मधुर और राइमा लगभग 25 सालों का दांपत्य जीवन साथ बिता चुके थे।
मगर पिछले कुछ समय से दोनों के बीच एक शीत युद्ध चल रहा है।
ऐसा नहीं था कि उनके बीच कभी कोई वाद-विवाद ना हुए हो। वाद-विवाद तो हर पति-पत्नी के जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता है। यह कहानी घर-घर की है। हां दुनिया में अपवाद जरूर हो सकते हैं और होंगे भी। आमतौर पर हर सामान्य दंपत्ति के जीवन में उतार- चढ़ाव आते ही रहते हैं।
कभी प्रेम की खट्टी-मीठी नोक झोंक, तो कभी अच्छी खासी लंबी लड़ाई।
कभी तेरी मेरी बातें, तो कभी परिवार नाते-रिश्तेदारों की बातें, तो कभी बच्चों की। विषय अलग-अलग हो सकते हैं तकरार के मगर तकरार तो होती ही है।
कई बार वर्षों तक कुछ बातें दिल में इस तरह से घर कर जाती है कि वे एक दिन ज्वालामुखी की तरह फट पड़ते हैं। दो अलग-अलग इंसानों की सोच अलग हो सकती है। कहा जाता है कि “मतभेद होना चाहिए मनभेद नहीं।”
मगर ऐसा भी कहा जाता है “अति सर्वत्र वर्जयते”। समझिए जीवन में जिस दिन वह दिन आ गया उस दिन कोई समझदारी काम नहीं आती। उस दिन ना लोक लाज दिखाई देती है, ना आगे पीछे का कुछ सोचा जाता है।
उस दिन केवल “आत्म सम्मान” दिखाई देता है। किसी का “अभिमान” अपने “स्वाभिमान” पर भारी पड़ जाए यह हो नहीं सकता।
तब आता है समय “अंतिम निर्णय” का।
आज मधुर और राइमा जीवन के उस “अंतिम निर्णय” पर ही खड़े हैं। दोनों ही एक दूसरे को बहुत चाहते हैं, एक दूसरे की बहुत परवाह करते हैं। एक दूसरे के बिना जीने के बारे में सोच भी नहीं सकते।
मगर आज दोनों एक ही घर में होते हुए भी नदी के दो छोरों की तरह खड़े हैं जो कभी न मिलने के लिए ही बने होते हैं।
मधुर और राइमा दोनों आमने-सामने थे। मधुर, राइमा से कहता है कि प्लीज रुको ना एक बार फिर से शुरू करते हैं।
राइमा कहती है, नहीं मधुर….
मैं यह नहीं कहती की गलती तुम्हारी है। गलती मेरी ही है जो मैं तुम्हारी आदतों के अनुसार ढ़लती चली गई। छोटा-मोटा विद्रोह किया मगर वही अपना लिया जो तुम्हें पसंद था और तुम्हें आदत हो गई कि येन-केन प्रकारेण जो तुम चाहते हो वह करवा ही लोगे, वह मनवा ही लोगे। इसी तरह धीरे-धीरे मैं समझौते करती चली गई और अपने सपनों को तुम्हारे “मैं” के आगे अग्नि में झोंकती गई। मैं यह करना चाहता हूं मैं वह करना चाहता हूं मेरी यह सपने हैं और भी बहुत से “मैं”। मैं ठहरी भावुक मूर्ख आत्मा भावनाओं में बह ही जाती थी। तुम्हारे थोड़े से प्यार पुचकार से मैं सारे गम भूल कर फिर आगे बढ़ जाया करती थी। यही सोचकर कि जीवन इसी का नाम है। तुम्हारी खुशी में अपनी खुशी ढूंढती चली गई।
पहले-पहल मुझे लगता था की शादी के बाद जब मैं तुम्हारे साथ रहूंगी तो तुम मुझे और ज्यादा समझोगे और अपने स्वभाव को बदलोगे। मगर मैं गलत थी ऐसा नहीं हुआ। अनेकों बार मैंने तुम्हारे रौद्र रूप का सामना किया।
ऐसा नहीं कि मैं तुम्हारे स्वभाव को पहले से नहीं जानती थी। मगर मैंने शादी के बाद तुम्हारा वह चेहरा भी देखा जिसकी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी।
मैं यह नहीं कहती कि मैं कहीं गलत नहीं हूं। इंसान हूं गलतियां तो करती ही रही होंगी और उन्हें स्वीकारने में मुझे कोई शर्म भी नहीं है। कई बार बात आपे से बाहर हो जाने पर मेरा रौद्र रूप तुमने भी देखा होगा। हो सकता है उस समय तुमने मुझे संभाला होगा।
इतने बरसों में मेरी समझ में यह जरूर आ गया है कि अब यह समय मुझे मेरे हिसाब से जीना है। अब मुझे शांति चाहिए। रोज-रोज की “कलह” मुझे बर्दाश्त नहीं।
तुम अपने सपनों को पूरा करने में व्यस्त हो, तुम्हारी सुविधा अनुसार ही तुम हमें समय दे पाते हो। मैं तुम्हारी व्यस्तताओं को समझती हूं। तुम जो कुछ कर रहे हो घर परिवार के लिए ही कर रहे हो इस बात को भी मानती हूं।
तुम भी सबकी खुशी ही चाहते हो मैं यह भी जानती हूं।
मगर मुझे भी यही एक जीवन मिला है, मेरे भी कुछ सपने हैं। मैं भी अपने परिवार बच्चों के लिए कुछ करना चाहती हूं।
अब तक मैंने जो भी किया घर परिवार की सुविधाओं में कोई खलन ना पड़े यह सोचते हुए करने का प्रयास किया। मगर मेरा कोई भी प्रयास तुम्हें संतुष्ट नहीं कर पाया।
मेरे विचार से मौन की जो दीवार हम दोनों के बीच खड़ी हो चुकी है उसका बने रहना ही ठीक होगा।
एक ही सवाल है मेरे मन में- क्या तुम अपनी पूरी जिंदगी मेरे हिसाब से जी सकते हो ?
जवाब देने की कोई जरूरत नहीं है, जवाब में जानती हूं।
और तो और मैं यह भी जानती हूं कि यह संभव ही नहीं है कि कोई किसी और के हिसाब से पूरी जिंदगी जी ले।
तो ये कहां का न्याय है, पराए घर से आई लड़की अलग परिवेश में पली-बढ़ी लड़की समझोंतो पर समझौते किए जाए। हर घड़ी पत्नी, बहू को यह समझाया जाए कि लड़कियों की कोई पसंद नापसंद नहीं होती है, उन्हें वही करना होता है जो सब लोग चाहते हैं जो सबको पसंद है। उसे ये अधिकार ही नहीं कि वह यह कह पाए कि वह यह नहीं करना चाहतीं हैं या उसे ये पसंद नहीं है।
कभी-कभी तो सोचती हूं की अच्छा है जो आजकल की लड़कियां आत्मनिर्भर है तो अपने लिए कदम बढ़ा सकती हैं। वह अपनी पसंद नापसंद खुलकर जाहिर कर सकती हैं। भले ही लोग कहें पापा की परी है ये तो, ये कहां किसी की सुनने वाली है।
हम जैसी कई महिलाएं जो कामकाजी नहीं है उन्हें तो अपने आत्म सम्मान के लिए लड़ने से पहले भी यह सोचना पड़ता है कि कहीं घर से निकाल दिया तो कहां जाऊंगी और क्या करूंगी ?
बच्चों का क्या होगा, जो उन्हें साथ ले गई तो उनकी परवरिश कैसे करूंगी?
घर लड़के का है तो उसके जवाब हमेशा मैं यह नहीं कर सकता, मैं यहां नहीं जा सकता, मैं अभी नहीं जा सकता, तुम देख लो, मुझे नहीं जाना है। ये तुम्हारे बनाए रिश्ते हैं इन्हें तुम्हें निभाओ और भी न जाने कितने “नहीं” हर पल हर दिन हर लड़की को सुनने पड़ते हैं, मैंने भी सुने हैं।
लड़कों के जवाब हमेशा ऐसे ही क्यों होते हैं????
लेकिन लड़के से जुड़ा हर रिश्ता लड़की को निभाना ही होता है।
हम दोनों के लिए बेहतर यही होगा कि हम एक दूसरे को समय दें।
तुमने बिलकुल ठीक कहा था कि तुम बहुत व्यवहारिक (प्रैक्टिकल) व्यक्ति हो और मैं बहुत भावुक (इमोशनल) हूं। हर बात को इमोशनली सोचती हूं। मेरा इमोशनल होना ही शायद वजह था जो तुम मेरी जिंदगी में जगह बना पाए।
अगर मैं इमोशनल हूं तो मैं यही चाहूंगी कि जिसके साथ मैं रहूं वह भी मेरी भावनाओं का ख्याल रखें और वह भी भावुक हो। जैसी “मैं” हूं वैसा “मेरा” हमसफ़र हो ये चाहना गलत तो नहीं है। जैसे तुम हो अगर मैं पूरी तरह से वैसी होती तो शायद हम कभी साथ नहीं रह पाते। तुम अक्कसर कहते हो कि मैं बाहरी दुनिया को नहीं जानती हूं। हो सकता है जैसे आप हो बाहरी दुनिया में वैसा ही रहना पड़ता हो। बाहरी दुनिया से समायोजन करते-करते तुम घर में समायोजन करना भूल गए हो।
मैं यह सोचते-सोचते की कभी तो ऐसा समय आएगा जब सब कुछ सामान्य होगा थक गई हूं। तुम भी बहुत कुछ खो रहे हो इसका एहसास शायद तुम्हें अभी नहीं है।
जब तुम्हें लगे कि तुम मेरी भावनाओं को समझ पाओगे। तुम्हारे पास समय होगा कि जब भी मैं कहूं तुम मेरे साथ घूमने जा पाओगे, मेरे साथ समय बिता पाओगे। जब मेरे मन की बात पढ़ने का तुम्हारे पास समय होगा तब हम एक बार फिर जरूर साथ आएंगे।
एक विशेष बात अब हमारा घर, घर नहीं रहा- यह पूरी तरह से एक होटल बन चुका है। उसके मालिक तुम और मैं इसकी केयरटेकर।
बच्चों के अच्छे भविष्य के लिए एक बार फिर मुझे यह समझौता तो करना ही है। यही मेरा “अंतिम निर्णय” है।
उम्मीद है इस बार तुम मेरी भावनाओं में लिए गए “अंतिम निर्णय” को समझ पाओगे।
मेरे जीवन की डोर अब तुम्हारे नहीं मेरे हाथों में होगी। अब ना कोई “कलह” होगी ना “सुलह” होगी।
स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
#दिक्षा_बागदरे