अपनों से तो गैर भले – रश्मि झा मिश्रा 

“…इस बार सोचती हूं, मां पापा की एनिवर्सरी में उन्हें सरप्राइज दिया जाए… वैसे भी उनके नए घर में मुझे रहने का मौका नहीं मिला है… इसी बहाने चार दिन रह भी लूंगी उनके साथ… ठीक है ना रजत…!”

“… जो तुम्हें ठीक लगे… देख लो… टिकट कर लेना, या फिर मुझे बता देना…!”

 बात पक्की हो गई… अंतरा दोनों बच्चों के साथ, अपने मां पिताजी के घर नियत समय पर पहुंच गई…

 शाम का वक्त था… अंतरा ने एक छोटा सा केक भी साथ में ले लिया था… बड़ी सी बिल्डिंग में दूसरे फ्लोर पर उमा जी और नागर जी ने फ्लैट ले लिया था… रिटायरमेंट के बाद… 

अंतरा इससे पहले बस एक बार आई थी… एक दिन के लिए… शिफ्टिंग के टाइम… उसके बाद से कभी मौका ही नहीं मिला था… दो साल हो गए थे उन्हें यहां रहते… फोन पर बात हो जाती थी… बस यूं ही चल रहा था…

 अंतरा जब आई तब दरवाजा खुला हुआ था… वह देखकर हैरान हो गई, भीतर टेबल पर एक बड़ा सा केक डबल स्टोरेज रखा हुआ था… पूरे घर में चहल-पहल थी… तीन-चार बुजुर्ग महिलाएं, दो-तीन नई उम्र की महिलाएं… कुछ बच्चे और साथ ही कुछ वृद्ध और नौजवान भी… सभी इधर-उधर बैठकर बातें करने में… खाने वगैरह का इंतजाम करने में मिलजुल कर लगे हुए थे…

 उमा जी बिल्कुल सजी संवरी तैयार होकर बैठी हुई थीं… नागर जी ने भी मस्त कुर्ता, साथ में अंदाज से धोती बांधी हुई थी… उन्हें खास अवसरों पर धोती पहनना शुरू से ही पसंद रहा था…

 अंतरा उन्हें सरप्राइज देने आई थी… यहां तो अंदर घुसते ही उसे सरप्राइज मिल गया… वह आश्चर्य से सारे इंतजाम देख रही थी…

 उमा जी ने बेटी को देखते ही गले से लगा लिया… उन लोगों की खुशी तो कई गुना बढ़ गई… सब इतने जोश में थे कि अंतरा से कुछ पूछते नहीं बना… लेकिन उसका चेहरा देखकर मां ने उसके मन की हलचल भांप ली… धीरे से बोलीं…

” मुझे भी कुछ पता नहीं था बेटा… नहीं तो तुम्हें बताती नहीं क्या… इन लोगों ने ही सब प्लान किया… खाना, केक सब यही लोग बना कर ले आए…!”

 अच्छे से पार्टी सेलिब्रेट हुई… अंतरा ने अपना केक बाहर भी नहीं निकाला… रात को सबके चले जाने के बाद, उसने वापस अपना केक निकाला और मां पापा से कटवाया… दोनों चुप रहे, उन्हें बेटी का स्वभाव पता था…

 अंतरा ने उमा जी से कह दिया…” मां प्लीज… जब तक हम लोग हैं, तुम लोगों का पूरा समय और ध्यान हमें चाहिए… अपने पड़ोसियों को तुम बाद में देखते रहना… यहां मैं किसी को जानती नहीं… बहुत बेगाना सा लगता है… कोई रिश्तेदार तो हैं नहीं, की निभाना जरूरी है… मेरे जाने के बाद तुम जैसे मन वैसे रहो…!”

 उसके बाद जब भी कोई आता, उमा जी कुछ ना कुछ बहाना बनाकर उन्हें बाहर से ही विदा कर देतीं… जब तक चार-पांच दिन अंतरा रही… उमा जी और नागर जी ने उसकी पसंद, नापसंद, सुविधा का पूरा ध्यान रखा… फिर अंतरा खुशी-खुशी विदा लेकर चली गई…

 इधर कई दिनों से पड़ोसियों को अनदेखा करने के कारण वे भी थोड़ा कट से गए थे… उमा जी सबके जाने के बाद बीमार पड़ गईं… दो-चार दिनों तक तो नागर जी ने संभाला… लेकिन फिर बीमार की सेवा करते-करते हुए खुद भी बीमार पड़ गए… अब एक दिन ऐसा था कि दोनों ही बिस्तर पकड़े थे… पानी देने वाला भी कोई नहीं था…

 अंतरा बार-बार फोन करके परेशान थी…” क्या करूं मां… मैं आ जाऊं, या भैया को बुला लो…!”

” नहीं… ठीक हो जाएगा… तुम चिंता मत करो…!”

 आखिर अंतरा ने ही पड़ोस की आंटी को फोन लगाया… एक बार पता लगने भर की देर थी… सभी आस पड़ोस के लोग, पूरे ध्यान से उनकी मदद करने में लग गए… कुछ ही दिनों में उमा जी फिर से फिट हो गईं… अब जाकर अंतरा को अपनी गलती का एहसास हुआ… उसने मां को फोन लगाकर अपने व्यवहार के लिए माफी मांगी…

” मां सच ही कहा है… अपनों से तो गैर भले… अपने भला दुख तकलीफ में कहां साथ दे पाते हैं… हम जैसी परिस्थिति में भी रहें, अगर पास पड़ोस से बनी रहे, तो वही काम आते हैं…!”

 अगली बार अंतरा आई तो छोटा सा केक लेकर नहीं… ढेर सारी मिठाइयां, चॉकलेट और केक लेकर… अब उसका परिवार केवल मां पापा ही नहीं थे… इस बार उसे सभी नए पड़ोसियों से मिलना था… उन्हें भी अपना बनाना था……

रश्मि झा मिश्रा 

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