प्लेटफ़ॉर्म नंबर 2 पर बारिश की ठंडी बूंदें लगातार गिर रही थीं। बूढ़ी महिला ट्रेन के एसी कम्पार्टमेंट से उतर, इधर-उधर घबराई सी अपने बेटे का इंतजार कर रही थी। उन्हें देख कर ही पता चल रहा था कि वे किसी सम्पन्न परिवार से संबंधित हैं।
“माँ जी, आपका सामान उठा दूँ?” नंदू कुली ने उनके पास आकर पूछा।
“नहीं! मेरा बेटा आने ही वाला है,” उन्होंने दृढ़ता से कहा और फिर से नज़रें इधर उधर बेटे को देखने लगीं।
नंदू ने सिर हिलाया और दूसरी सवारी का सामान लेकर स्टेशन से बाहर चला गया।
काफी देर होने पर भी वो महिला अकेली ही खड़ी रही। “बेटे ने कहा था, समय पर आ जाऊँगा… पर क्यों नहीं आया।” मन में बुरे ख्याल उभरने लगे। “कहीं… कहीं मेरे मोनू ने जानबूझ कर…?” वह खुद से पूछतीं, फिर तुरंत खुद को रोकतीं, “नहीं, मेरा बेटा ऐसा नहीं कर सकता। मोनू मुझसे बेहद प्यार करता है।”
तीन-चार घंटे बीत गए। रात गहराने लगी थी। प्लेटफ़ॉर्म पर रोशनी थोड़ी धुंधली हो चली थी। तभी नंदू घर जाने के लिए प्लेटफ़ॉर्म से गुजरा और उनकी नजरें मिलीं।
“अरे माँ जी! आप अभी भी इधर हैं। आपका बेटा नहीं आया?”
महिला की आँखों में रोशनी की जगह डर और थकान झलक रही थी। मानो यकीन ही न कर पा रही हों कि उनका बेटा उन्हें लेने नहीं आया।
नंदू ने तुरंत कहा, “अम्मा जी, आप मेरे घर चलिए। सुबह हम आपके बेटे का पता करेंगे।”
महिला हिचकिचाईं, लेकिन नंदू की प्यार भरे शब्द सुन उनके कदम उसके पीछे बढ़ चले । स्टेशन छोड़ने से पहले नंदू ने गुमशुदा तलाश केंद्र पर उनकी जानकारी दर्ज करवा दी।
घर पहुँचते ही नंदू ने उनके लिए चाय बनाई। बाहर की बारिश की आवाज़ और कमरे की खामोशी, दोनों ने ही महिला की चिंता को और बढ़ा दिया। नंदू ने धीरे पूछा, “माँ जी, आपके पास अपने बेटे का पता तो है न?”
महिला के हाँ कहने पर नंदू थोड़ा निश्चिंत हुआ, पर उसने शहर की दुनिया देखी थी। स्टेशन पर रोज़ कितनी माओं के बच्चे उन्हें छोड़ कर चले जाते थे, इसलिए उसे यह यकीन न था कि उनका एड्रेस सही ही होगा।
खाना खाकर दोनों सो गए, लेकिन महिला की नींद उधेड़बुन में चली गई। उनका मन बार-बार यही प्रार्थना करता कि उसका मोनू ठीक हो। वरना, मतलब ही नहीं कि वो उसे लेने स्टेशन न आए।
अगली सुबह, सूरज की पहली किरणें कमरे में आईं। वो महिला तो जैसे सुबह होने का ही इंतज़ार कर रहीं थीं।
नंदू ने उनका हाथ थामते हुए कहा, “माँ जी, चलिए, आज आपके बेटे का पता करते हैं।”
वे स्टेशन पहुँचे। भीड़ और बिखरी हुई चाय-बिक्री की दुकानों के बीच उनकी नजरें हर कोने में खोज रही थीं। महिला का दिल तेजी से धड़क रहा था। तभी प्लेटफ़ॉर्म के एक कोने में उन्होंने सूट बूट पहने, आकर्षक व्यक्तित्व वाला मोनू उर्फ़ शहर का नामी कारोबारी सेठ मोहन लाल दिखा । उसका चेहरा भीगा हुआ था, हाथ में छोटा सा बुके था। आँखों में प्यार और चिंता साफ़ झलक रही थी।
उसे देखते ही माँ जी उसकी तरफ दौड़ीं और उसे गले लगा लिया।
“बेटा! आखिर तुम कहाँ रह गए थे। “
मोनू भी परेशान और शर्मिंदा था। “माँ, मुझे माफ़ कर दो, मैं बारिश और ट्रैफिक में फंस गया था। जब मैं इधर पहुंचा, बहुत रात हो गयी थी। मैं तो सारी उम्मीदें खो ही चुका था, वो तो भगवान का भला हो कि गुमशुदा तलाश केंद्र पर तुम्हारी लिखवाई खबर मिल गयी और मैं यही इंतज़ार करने लगा ।”
पूरी बात सुन, नंदू मुस्कुराया। उसके दिल में सकून था कि जो उसने सोचा था वो गलत निकला और वो एक माँ को उसके बेटे से मिलवा पाया।
मोनू ने नंदू की ओर देखा और पूछा—”माँ, यह कौन है?”
माँ जी ने नंदू के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा—
“मेरा दूसरा बेटा… और भगवान का भेजा फरिश्ता।”
नंदू की आँखें भर आईं। मोनू समझ गया—अपनों की पहचान सिर्फ रिश्तों से नहीं, बल्कि दिल की भावनाओं से होती है।
मोनू ने नंदू से हाथ मिलाया और बोला, “भाई, आज से तुम कुली नहीं रहोगे। मेरे दफ़्तर में आओगे। मेहनती और ईमानदार लोगों की मुझे हमेशा ज़रूरत रहती है।”
नंदू अवाक रह गया। उसकी आँखों में सपनों की चमक थी। माँ जी मुस्कुरा रही थीं—
उनके लिए यह केवल अपने बेटे से मिलन का पल नहीं था, बल्कि उस “फरिश्ते बेटे” की ज़िंदगी बदलने का अवसर भी था।
बारिश अब थम चुकी थी, आसमान साफ हो रहा था और स्टेशन की हलचल में एक नई शुरुआत का आभास था ।
माँ जी अपने बेटे का हाथ थामे जा रही थीं, और नंदू के दिल में यह विश्वास अंकुरित हो चुका था कि अब उसकी मेहनत और दयालुता को सच्चा फल मिल गया है।
अंजु गुप्ता ‘अक्षरा’