अपना अस्तित्व – संगीता अग्रवाल

“कमला आज रागिनी की पसंद का खाना बनाना तुम!” राज अपनी घरेलू सहायिका से बोला।

” पर साहब मेमसाहब की पसंद क्या है ? आप बता दीजिये मुझे मुझे तो अभी चार दिन ही हुए आये मैं कैसे जानूँ !” कमला बोली।

” रागिनी को बैंगन आलू और पापड़ की सब्जी बहुत पसंद है तुम वही बनाना !” कुछ याद करते हुए राज बोला और फिर सोचने लगा कितना मजाक बनाता था वो रागिनी की पसंद का कि ये भी कोई पसंद करने वाली सब्जियाँ है ।

” क्या हुआ पापा कहाँ गुम हो ?” तभी वहाँ उसकी पंद्रह साल की बेटी रूही आ बोली

” कुछ नही बेटा मैं मम्मा को लेने अस्पताल जा रहा हूं तुमने सब तैयारी कर ली ना !” राज रूही से बोला।

” पापा आप फिक्र मत कीजिए हमने मम्मा के स्वागत की तैयारी कर रखी है सब!”  रूही बोली।

” स्वागत की तैयारी….अरे हां!” राज को जैसे कुछ याद आया और वो अपने कमरे की तरफ भागा। उसने वहां सबसे पहले रागिनी का सबसे पसंदीदा फोटो फ्रेम निकाल कर मेज पर रखा । कितने शौक से उसने अपनी और राज की फोटो को फ्रेम में लगवाया था पर राज को तो पता नहीं क्यों चिढ़ सी हो जाती थी रागिनी की हर कोशिश से … सोचते सोचते राज अतीत में चला गया।

” देखो राज हमारी शादी की सालगिरह का तोहफा!” शादी की दसवीं सालगिरह पर रागिनी ने राज को एक तोहफा देते हुए कहा।

” क्या रागिनी अब इन चोंचलों को छोड़ो दो बच्चों की मां हो तुम उनकी तरफ ध्यान दो!” राज व्यंग्य से बोला।

” राज मैं उनकी मां हूं ये मैं बेहतर जानती हूं पर मैं एक पत्नी एक औरत भी हूं!” आंख में आंसू भर रागिनी ने कहा।

” ये कैसी फोटो लगवाई है तुमने फ्रेम में बच्चे देखे तो?” गिफ्ट खोलते ही राज भड़क गया।

” क्या खराबी इसमें हमारी शादी की शुरुआत की फोटो है और सिर्फ मैने तुम्हारे गले में बांह ही तो डाली है क्या खराबी है इसमें!” रागिनी बोली।

” कोई खराबी नहीं पर प्यार की नुमाइश मुझे पसंद नहीं!” ये बोल राज ने वो फ्रेम अलमारी में रख दिया।

” तुम्हे तो मेरा कुछ भी करना पसंद नहीं राज!” रागिनी तड़प कर खुद से बोल उठी।

हर वक़्त तिरस्कार ही तो किया है उसने रागिनी का। कभी उसकी पसंद को नहीं समझा या यूं कहो अपनी पसंद ही थोपता रहा उस पर। रागिनी तो एक अच्छी मां और पत्नी दोनों बन गई पर वो बच्चे होने के बाद सिर्फ बाप ही बना रहा बस।

बच्चे भी जैसे जैसे बड़े हो रहे थे वो भी रागिनी का तिरस्कार सा करने लगे थे उसकी देखा देख। उन्हे भी माँ की पसंद , उनकी खुशी से कोई मतलब ही नही था जैसे बस अपनी जरूरतों के वक़्त माँ की याद आती थी बाकी समय तो फोन , दोस्त और टीवी । कितनी चंचल थी रागिनी जिंदगी को भरपूर जीने वाली पर सबके द्वारा नज़रअंदाज़ होने पर धीरे धीरे उसकी चंचलता खतम हो गई और उसने गंभीरता की एक चादर ओढ़ । कभी बच्चो और पति मे उसकी जान बसती थी पर अब मानो वही पराये से हो गये । एक जिम्मेदारी समझ सबकी जरूरतें पूरी करती रही बस। रागिनी ने अपनी पसंद चाहे वो खाने की हो या पहनने की ऐसा लगता था किसी संदूक में रख दी ताला लगा कर। उसका अस्तित्व तो बस अब एक पत्नी , एक माँ तक सीमित था रागिनी तो वहाँ कही नही थी । 

तब भी कहा फर्क पड़ा राज को या बच्चों को सब खुद में मस्त थे। बिन ये जाने रागिनी निराशा के अन्धकार में डूब कैसे खुद को खोती जा रही है। अपनों के साथ रहते हुए भी वो पहचान नही पाती थी कि ये उसके अपने है भी या नही ।

राज को यही लगता था सब ठीक तो है सब कुछ दिया है उसने रागिनी को अच्छा घर , रुपए पैसे, जेवर नौकर चाकर सब का आराम। वो भूल गया था बीवी को इससे ज्यादा अपने पति का साथ चाहिए होता है। एक मां की खुशी जेवर पहनने में नहीं अपने बच्चों की बाहों का हार पहनने में है। 

होश तो तब आया जब एक दिन रागिनी बेहोश हो गई और डॉक्टर ने बताया वो अवसाद में चली गई है जिससे बाहर ना निकाला गया उसे तो वो अन्धकार में खो जाएगी।कमजोरी के कारण उसे अस्पताल में भरती करना पड़ा। रागिनी के अस्पताल जाते ही जैसे उसकी एहमियत नजर आईं राज और बच्चों को। घर बिखर गया रागिनी के ना रहने से तब बच्चों को भी एहसास हुआ उनकी मम्मा कितनी अकेली हैं सबके होते हुए भी।

“अगर रागिनी को कुछ हो गया तो सब बिखर जाएगा ।” उस दिन अस्पताल में उसे बेहोश देख राज के मन में ख्याल आया।

” नहीं रागिनी मैं तुम्हे कुछ नहीं होने दूंगा मेरी गलतियों की सजा तुम्हे नहीं पाने दूंगा मैं। तुम्हे वापिस आना होगा रागिनी मेरे लिए अपने बच्चों के लिए … मैं तुमसे वादा करता हूं तुम्हे कभी अकेला नहीं होने दूंगा अब बस तुम मुझे अकेला मत करो!” राज जैसे चीख उठा।

” पापा चलना नहीं है अस्पताल !” तभी उसके बेटे ऋतिक ने कहा तो वो अतीत से वर्तमान में आया।

” हां बेटा चलो!” राज बोला ।

रास्ते में उसने रागिनी की पसंद के रजनीगंधा के फूलों का बुके खरीदा जो रागिनी को बहुत पसंद था अपनी टेबल पर सजाना लेकिन राज को रजनीगंधा से चिढ़ थी इसलिए रागिनी ने ये शौक भी छोड़ दिया था अपना।

” रागिनी तुम्हारा तुम्हारे घर में स्वागत है!” राज ने घर आ रागिनी से कहा।

सब अपनी पसंद का देख रागिनी के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई। राज ने रजनीगंधा के फूलों का बुके उसी मेज पर रख दिया जहां उसने वो फोटो फ्रेम रखा था। आज रागिनी को ये घर अपना सा लग रहा था। आज वो अपनों को पहचान पा रही थी क्योकि उन लोगो ने उसे उसकी पहचान जो लौटा दी थी। बच्चे आकर मां से लिपट गए। रागिनी को मानो उसका संसार मिल गया। उसका अपना अस्तित्व मिल गया । 

सच में दोस्तों हम औरतें कितनी सी खुशी में खुश हो जाती है और भूल जाती है हर ग़म हर तिरस्कार।

लेकिन क्यों हर बार पुरुषों को औरत की कीमत उसको खोने के करीब जाकर पता लगती है  क्यों नहीं समझते वो पति और पत्नी जीवन की गाड़ी के वो पहिए हैं जिसमें संतुलन बनाने के लिए दोनों का बराबर होना जरूरी है। क्यो एक स्त्री अपनी खुशी अपनी पसंद भूल सिर्फ एक पत्नी एक माँ बनकर रह जाती है । 

मेरी सभी पत्नियों , सभी माओं से विनती है  जिंदगी बहुत छोटी है इसलिए अपनों के साथ रहते रहते अपनी भी पहचान बनाये रखे अपनों के शौक उनकी पसंद के साथ अपने शौक और पसंद भी जिंदा रखिये क्योकि जिंदगी कभी दुबारा नही मिलती और अपनी खुशी से जीने का हक सभी को है वरना ऐसा ना हो कल को सिर्फ पछतावा हाथ लगे आपको भी आपके अपनों को भी । 

आपकी दोस्त 

संगीता अग्रवाल

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