अपनत्व की छाँव – ज्योति आहूजा

सुजाता आज फिर रसोई में देर तक खड़ी रही।

गैस की आँच धीमी थी, पराठे सिक रहे थे, दाल पर तड़का लग रहा था, और बच्चों के डिब्बे सज रहे थे।

हर दिन की तरह सबकी जरूरतें पहले, अपनी आख़िरी।

कमरे में हँसी की आवाज़ें थीं, हलचल थी, पर उसके भीतर एक गहरा सन्नाटा था।

शाम को जब सब अपने-अपने कामों में लग गए,

वो बरामदे में आकर बैठ गई।

आसमान पर बादलों की परतें घिर आई थीं।

हवा में आने वाली बरसात की महक थी, और धूप में खड़ा बरगद का वृक्ष अब काले मेघों की छाँव में तृप्ति पा रहा था —

ठंडी पवन के झोंकों में झूमता हुआ, जैसे वह भी सुकून ले रहा हो।

सुजाता ने आँगन में सूख रहे कपड़े समेटे और कमरे में ले आई।

कपड़ों की तह करते हुए उसकी नज़र फिर उसी पेड़ पर ठहर गई।

वो मन-ही-मन सोचने लगी —

“क्या मुझे भी कभी ऐसी ही अपनत्व की छाँव नहीं मिलेगी?”

फिर उसने अपने मन से कहा —

“मेरे लिए अपनत्व की छाँव का अर्थ है कि परिवार के बाकी सदस्य शाखाएँ बनकर मुझे सहारा दें।

उस अपनत्व के वृक्ष के नीचे मैं भी बैठ सकूँ, और अपनी थकान मिटा सकूँ।”

पर कौन सी थकान?

वो सिर्फ शरीर की नहीं थी।

वो थी उन जिम्मेदारियों की थकान जो हर दिन उसके कंधों पर चढ़ती जाती थी —

सुबह सबसे पहले उठने की, सबसे बाद में सोने की,

सास के मन और बहू के मन को जोड़ने की,

बच्चों की हँसी और पति की शांति बचाए रखने की।

वो थकान थी हर उस मुस्कान की,

जो दर्द के ऊपर रखी जाती है।

हर उस चुप्पी की, जो शिकायत बनकर भी कभी ज़ुबान तक नहीं पहुँचती।

कभी-कभी उसे लगता,

अगर कोई बस इतना कह दे —

“अब तू थोड़ी देर हमारे अपनत्व की छाँव में बैठ जा,”

तो शायद उसके भीतर का सारा बोझ पिघल जाए।

उसने धीरे से अलमारी खोली और पुराना एलबम निकाला।

एक तस्वीर पर नज़र ठहर गई —

वो अपनी माँ की गोद में थी, बाल बिखरे हुए, माथे पर हल्का सा सिंदूर,

माँ की आँखों में स्नेह की गहराई झलक रही थी।

सुजाता की पलकों पर नमी उतर आई।

माँ कहा करती थी —

“थकान चाय से नहीं, बाँहों से उतरती है।

आजा, मैं तेरा सिर दबा दूँ,

तेरे केशों में तेल लगा दूँ…”

सुजाता वर्तमान में लौटी और हल्की सी मुस्कुराई —

पर उस मुस्कान के पीछे एक गहराई थी,

जैसे उसने खुद से एक अधूरा वादा कर लिया हो।

आज वो सोचती है —

कभी तो कोई उसकी बाँह रूपी शाखा बने,

जहाँ वो थोड़ी देर टिक सके,

जहाँ उसे शब्दों से नहीं,

अपनत्व से समझा जाए।

रात को जब सब पास बैठे थे,

उसने देखा — सबकी निगाहें मोबाइल की स्क्रीन पर थीं,

हर कोई अपनी ही दुनिया में खोया हुआ।

वो चुपचाप बोली —

“मुझे भी कभी-कभी तुम्हारी बाँहों का सहारा चाहिए।

मैं माँ हूँ, पर मैं इंसान भी हूँ।”

बेटी ने उसका हाथ थाम लिया,

बेटे ने सिर रख दिया उसकी गोद में,

और पति ने बिना कुछ कहे, बस उसके कंधे पर हाथ रख दिया।

उस पल घर के भीतर जैसे एक वृक्ष जीवंत हो उठा —

जिसकी जड़ सुजाता थी,

और शाखाएँ वही थीं जो उसे अपनत्व की छाँव दे रही थीं।

सुजाता ने आँखें मूँदीं।

पहली बार उसे लगा —

थकान मिटाने के लिए बहुत कुछ नहीं चाहिए,

बस किसी की बाँह रूपी शाखा और थोड़ी-सी अपनत्व की छाँव।

उसके हृदय से एक ही भाव उठ रहा था —

“खुशनसीब हैं वो लोग जिनके अपने उनके साथ हैं।

जीवन को नए आयाम तब मिलते हैं जब कोई आकर कहे —

‘हम सदा तेरे साथ हैं।’

उस व्यक्ति के लिए सम्पूर्ण आवाम जीत लेना भी वरदान बन जाता है।

बस बाँहों (अपनत्व) की छाँव ही काफ़ी है।”

बस बाहों ( अपनत्व)की छाँव ही काफ़ी है ।

प्यारे पाठको ये कहानी आपको पसंद आएगी ।

इसी उम्मीद में 

ज्योति आहूजा

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