मालगाड़ी आवाज़ करती हुई रुकी। सुबह का धुंधलका छंटने लगा है, पूरब से हल्की लालिमा बिखर रही है। खुशनुमा दिन की शुरुआत हो रही है और राहुल का मन खाली है।
धीरे से उसने बाहर झांक कर देखा। चारों ओर खेत और उनमें लगे पेड़ दिखाई दे रहे हैं। खेतों से पीछे दूर चिमनियों से धुवाँ उड़ता नज़र आ रहा है। राहुल ने अपना बैग लिए और डिब्बे के दरवाज़े से नीचे कूद गया। पटरी के नीचे पड़ी गिट्टियों से चरमराहट की आवाज़ हुई, राहुल जल्दी से पटरियों से दूर हो गया। डिब्बे से आगे पीछे दूर तक कुछ नज़र नहीं आ रहा है।
अक्टूबर का महीने की सुबह हल्की हल्की ठंड। राहुल ने अपने हाथ जेब में डाले और खेतों के रास्ते दूर दिखाई देती चिमनियों की तरफ़ बढ़ चला।
कौन सा शहर है, कौन सा राज्य है? मालूम नहीं। क्या फ़र्क पड़ता है उसने सोचा। जाने कितने शहर कितने कस्बे उसने देखे हैं। न किसी का नाम याद रखा न और कुछ। क्या करना याद रखके? न कहीं रुकना न ही कहीं बसना है उसे।
सालों गुज़र गए ऐसे ही उसे भटकते हुए। बेमकसद, न किसी मंज़िल की तलाश है न कहीं थमना है। बस ऐसे ही बाकी का जीवन भटकते हुए जीना है।
कई किलोमीटर चलने के बाद सड़क दिखाई दी। राहुल ने चैन की सांस ली। एक मील का पत्थर दिखाई दिया। अंकलेश्वर बीस किलोमीटर लिखा था, दूसरी ओर किसी अनजान शहर का नाम था जो सैकड़ों मील दूर था। राहुल उस पर बैठ गया, पैरों में दर्द हो चला है। बीती दोपहर से कुछ गया भी नहीं था पेट में। भूख लग आई है। बैग से बॉटल निकाली दो घूंट पानी पिया और इंतज़ार करने लगा कि कोई गाड़ी निकले तो लिफ्ट मांगे।दोनों तरफ़ से सड़क में सन्नाटा पसरा हुआ है। इंतज़ार करते हुए राहुल को फ़िर अतीत की हवाएं अपनी ओर खींचने लगी।
पांच साल हो गए राहुल को घर छोड़ कर ऐसे ही बेमकसद भटकते हुए। आठ साल पहले एक्जीक्यूटिव इंजीनियर की पोस्ट से रिटायर हुए थे। खूब कमाया नौकरी में। जोड़ा भी बहुत। बड़ा सा घर, गाड़ियाँ, दुनिया जहां की सुख सुविधाएं बनाई। दोनों बेटों को अच्छे स्कूल कॉलेज में पढ़ाया। एक नौकरी पकड़कर विदेश चला गया और दूसरा एक फैक्टरी का मालिक बन गया।
जैसे जैसे बच्चे बड़े होते गए पत्नी उनके साथ ज्यादा व्यस्त होती गई। राहुल अपनी नौकरी में उलझे हुए जीते रहे। रिटायर हुए तब समझ आया कि कितना कुछ पीछे छूट गया है आगे रहने के फेर में। क्या क्या गंवा बैठे हैं वो। दिनचर्या, जीवन, प्राथमिकताएं सब बदल गई राहुल की। सुबह आराम से होने लगी। दिन खाली खाली गुजरने लगा। सूरज ढलते ही खालीपन उतर आता दिल में।
बेटा जब तक घर में रहता कर्फ्यू लगा रहता। बेटों के साथ कभी दोस्ताना व्यवहार रहा नहीं था राहुल का। कड़क पिता बने रहे जीवन भर। पढ़ाई, कैरियर, के अलावा कुछ और प्राथमिकता रही नहीं जीवन में। बच्चों को न कभी सिनेमा दिखाया, न किसी पारिवारिक कार्यक्रम में ले गए। न ही कभी मिलने जुलने दिया भीड़ भाड़ में। जैसे चिड़िया अपने अंडे सहेजती है वैसे ही रखा बेटों को।
नतीजा क्या निकला। बेटों को प्यार ही नहीं हुआ पिता से। वो बस एक अधिकारी ही रह गए घर में भी। रिटायर होने के बाद एक दिन उन्हें लगा कि अपने भूले हुए शौक पूरे करने चाहिए। वो सब वापस अपनाना चाहिए जिसे वो बचपन के बाद खो चुके हैं कहीं जीवन की आपाधापी में।
एक छोटा सा ऑडियो सिस्टम खरीद लाए। दूसरे दिन नाश्ते के समय बेटा डाइनिंग टेबल पर आया तो बाहर गार्डन में बैठे वो किशोर कुमार का गाना सुन रहे थे।
पापा! थोड़ी देर शांति से बैठ सकते हैं क्या आप?
उन्होंने तुरन्त उसे बंद कर दिया। उन्हें लगा आजकल वो जो भी करते हैं बेटा उन्हें टोकता ज़रूर है। अभी उस रात खाना खाते हुए वो टीवी देख रहे थे कि बेटे ने टोका। फ़िर उस दिन वो स्लीपर पहन कर घर के भीतर चले आए तो भी। और वो भी जब उन्होंने अपनी और पत्नी के लिए उज्जैन के लिए टिकिट करा ली थी। कितना भड़का था वो, क्या जरूरत है घूमने फिरने की। बेकार में पैसे खर्च करने की। आराम से घर में रहिए। भीड़ भाड़ में जाना इस उम्र में अच्छा नहीं है। वगैरह वगैरह।
पत्नी कभी टोकती नहीं है उसे। राहुल अगर कहे कुछ तो टाल देती है। बचपन से छोटे से उसे ज्यादा ही लगाव है। उसका अच्छा बुरा सब जायज़ है उसके लिए। उसका असर है कि आज राहुल ही फ़िज़ूल हो गया है अपने घर में। एक दिन अख़बार पढ़ते हुए सुबह कुछ गुनगुना रहे थे कि बेटे की आवाज़ आई आप थोड़ी देर भी खामोशी से नहीं रह सकते न। राहुल की आवाज़ गले में घुटकर रह गई। जाने क्यों उन्हें बेटे को जवाब देना अच्छा नहीं लगता था। मन होता कि खींच कर एक झापड़ दें। ज़ोर से डांट लगाएं। लेकिन हिम्मत नहीं होती उनकी। एक बार बचपन में किसी बात पर एक जोर का झापड़ लगा दिया था। इतना रोया वो की सांस रुक सी गई उसकी। शरीर नीला पड़ने लगा। मियाँ बीबी दोनों हड़बड़ा कर अस्पताल भागे।
हुआ कुछ ख़ास नहीं था लेकिन उस दिन के बाद पत्नी ने न डांटने दिया न मारने। टोकना भी मुहाल हो गया था। राहुल ने उस घटना के बाद कदम पीछे खींच लिए। बच्चों की जिम्मेदारी पत्नी को सौंप कर खामोशी से किनारे हो गए।
पत्नी बेटे और उसकी गृहस्थी में बीजी हो गई थी। एक पोता है उसकी जिम्मेदारी उठा ली थी, बचा समय भगवान की सेवा में और धार्मिक चैनलों में समर्पित कर दिया है। इतने सालों राहुल की जिम्मेदारी उठाई है क्या अब रिटायर होने के बाद भी वही करना जरूरी है यह प्रश्न उसने एक दिन पूछ लिया। राहुल ने जवाब दिया तुम अपने हिसाब से जिओ। मैं ठहरा रिटायर आदमी मेरी क्या ज़रूरतें क्या फरमाइश।
दो साल में ही लगने लगा कि रिटायर होना और निठल्ला होना अच्छा नहीं है। पेंशन आती है अच्छी खासी, दुनिया जहान की सुख सुविधाएं हैं। सब कुछ है फ़िर भी एक खालीपन है जीवन में। सारा जीवन क्या किया? यह सवाल कौंधता रहता है। पढ़ाई, नौकरी, परिवार, जिम्मेदारियां बस।
एक दिन जाने किस धुन में राहुल ने सुबह सब के उठने के पहले एक बैग में कपड़े डाले कुछ जरूरत की चीजें रखी और निकल पड़े। अपना फ़ोन पर्स जिसमें सारे कार्ड्स, पहचान पत्र थे, टेबल पर छोड़ दिया। अलमारी में कुछ पैसे रखे थे वो रखे बस।
वो दिन और आज का दिन। बस भटक रहे हैं। उनका बैंक एकाउंट ज्वाइंट है पत्नी के साथ, वसीयत भी कर रखी है उन्होंने। इसलिए सब व्यवस्थित होगा घर में।
घर से निकले तो सीधे बनारस का रास्ता पकड़ा। कई महीने वहाँ की गलियों की ख़ाक छानते रहे। घाटों की सीढ़ियां गिनते रहे। भोले बाबा की चरण धूल लेते रहे। फ़िर एक दिन मन भर गया। बस उस दिन के बाद किसी एक जगह टिके नहीं। किसी भी शहर में उतर गए। ढूंढ कर काम कर लिया जो मिल गया। कुछ कमाया तो खाने का जुगाड़ बन गया। बस स्टैंड या रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म में सो गए।
कभी होटल के वेटर बन गए तो कभी किसी कंस्ट्रक्शन साइट पर मुंशी, कभी सिगनल पर पेपर बेच लिए तो कभी पेन। कौन जानता है उन्हें, कौन पहचानता है। दाढ़ी बढ़ा ली है अच्छी खासी, बाल भी गर्दन से नीचे लटकने लगे हैं। सालों से शक्ल ऐसी ही बना रखी है। बस साफ़ सफाई की आदत नहीं बदली।
दो साल पहले मन हुआ तो एक बार अपने शहर चले गए थे। घर के सामने सड़क के उस पार देर तक खड़े हुए निहारते रहे। न कोई अहसास हुआ न कोई अपराधबोध। ऐसा लगा ही नहीं कि अपना कुछ है यहां। अपने लोग हैं इस घर में।
पैर सुन्न हो गए हैं पत्थर पर बैठे बैठे। एक मेटाडोर आ रही है। राहुल खड़े हुए, पैर थोड़े लड़खड़ाए। हाथ दिया गाड़ी वाले को। गाड़ी रुकी और राहुल ने आगे शहर तक छोड़ देने का निवेदन किया।
खुली खिड़की से भीतर आती हवा में दाढ़ी के बाल बिखर रहे हैं। चश्मा आंखों से उतार कर उसके कांच में जमी हुई धुंध साफ़ की। थोड़े दिन इस शहर की धूल छानी जाएगी, कुछ नया देखा सीखा जाएगा। नए लोग, नई रिवायतें, और फ़िर और कहीं उड़ जाएगा यह पंछी।
जितना भी शेष है जीवन बस सफ़र में कट जाना है न कोई ठौर न ठिकाना। राहुल के होठों में फीकी सी मुस्कान बिखर गई।
©संजय मृदुल