अपनों की पहचान -सुनीता वर्मा

आठ बज चुके थे |दुकान बंद करने का समय हो चुका था , इसलिए ‘एरा कॉर्नर’बुटीक का

शटर गिरा कर कनु जैसे ही सीढ़ियों से नीचे उतरी ,सामने के मेडिकल स्टोर पर उसे एक

परिचित चेहरा दिखा |नाम स्मरण आते ही उसकी आँखें खुशी से चमकने लगीं |जल्दी

–जल्दी सड़क पार कर उसने नजदीक पहुँच उन्हें चौंका ही दिया –“वहीद भाई”… नाम

सुनकर वहीद पलट पड़ा –“अरे कनु ,तुम यहाँ कैसे”?

“अरे ,वही तो मैं आपसे पूछ रही हूँ |आप यहाँ कैसे ?मेरा तो शहर ही यही है ,भूल गए

क्या”?

“वो तो मैं नहीं भूला हूँ , लेकिन इस जगह पर कैसे ,वो भी इस वक्त”?

वहीद ने कलाई घड़ी पर नज़र डालते हुए फिर वही प्रश्न दोहराया |

“ओह ,हाँ … मैंने यहाँ अपना एक बुटीक खोला है |अच्छा खासा चल निकला है”|

कनु ने सड़क पार अपने बुटीक की ओर इशारा करते हुए कहा |कुछ रुक कर उसने वहीद

की ओर फिर अपना प्रश्न उछाला-“लेकिन भाई जान ,आप बताइये ,आप यहाँ कैसे ?घर पर

कौन –कौन है”?

“मेरा ट्रांसफर यहीं हो गया है |शाहीन ,मेरी पत्नी की तबीयत कुछ ठीक नहीं चल रही है

आजकल ,सो …..”चलते –चलते वहीद ने अपने बारे में बताया |

“अच्छा ,कहाँ घर लिया है आपने |अपना पता दीजिये ,कल ही पहुँचती हूँ |

“अरे ,कल क्यों ,आज चलो न अभी”|वहीद न आग्रह किया |

“नहीं ,नहीं..आज तो देर हो गयी है ,माँ इंतज़ार कर रही होंगी |और आपसे भी नहीं कहूँगी

चलने को ,क्योंकि भाभी बीमार हैं |अपना पता दे दीजिये ,मैं कल ही आऊँगी माँ के

साथ”|वहीद से पता लेकर कनु ने रिक्शा तय कर लिया |

वहीद भाई से इतने वर्षों बाद हुई मुलाक़ात से कनु बेहद प्रसन्न हो उठी थी |उसका मन हो

रहा था कि कब वह घर पहुंचे और सबको यह खबर दे |उन कुछ मिनटों के सफर में

पिछले दस पंद्रह वर्षों की सारी यादें उसके आगे साकार हो उठीं |करीब पंद्रह वर्ष पहले यह

मुस्लिम परिवार उसके यहाँ किराए पर रहता था |वहीद उनका इकलौता पुत्र था | लोगों के

लाख मना करने के बावजूद ,कि हिन्दू के घर में मुस्लिम लोगों का रहना ठीक नहीं ,कनु

के पिता ने बिना ध्यान दिये उन लोगों को किराए पर मकान दे दिया | कई वर्षों तक दोनों

परिवारों में मित्रतापूर्ण व्यवहार भी चलता रहा |फिर आबिद अंकल का ट्रांसफर सहारनपुर हो

गया ,तो काफी अरसे तक कोई एक दूसरे की खबर तक नहीं ले सका |दो –ढाई वर्ष पहले

वहीद किसी मित्र की शादी में यहाँ आया था ,तभी सबसे मिलने घर भी आया था |बस

उसके बाद उसे आज ही देखा ,और इसी शहर में रहने की बात सुन कर तो कनु बेहद खुश

हो उठी थी|घर पहुँचते ही उसने माँ और पिताजी को चहकते हुए बताया –“जानती हो माँ

,आज वहीद भाई मिले थे |यहीं आ गए हैं ,और शादी भी हो गयी है |”

“सच ,कहाँ रह रहा है वो ?घर क्यों नहीं बुला लायी ?”

माँ और पिताजी भी प्रसन्न हो उठे|वहीद से उन्हें अपने बेटे जैसा स्नेह था |

“पता ले लिया है |कल चलूँगी तुम्हारे साथ |अच्छी खबर लूँगी जनाब भाईजान की |

यहीं रह रहे हैं और हमें बताया तक नही |भाभी की तबीयत ठीक नहीं है” –कनु ने अपना

रोष व्यक्त किया |

दूसरे दिन सुबह ही कनु माँ व पिताजी के साथ वहीद के घर पहुँच गयी |वहीद ने अपनी

पत्नी से उन लोगों का परिचय कराया |शाहीन बीमारी की वजह से बेहद कमजोर लग रही

थी |उसने हिन्दू तरीके से उन्हें नमस्ते कर माँ और पिताजी के चरण स्पर्श किए |दोनों

भावविभोर हो उठे |माँ ने गले लगाकर ढेर सारे आशीर्वचनों से लाद दिया |

शाहीन जितनी सुंदर थी,उतने ही सुंदर स्वभाव वाली थी |कमजोरी के बावजूद वह उठकर

उन लोगों के लिए चाय बनाने चली |किन्तु कनु ने उसे प्यार से वहीं बैठा दिया–“कोई

जरूरत नहीं है भाभी आपको उठने की |आप यहींबैठिए ,वहीद भाई ,आप मुझे रसोई बता

दीजिये |चाय मैं बनाती हूँ|”

शाहीन को इतना अपनापन पाकर बहुत अच्छा लग रहा था |

कनु के रसोई में जाते ही माँ ने वहीद से कहा –“बेटा वहीद ,तुम हम लोगों को गैर समझते

हो क्या ,जो यहाँ मकान किराये पर लेकर रह रहे हो |कनु तो कल घर पर बहुत नाराज़ हो

रही थी |”

“नहीं आंटी ,ऐसी कोई बात नहीं है |वो तो इत्तफाक से यह घर आसानी से मिल गया तो

…और शाहीन की तबीयत ठीक होते ही मैं उसे लेकर खुद आप लोगों से मिलने आने वाला

था “-वहीद ने बेहद संकोच से कहा |

“नहीं ,नहीं ,यह सब नहीं चलेगा |अपनी पैकिंग कर लो ,और उधर ही चलकर रहो” –पिताजी

ने अधिकारपूर्ण शब्दों में कहा |

“फिर बहू की तबीयत भी तो ठीक नहीं है ,यहाँ कौन देखेगा “-माँ का स्नेह छलक पड़ा |

“अरे ,वो शाहीन ने अपनी माँ को बुलाया है ,वो आ जाएंगी तो ॥“

नहीं ,उनको परेशान मत करो ,इतनी दूर से उनको आना पड़ेगा ,हम लोग हैं न ,सब ठीक

हो जाएगा “

शाहीन सिर झुकाये इस स्नेह निर्झर की एक –एक शीतल बूंद से आनंद विभोर हो रही थी

|इस समय वह अपने आपको उन सबसे सौभाग्यवती स्त्रियों में गिन रही थी ,जिनकी

किस्मत में प्यार और अपनेपन की अनूठी सम्पदा भरी पड़ी थी |उसने मुसकुराते हुए

विवशता जाहिर की …”दरअसल यह मकान इनके मित्र का है ,जो यहाँ नहीं रहता ,उसने

इसीलिए यह मकान हमें दिया है कि मकान की देखभाल होती रहेगी |”

“चलो ,ठीक है, लेकिन जब तक शाहीन की तबीयत संभल नहीं जाती ,तुम लोग मेरे साथ

वहीं रहोगे |”पिताजी ने आखिरी हुक्म देकर बात वहीं रोक दी |

“हाँ पिताजी ,आपने बिलकुल सही फैसला किया |”कमरे में आती कनु ने भी हँसकर समर्थन

किया |अंततः वहीद और शाहीन को उनकी बात रखनी ही पड़ी |हफ्ते भर वे दोनों वहीं रहे

|उन लोगों के सहज स्नेह और सेवा से शाहीन जल्दी ही स्वस्थ हो गयी |उसे तो लग ही

नहीं रहा था वह अपने परिवार से दूर गैर जाति के लोगों के बीच रहा रही है |सच में सहज

प्रेम व वात्सल्य के बीच में संस्कृति व धर्म की भिन्नता तो मायने ही नहीं रखती |कनु के

चंचल मुसकुराते चेहरे में उसे अपनी बहन की झलक मिलती और माँ व पिताजी का प्यार

उसे अपने माँ –बाप के असीम स्नेह की यादों में डुबा जाता |

वहीद उसे अक्सर बचपन की बातें बताता था |ईद और होली जैसे त्योहार दोनों परिवार एक

साथ मिलजुल कर इस तरह मनाते कि पता ही नहीं चलता था कि कौन हिन्दू है और कौन

मुस्लिम |रक्षाबंधन पर तो वहीद और कनु के भाई दोनों ही पहले राखी बँधवाने की जिद

करते ,और कनु दोनों के बीच परेशान हो उठती |साथ खेलना ,साथ पढ़ना ,साथ उठना

–बैठना ….. हर वक्त के साथ से कनु ,वहीद और रवि में सगे भाई –बहनों जैसा ही स्नेह

उपज आया था |वहीद रवि से अधिक ही कनु को स्नेह देता था दूसरे शहर जात समय

वहीद और कनु खूब रोये |पड़ोसी और रिश्तेदार तक दोनों परिवारों की मित्रता की मिसाल

देते |उन्हें देखकर शाहेन को भी वहीद की बातों का विश्वास हो चला |

एक दिन बातों –बातों में वहीद ने रवि कक जिक्र छेड़ दिया –“रवि क्या बिलकुल नहीं आ

पाता ?” वहीद को पता था कि रवि के मामा आयरलैंड में रहते हैं और उन्होनें ही रवि

की पढ़ाई पूरी होते ही उसे वहीं एक अच्छी कंपनी में अच्छी तंख्वाह पर नौकरी दिला दी

थी |

“हाँ बेटा, आना न आना तो बराबर ही है |दो –तीन साल मे एक बार ही आता है तो दो एक

दिन हमारे साथ भी बिता लेता है |बाकी समय तो और लोगों से ही मिलने –मिलाने मे

निकल जाता है”…गहरी सांस के बीच माँ का दुख छिपा नहीं रह सका |

“अरे माँ ,साफ क्यों नहीं बताती कि भाई अब पहले जैसे नहीं रहे |और जब से शादी कर

ली है तब से तो …..”

“और तू कब भाग रही है यहाँ से …वहीद न कनु को चिढ़ाते हुए बोझिल होते वातावरण को

सरस बनाने का प्रयत्न किया |

“तुम्ही देखो न इसके लिए कोई लड़का ,तुम्हारे चाचा जी तो जल्दी कहीं जा नहीं पाते |”

“तो ठीक है ,यह जिम्मा मेरा रहा |”वहीद ने हँसकर मानों माँ के मन का बोझ ही हल्का

कर दिया |

पाँच –छह दिन बाद राखी का त्योहार पड़ा तो सुबह–सुबह वहीद और शाहीन को आया देख

कर कनु खिल उठी|आज तो पूरी जेब ही साफ कर दूँगी भाईजान की”शरारतपूर्ण शब्दों में

उसने कहा तो “चल ,पहले राखी तो बांध “कहकर वहीद ने कलाई आगे बढ़ा दी|शाहीन ने

झट से एक बड़ा सा पैकेट कनु के आगे रख दिया |“यह क्या है ?उसने कौतुक से पूछा

“खोल कर देखो तो सही” वहीद मुस्कुराया |पैकेट खोलते ही बेहद कीमती ,झिलमिलाती

रेशम की साड़ी ने अपनी चमक बिखेर दी |“इतनी कीमती साड़ी “ कनु सकुचा गयी |

“क्यों,अभी तो जेब साफ कर रही थी …वहीद हंस पड़ा |

“इसे शाम को पहन कर तैयार रहिएगा ,एक खास मेहमान आने वाले हैं”शाहीन कनु के

कान में फुसफुसाई |कनु को याद आया,कल ही तो वहीद भाई नेपिताजी से किसी का जिक्र

किया था |लड़का वहीद का मित्र था और उसी के औफिस मे अच्छी पोस्ट पर काम कर रहा

था |फिर सबसे अच्छी बात ये थी कि वह हिन्दू था और वहीद के घर पर उसने कनु को

देखा था और पसंद भी कर लिया|आज अपने माता –पिता के साथ वह कनु का हाथ मांगने

उनके घर आ रहा था|उसे बरबस रवि की याद हो आयी |माँ –बाप और बहन के प्रति भी

कोई फर्ज़ होता है ,यह बात वह शायद विदेशी जीवन की चमक –दमक में ही भूल गया था

|दूर देश पहुँच कर तो वह और भी दूर हो गया था |आज रक्त के रिश्तों से कहीं अधिक ये

कच्चे धागों व प्रेम के रिश्ते बलवान हो उठे थे |वहीद ने रिश्तों को सही अर्थ दिया था

|अपनों की पहचान ऐसे समय ही तो होती है |

“कहाँ खो गयी कनु” शाहीन शरारत से मुसकुराई |”कहीं नहीं”कनु शर्मा कर अंदर भाग

गयी |

“अपनों की पहचान” विषय पर एक स्वरचित कहानी

   सुनीता वर्मा

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