहती हो। सुकून की एक शीतल लहर उसके अंतरमन को छू गई, उसे लगा जैसे आज वह संपूर्ण हो गई हो, “अपना घर अपना होता है…….!” कहकर रो पड़ी। किशना नम आंखे किए उसी की चुन्नी से उसकी आंखें पोंछता रहा।
-रजनी भास्कर ‘नाम्या’
लौंगोवाल, पंजाब