“देखा, सुधीर… वही लोग… जिनके लिए मैं कभी ‘कम पढ़ी-लिखी’, ‘कम हैसियत वाली’, ‘बस पापड़ बेलने वाली’ थी… आज मुझे ‘बड़ी दीदी’ कहकर ऐसे लिपट रहे थे, जैसे बरसों की ममता उमड़ आई हो।” गीली आँखों के साथ गौरी ने कमरे की दीवार पर टंगी अपने पति सुधीर की तस्वीर से कहा।
तस्वीर में सुधीर की मुस्कान वैसी ही थी—सीधी, शांत, जैसे कह रही हो कि गुस्सा भी कर लो, पर खुद को छोटा मत करना। गौरी ने आँचल से आँखें पोंछीं, फिर भी आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। बाहर ड्रॉइंग रूम में सगाई से लौटी नई बहू मीरा चुपचाप जूते समेट रही थी, और बेटा आदित्य फोन पर किसी को “हाँ-हाँ, माँ ठीक हैं” बोलकर कॉल काट रहा था।
सुबह फोन आया था।
“दीदी, जल्दी आ जाना… समय से। आपकी पोती की सगाई है। ड्राइवर भेज दूँ? और नई बहू को भी लेकर आना।” उधर से रंजना की आवाज़ थी—बड़े मीठेपन में लिपटी हुई।
गौरी ने फोन रखते समय मुस्कुराकर “ड्राइवर की जरूरत नहीं, हम खुद आ जाएंगे” कह तो दिया था, पर भीतर कहीं कुछ टूट गया था। वही रंजना… वही उसका पति चिरंजीव… जिन्होंने सालों तक उसके घर का रास्ता ऐसे भुला रखा था जैसे उसे जानना ही नहीं। आज अचानक “पोती” याद आ गई, “दीदी” याद आ गई, “अपना” याद आ गया।
गौरी ने शाम को सगाई में जाते वक्त बहुत कोशिश की थी कि चेहरे पर शिकन न आए। मीरा ने हल्की-सी बात कही थी, “मम्मी जी, अगर आपको अच्छा न लगे तो हम थोड़ी देर रहकर लौट आएँगे।”
गौरी ने बस इतना कहा था, “नहीं बेटा… जाना ज़रूरी है। रिश्तों के घर में कभी-कभी दरवाज़े बंद भी रखें, पर छत तो न गिरने दें।”
कार्यक्रम भव्य था—लाइटों की कतार, फूलों की सजावट, लाइव म्यूज़िक, मेहमानों का समुद्र। प्रवेश द्वार पर ही रंजना भागकर आई थी।
“दीदी! आ गईं आप! अरे वाह… ये आपकी नई बहू? कितनी सुंदर है… एकदम घर को रोशन कर दे!” कहते हुए उसने मीरा के हाथों पर हाथ फेरा, फिर गौरी के माथे पर हल्का-सा चुंबन रखने की कोशिश की। गौरी पीछे नहीं हटी, पर भीतर कहीं एक काँटा चुभ गया।
सगाई की रस्मों में गौरी को हर जगह “विशेष” बनाकर बैठाया गया। “दीदी आप ये रस्म करें… दीदी आप मंच पर आइए… दीदी आप आशीर्वाद दीजिए…” वही लोग, जो कभी उसे शादी-ब्याह में कोने में बैठाकर “जीजी नहीं आईं क्या?” कहकर तंज कसते थे, आज उसे आगे कर रहे थे।
गौरी ने सब देखा, सब सुना। जिन औरतों ने कभी कहा था, “पापड़ बेचकर कौन सा घर चलता है?” वही आज उसके गले में बाहें डालकर कह रही थीं, “दीदी आपकी मेहनत को सलाम है… आपने तो कमाल कर दिया!”
और चिरंजीव… वह तो जैसे कोई पुराना दोस्त बन गया था। बीच-बीच में आदित्य को अलग ले जाकर कह रहा था, “बेटा, बिज़नेस की कुछ बातें हैं… मुझे भी थोड़ा गाइड कर देना… आखिर हम एक ही खून हैं…”
गौरी को खून नहीं, यादें दिख रही थीं।
वो दिन… जब सुधीर जिंदा थे।
जब उनके पास बस एक छोटी-सी किराने की दुकान के पीछे पापड़ सुखाने की जगह थी।
जब गौरी रात में आटा गूँधती, सुबह पापड़ बेलती, और दोपहर में मोहल्ले की दुकानों पर दे आती।
जब रंजना ने उसके हाथों की तरफ देखकर कहा था, “दीदी, आप तो हर वक़्त आटे में सनी रहती हैं… कैसे लोग हैं, सुधीर भैया भी क्या मजबूरी में जी रहे हैं!”
और चिरंजीव ने हँसकर जोड़ा था, “बस दीदी, आप अपनी हैसियत में रहें… ज्यादा आगे मत बढ़ा करो, लोग बात बनाते हैं।”
हैसियत…
गौरी को वह शब्द आज भी चुभता था।
फिर वो भी दिन थे जब सुधीर बीमार पड़े। फेफड़ों की बीमारी, धीरे-धीरे कमजोर होते गए। गौरी ने अस्पतालों के चक्कर लगाए, इलाज कराया, फिर भी काम नहीं छोड़ा। आदित्य तब कॉलेज में था। घर चलाने के लिए गौरी ने कड़ी मेहनत की। उसी मेहनत से “गौरी गृहउद्योग” का नाम लोगों की जुबान पर आया। फिर एक दुकानदार ने कहा—“आपका स्वाद अलग है, इसे ब्रांड बनाइए।” गौरी ने हिम्मत की। धीरे-धीरे ऑर्डर बढ़े। पैकिंग हुई, लाइसेंस बने, छोटी फैक्ट्री लगी। पर उसी बीच सुधीर चले गए।
सुधीर की मौत के बाद…
जिस घर में तसल्ली देने के लिए लोग दौड़े, उसमें रंजना एक बार नहीं आई।
एक बार भी नहीं।
न कोई फोन, न कोई संदेश।
बस मोहल्ले में खबर घूमी कि “दीदी अब अकेली है… बेटा पढ़ रहा है… कौन संभालेगा?”
और गौरी ने संभाला। अपने आँसुओं को भी।
आज उसी गौरी के पास गाड़ियाँ थीं, आउटलेट थे, शहर में नाम था। और आज वही लोग मधुमक्खियों की तरह उसके आसपास भिनभिना रहे थे।
कार्यक्रम से लौटकर वह सीधे सुधीर की तस्वीर के सामने बैठ गई थी।
“देख रहे हो…?” उसने धीमे स्वर में कहा, “वक्त बदल गया है। पर इंसान का रंग… ये भी बदलता है, है ना?”
मीरा अंदर आई। उसने दरवाज़ा धीरे से बंद किया, फिर गौरी के पास बैठ गई।
“मम्मी जी… आपको बहुत बुरा लगा?” मीरा ने संकोच से पूछा।
गौरी ने तस्वीर से नजर हटाकर मीरा की तरफ देखा। “बुरा नहीं बेटा… दुख हुआ। क्योंकि अपमान का दर्द, तारीफ की मिठास से नहीं मिटता।”
मीरा ने धीरे से कहा, “पर आप चाहें तो… दूरी रख सकती हैं।”
गौरी हँसी। हँसी में दर्द था। “दूरी तो उन्होंने रखी थी सालों तक। आज पास आ रहे हैं, तो मुझे डर लग रहा है—कहीं मैं खुद को छोटा करके उनके सामने फिर झुक न जाऊँ।”
मीरा ने गौरी का हाथ पकड़ लिया। “आप झुकेंगी नहीं। आपने इतना सब खड़ा किया है… आप बस अपनी मर्यादा बचाइए।”
गौरी के भीतर कहीं एक सुकून की लहर दौड़ी। वह सोचने लगी—कितना अजीब है… बहू होकर भी मीरा आज उसे बेटी जैसी लग रही थी। और अपने ही खून के रिश्ते… आज भी उसी पुराने स्वार्थ में रंगे थे।
उधर आदित्य कमरे में आया। “माँ… मामा जी का फोन था। कह रहे थे कल आकर आपसे मिलेंगे।”
गौरी की पलकें ठिठक गईं। “किसलिए?”
आदित्य ने झिझककर कहा, “बिज़नेस में पार्टनरशिप की बात… और… शायद वो चाहते हैं कि आप उनकी बेटी की शादी में… कुछ मदद…”
गौरी ने सांस छोड़ी। “यानी असली बात यही थी।”
मीरा ने आदित्य की तरफ देखा। “भैया… अब आप समझे? आज जो मिठास थी, वो किस चीज़ की थी।”
आदित्य कुछ नहीं बोला। शायद आज पहली बार उसे भी ये सच साफ दिखाई दे रहा था।
अगली दोपहर रंजना और चिरंजीव सच में आ गए। मिठाई, फल, महंगी शॉल… सब लेकर। रंजना ने आते ही कहा, “दीदी… आपकी तबीयत तो ठीक है ना? हम तो आपके बिना अधूरे हैं!”
गौरी ने पानी का गिलास आगे बढ़ाया। “बैठो।”
चिरंजीव ने बिना भूमिका के कहना शुरू कर दिया। “दीदी, बात ये है कि हमारी हालत थोड़ी… आप तो समझती हैं… लड़की की शादी है… और आप हमारे लिए… हमेशा बड़ी रही हैं…”
गौरी ने उसकी आँखों में देखा। “मैं बड़ी हूँ… या मेरे पैसे बड़े हैं?”
रंजना के चेहरे का रंग बदल गया। “दीदी, आप भी ना… कैसी बातें करती हैं। हम तो अपना ही समझकर…”
गौरी ने बात काटी। “अपना समझकर तुमने सुधीर के जाने पर एक बार भी दरवाज़ा नहीं खटखटाया था। अपना समझकर तुमने मेरे हाथों की मेहनत को मज़ाक बनाया था। अपना समझकर तुमने मेरी हर रस्म किसी और से करवा दी थी, और मुझे पीछे खड़ा कर दिया था।”
कमरे में सन्नाटा फैल गया। आदित्य और मीरा भी वहीं थे। गौरी का स्वर न ऊँचा था, न रूखा—बस सच था।
चिरंजीव ने धीरे से कहा, “दीदी… तब हम नादान थे… गलती हो गई…”
गौरी ने गहरी सांस ली। “गलती तब होती है, जब किसी को बिना जाने चोट लग जाए। तुम्हारी बातें तो सोचकर बोली गई थीं। खैर… मैं बदला लेने नहीं बैठी हूँ।”
रंजना की आँखों में चमक आ गई। “तो… दीदी… आप मदद…”
गौरी ने हाथ उठाकर उसे रोक दिया। “मदद करूँगी। पर एक शर्त पर।”
“शर्त?” चिरंजीव चौंक गया।
“हाँ। शादी में मैं ‘दान’ नहीं करूँगी। मैं अपनी हैसियत दिखाने नहीं आऊँगी। मैं बस रिश्तेदारी निभाने आऊँगी। जितना जरूरी है, उतना ही करूँगी। और इसके बाद… अगर तुम्हें रिश्ता रखना है, तो पैसे के लिए नहीं—इंसान के लिए रखना होगा।”
रंजना ने होंठ भींचे। शायद उसे यह उम्मीद नहीं थी कि गौरी इतनी साफ बोल जाएगी।
गौरी आगे बोली, “और एक बात… अब मेरे घर में इज्जत का तराजू पैसे से नहीं तौला जाएगा। तुम आओ, चाय पियो, हाल-चाल पूछो… पर लेन-देन की भाषा मत लाना।”
चिरंजीव ने सिर झुका लिया। “समझ गए, दीदी।”
वे लोग चले गए, पर कमरे में हवा हल्की हो गई थी। जैसे किसी ने वर्षों से बंद खिड़की खोल दी हो।
आदित्य ने माँ के पास आकर कहा, “माँ… आपने उन्हें माफ कर दिया?”
गौरी ने सुधीर की तस्वीर की ओर देखा। “माफी और भरोसा अलग चीज़ें हैं बेटा। माफ करना जरूरी है, ताकि मेरे भीतर का जहर खत्म हो। पर भरोसा… वो धीरे-धीरे कमाया जाता है।”
मीरा ने मुस्कुराकर कहा, “आज आपने अपना सम्मान भी बचाया, और रिश्ता भी।”
गौरी की आँखों में फिर आँसू आ गए, पर इस बार वे भारी नहीं थे। उसने तस्वीर से कहा, “देखा, सुधीर… पैसा सच में बोलता है… पर आज मैंने बोलने दिया अपने आत्मसम्मान को। इज्जत अगर आएगी तो इंसानियत से आएगी, नहीं तो… ऐसी इज्जत का क्या करना, जो नोटों की जेब में रखी हो।”
रात को वह देर तक नहीं रोई। बस बैठकर अपनी पुरानी यादों की धूल झाड़ती रही—और मन ही मन तय करती रही कि अब किसी भी रिश्ते को वह “दिखावे” के दम पर नहीं चलने देगी।
अगले दिन सुबह जब वह किचन में चाय बना रही थी, मीरा ने पीछे से आकर कहा, “मम्मी जी… आज आपकी आवाज़ में एक अलग मजबूती है।”
गौरी ने चाय का कप आगे बढ़ाते हुए कहा, “क्योंकि आज समझ आया बेटा… वक्त बदले तो लोग बदल जाते हैं, पर अगर हम खुद न बदलें—अपने मूल्यों से, अपने आत्मसम्मान से—तो किसी का बदलना हमें तोड़ नहीं सकता।”
और दीवार पर टंगी सुधीर की तस्वीर… जैसे और भी उजली मुस्कान के साथ उसे देख रही थी।
लेखिका : गरिमा चौधरी