आज सुबह से ही वेदांत का दफ़्तर में मन नहीं लग रहा था।न जाने क्यों मूड उखड़ा सा है। जब आदमी का मन ठीक
न हो तो न चाहते हुए भी किसी न किसी से बिना बात के ही लड़ाई झगड़ा, मन मुटाव सा हो जाता है। दफ़्तर के
माहौल में चुप रहना पड़ता है वरना तो गाली गलौच होते भी देर नहीं लगती। पब्लिक डीलिंग में भी दो तीन लोगों से
उलझ गया। एक तो जाता जाता कह भी गया कि लगता है आज बीवी से लड़कर आया है। दफ़्तर के आसपास के लोग
यह सुनकर जब हँस पड़े तो वह खिसियाना सा हो गया। उसके बाद सारा दिन वो चुपचाप अपने काम में लगा रहा
मगर मन में तो जैसे ज्वार- भाटा उठ रहा था।
छुट्टी के बाद वो कार उठाकर घर जाने की बजाए जाकर पार्क में बैठ गया। समस्या तो वही जो एक आम
मिडिल क्लास परिवार की होती है। इतनी अच्छी उसकी तनख़्वाह , उपर से ज्योति भी टयूशनस से बीस पचीस हज़ार
कमा लेती है, कुल चार जनों का परिवार, फिर भी महीने का आख़री हफ़्ता मुशकिल से निकलता है। हर महीने यही
होता है, महीने के पहले हफ़्ते दीवाली और आख़री हफ़्ते कंगाली होती है। समझ में नहीं आता कि आख़िर पैसे जाते
कहाँ है। अभी तो मकान का किराया नहीं देना होता, लेकिन हर महीने पंद्रह हज़ार बैंक की किस्त तो कटती है। दो
साल पहले किराये के मकान का पचीस हज़ार किराया था। वो तो माँ ने अपना फ़्लैट ख़रीदने का न केवल सुझाव दिया
बल्कि कुछ ज़मीन बेचकर उसे पचास लाख रूपए भी दिए ताकि वो शहर में अपना फ़्लैट ख़रीद लें और हर दो तीन
साल बाद सामान उठाने से मुक्ति मिले।
बड़े शहरों में मकान किराए पर लेने के भी कुछ क़ायदे कानून होते है जो कि छोटे शहरों में या गाँवों
क़स्बों में नहीं होते। वेदांत के पापा के पास कोई बहुत ज्यादा ज़मीन नहीं थी। दादा पड़दादा के समय तो काफी थी
लेकिन बँटते बँटाते टुकड़े ही रह गए। नई तो किसी ने ख़रीदी नहीं। पुराने समय के लोग तो ज़मीन को माँ का दर्जा
देते थे, ज़मीन को बेचना पाप के समान था, जब तक बिलकुल ही जान पर न बन आए , बहुत ही विपरीत स्थिति न
हो कोई उसे बेचने का सोच भी नहीं सकता था। ज़मीन और सोना ही संपत्ति थी। लोग फालतू खर्च नहीं करते थे और
न ही दिखावा होता था। लेकिन अब परिस्थितियां बदल चुकी है। अब तो अंदर से भले खाली हो, बाहर से ऐसे जैसे
किसी रियासत से ताल्लुक़ हो।
वेदांत को कई बार हैरानी होती कि पापा प्राइमरी स्कूल के टीचर थे और माँ तो कम पढ़ी लिखी
गृहणी। दो बहने और वेदांत, तीन भाई बहन। सबकी पढाई लिखाई शादियाँ सब अच्छे से हो गया। तीन साल पहले
पापा के स्वर्गवास के बाद माँजी को फ़ैमिली पैंशन लग गई जो कि बहुत ज्यादा नहीं है, लेकिन माँ के मुहँ से कभी
कमी की बात नहीं सुनी। थोड़ी बहुत आमदन ज़मीन से है जो कि बंटाई पर बहुत पहले से ही दी हुई है। वेदांत नौकरी
के बाद शुरू से ही शहर में रह रहा है। लगभग पंद्रह साल होने को आए। नौकरी के तीन साल बाद शादी हो गई और
दो बच्चे। बड़ी बहन की शादी तो पहले ही हो गई थी, छोटी की उसकी नौकरी लगने के बाद हुई। शादी के बाद तो
माना खर्चे बढ़ गए, पहले भी कहाँ उसने घर पैसे दिए। पिताजी ने एक दो बार कुछ कहने की कोशिश की, लेकिन
वेंदात ठहरा माँ का लाड़ला। माँ ने कहा, कोई बात नहीं, शहर के खर्चे है, यही तो दिन है मौज मस्ती के, शादी के बाद
तो घर गृहस्थी संभालनी ही है।
कुल मिलाकर उसने शादी से पहले तीन साल की कमाई से छोटी बहन की शादी पर एक दस ग्राम की
सोने की चेन या फिर घर आते समय माँ के लिए दो चार सूट या बहनों को राखी पर नेग जरूर दिया होगा। शादी के
बाद तो जैसे सब बदल गया। सारा खर्च माँ बाप ने किया, सिरफ दुबई का हनीमून उसने प्लान किया वो भी बैंक से
कुछ क़र्ज़ लेकर। अक्तूबर में शादी थी, तो नवंबर में पहली दीवाली। एक बार जो बैंक से क़र्ज़ लिया, फिर तो वो
दिनचर्या का हिस्सा ही बन गया। क्रेडिट कार्ड के रूप में बैंक वाले ऐसी मीठी गोलियाँ खिलाते है कि आदमी उस रस में
डूबता ही चला जाता है। कुछ होश नहीं रहती खर्चे की। बड़ी शान से जब चाहे, जहाँ चाहे कार्ड का प्रयोग ऐसे होता है,
जैसे सब फरी मिल रहा हो। अक़्ल ठिकाने तब आती है जब महीने बाद मोटा बिल सामने आता है और नियत समय
पर पेमेंट न हुई तो तगड़ा ब्याज देना पड़ता है। मुसीबत यहीं से शुरू होती है, फिर तो यही सिलसिला रहता है। पिछले
पैसे खतम नहीं होते कि नई खरीददारी शुरू हो जाती है।
वेंदात का भी यही हाल था। शादी के बाद खर्चे की गाड़ी ऐसी पटरी से उतरी कि अब तक घिसट रही
है। उसकी पत्नी ज्योति अच्छी लड़की थी, मगर खर्चीली थी। शापिंग मेनिया कुछ ज़्यादा ही था। आलतू फालतू की
चीजों से घर भर लेती। मेकअप के सामान की तो इतनी शौक़ीन की उसे ख़ुद पता नहीं कि उसके पास क्या है। एक
चीज तो कभी खरीदी ही नहीं। हर रंग की लिप्सटिक , नेल पालिश, मस्कारे, शैंपू न जाने क्या क्या। और फिर जलदी
ही इन की एक्सपायरी डेट आ जाती। फिर से नया सामन मंगाती। जब भी फरी होती आन लाईन समान देखती और
झटपट आर्डर कर देती। पहले पहल तो वेंदात ने नोटिस नहीं किया, लेकिन जब खर्च बस से बाहर हो जाता तो प्यार
से टोकता तो घर में अंशाति फैल जाती। कपड़े , मैंचिग जूते न जाने क्या क्या। हर साल दो साल में घूमने भी जरूर
जाना है।बच्चों के पढाई के खर्चे। आख़िर कटौती कहां की जाए। साल दो साल में ममी पापा भी एक दो हफ़्ते के लिए
आते थे, सब देखते लेकिन कुछ कहने की हिम्मत न होती।
वो नहीं चाहते थे कि उनके कारण बेटे के घर में क्लेश हो। लेकिन दोनों को बच्चों की बहुत
चिंता रहती। उनकी तो सरकारी नौकरी थी, पैंशन लग गई, लेकिन इनका क्या होगा। कोई बचत नहीं। पिताजी ने कई
बार समझाना चाहा कि हर महीने कुछ पैसे किसी स्कीम में लगाने चाहिए, बैंकों की , बीमा कंपनियों की ढ़ेरो स्कीमें
हैं, लेकिन बेटा टका सा वही जवाब देता कि खर्चे ही पूरे नहीं होते। और अगर वो अपने जमाने क बात करते तो जवाब
मिलता कि वो जमाना और था। अब आजकल की जनरेशन को कैसे समझाया जाए कि जमाना कितना बदल जाए ,
नियम ज़रूरते वही रहती है। बचत का महत्व तब भी था, आज भी है और हमेशा रहेगा। बाद में तो उन्होनें शहर आना
ही छोड़ दिया था। कुछ तो सेहत खराब रहने लग गई और कुछ उन्हें वहाँ के तौर तरीके ही पंसद नहीं थे। जब देखो
तब बाहर से खाना आ रहा है, छुटटी वाला दिन तो पक्का बाहर ही गुज़रता। कभी नया फ़ोन तो कभी नया टीवी।
पूछो तो टाल जाते या फिर ये जवाब कि आपको कुछ पता नहीं, इस फ़ोन में नए फ़ीचर है।
पिताजी भले ही पुराने जमाने के थे मगर नई चीजों की भी कुछ न कुछ जानकारी तो थी। उनहें पढ़ने का बहुत शौक़
था, सब जानते थे कि कंम्पनी ने तो कुछ न कुछ लालच देकर अपना सामान बेचना ही होता है। माना कि सब कुछ
ग़लत नहीं था, मगर बहुत कुछ ग़लत था।इसी तरह समय गुज़रता गया। पिताजी को उपर से बुलावा आ गया।
माताजी गाँव में अकेली रह गई। बेटियाँ आती जाती मगर सबकी अपनी घर गृहस्थी। वेंदात ज्योति भी कितना रह
पाते। नौकरी , बच्चों का स्कूल, ज्योति का टयूशन वर्क। माँ दो तीन बार गई, लेकिन ज्यादा दिल न लगता। सब
अपने में मस्त और बेटा बहू में अक्सर खर्चे को लेकर खिच खिच होती। सब फालतू खर्चे मां को दिखते लेकिन वो कह
न पाती , वैसे भी उसकी सुनता कौन। उसे वहाँ पर कोई तकलीफ नहीं थी, लेकिन कोई ज्यादा पूछता भी नहीं था।
माताजी को रह रह कर वो समय याद आता कि कैसे उनके जमाने में बुजुर्गों की इज्जत की जाती थी।
अपने घर के बुज़ुर्गों के साथ साथ मुहल्ले वालों से भी पैर छूकर आशीर्वाद लिया जाता। अपने हाथों से
बना कर गरमा गर्म खाना, चाय, दूध देते। कभी कभी तो पैर भी दबा देते, लेकिन वो सब तो बीते जमाने की बातें हो
गई। मेड खाना बना देती, कैसरौल में पड़ा है, जिसे खाना हो खा ले, गरम करना है तो माईक्रोवेव में गर्म कर ले। नहीं
कुछ पंसद तो बाहर से आर्डर कर लो। गाड़ी तो एक ही है। सब अपनी अपनी कैब बुलाकर चले जाते है। किसी को खर्चे
की परवाह ही नहीं है। एकाउंटों में पैसे आ जाते है, कैश कोई रखता नहीं या बहुत कम। कई तरीके है पेमेंट करने के।
माना कि सब बढ़िया है, मगर पैर तो चादर देख कर ही पसारने चाहिए।
तभी तो माताजी ने सोचा कि जो भी है, आगे पीछे इन्हीं का है तो उन्होनें थोडी ज़मीन बेचकर फ़्लैट खरीद
दिया। शायद कुछ खर्चा कम हो जाए। लेकिन जब से फ़्लैट ख़रीदा खर्चे और भी बढ गए। उसे सजाने सँवारने में ही
बहुत खर्च हो गया। बात फिर वहीं की वही। किराया बंद हुआ तो किस्त शुरू हो गई। कुछ फ़रक तो पड़ा लेकिन खर्चे
और बढ़ा लिए। अब नए घर में पुराना सामान कैसे रखा जाए। आख़िर बचत हो कैसे, जब ख़र्चों पर कंट्रोल ही नहीं है।
पिताजी की मृत्यु के बाद दो साल दीवाली, होली पर वेंदात परिवार सहित गाँव चले जाते।बच्चों का मन तो न होता
परंतु जाना पड़ता। इस बार बच्चों ने साफ मना कर दिया दीवाली पर गाँव जाने से। बल्कि पिछले दो साल दीवाली पर
जो नहीं ख़रीद पाए उसकी लिस्ट भी सामने रख दी। वेंदात ज्योति का प्यार रोमांस न जाने कहाँ उड़ चुका था। गृहस्थी
के चक्कर में बुरी तरह उलझ चुके थे। आमदन तो बढ़ने से रही, ख़र्चों में ही कटौती करनी होगी।
वेंदात , ज्योति ने थोड़ी कोशिश शुरू तो की लेकिन वो नाकाफ़ी थी। दरअसल बचत की आदत ही
नहीं थी। दीवाली में कुल एक हफ़्ता ही बचा था। बाजार सज गए । बच्चों का उत्साह चरम पर। पिछले दो साल एक
तो करोना उपर से गाँव चले जाना, भला दीवाली क्या हुआ। वेंदात सोच रहा था कि अगर वो गाँव नहीं जा सके तो माँ
को ही यही बुला लेते है। ज्योति का सास से कोई मनमुटाव नहीं था बल्कि दोनों के रिशते अच्छे थे परतुं ख़र्चों की
परेशानी के मारे उसकी तबियत भी अब खराब रहने लगी थी, और अगर सेहत ठीक न हो तो मन कहाँ से ठीक होगा।
वो नहीं चाहती थी कि सास इस बार दीवाली पर यहाँ हो। लेकिन अगले ही दिन बिना फ़ोन किए माताजी को देख सब
हैरान रह गए। गाँव से कोई रिशतेदार शहर आ रहा था तो माताजी भी साथ ही गाड़ी में बैठ गई। माँ से मिलकर सब
खुश हुए। माताजी की अनुभवी आँखे घर के माहौल को आते ही पहचान गई। पता तो उन्हें सब था कि परेशानी का
कारण क्या है, लेकिन आज के जमानें में बच्चों को कुछ समझाना आसान नहीं।
साईंस ने तरक़्क़ी तो बहुत कर ली, लेकिन नुक़्सान कम लोगों को ही दिखते है।
खरीददारी के सामान की लिस्टें, कपड़े, पटाखे, लड़ियाँ और न जाने क्या क्या। माताजी दो दिन से यही देख रही थी।
रात में जब फ़ुरसत से वेदांत उन्के पास आया तो माँ बेटा बाते करने लगे। परेशानी की लकीरें उसके चेहरे पर साफ
झलक रही थी।माँ ने पूछा , सब ठीक तो है। में सिर हिलाकर वो पास ही लेट गया। अब माँ तो माँ थी, पूछे बिना
कैसे रहती। वैसे भी वो गाँव से कुछ सोच कर ही आई थी। माँ की थोडी सी सहानुभूति से ही उसने सब बता दिया कि
कैसे उन्होनें किस्तों पर सारा सामन ख़रीदा, और न जाने कैसे कैसे अनाप शनाप ख़र्चों की आदत पड़ चुकी है। वो
दोनों तो बहुत कोशिश करते है, लेकिन बच्चे माने तब ना। अब उनकी आदते बिगड़ चुकी हैं। थोडी देर में ज्योति भी
वहाँ पहुँच गई। माँ ने कहा कि अगर वो उसकी बात माने तो धीरे धीरे स्थिति सुधर सकती है । कहना कुछ नहीं ,
करके दिखाना है। कोई और समय होता तो ज्योति नखरे दिखाती लेकिन इस समय हालात से वो थक चुकी थी। कोई
बहुत बड़े क़र्ज़ नहीं थे, बस उधार की आदत जिसे माडर्न भाषा में क्रेडिट कारड और किस्त पुरान कहा जाता है
वो ही नहीं खत्म हो रही थी।
अगले दिन खरीददारी तो हुई लेकिन माँ ने अपने डेबिट कारड का प्रयोग किया। वेदांत ज्योति ने
बहुत मना किया मगर माँ नहीं मानी। सब ख़रीदा लेकिन कम मात्रा में। कुछ मिठाइयाँ घर पर बनी। बच्चों को
समझाया कि कैसे पटाखे प्रदूषण फैलाते है, चाईनीज सामान बिलकुल नहीं ख़रीदना। बिजली की लड़ियों की जगह
पारम्परिक दिए जलाए, माँ लक्ष्मी का पूजन किया। फालतू के गिफ़्ट यहाँ वहाँ बाँटना फ़िज़ूल है, कोई काम की चीज
नहीं होती। शुभकामनाएँ देना ही काफी है। मन से सब परेशान है, लेकिन पहल करने की हिम्मत कोई नहीं करता।
पहली बार माँ वेदांत के पास लगातार छ: महीने रही। बिना कुछ ज्यादा किए बहुत कुछ बदल चुका था। बाहर से खाना
मंगवाना, मोबाईल बिल, पैट्रौल , बिजली खर्च, फालतू खरीददारी ऐसे बहुत से खर्चे पता ही नहीं चला कब कम होते
चले गऐ। बस थोड़ी मेहनत और समझदारी से काम लिया। माँ ने वापिस गाँव जाने की तैयारी कर ली थी। कोई नहीं
चाहता था कि माँ वापिस जाए क्यूकिं बहुत कुछ बदल गया था। सब समझ गए थे कि कैसे सूझबूझ से जमाने के
साथ चला जा सकता है।
किसी को नहीं बदल सकते लेकिन सूझबूझ भी बहुत मायने रखती है। अपनी बचत ही काम आती है। माँ की
मदद और सयानप और सीख से घर का नक़्शा ही बदल गया । लिए गए सामान की किस्ते तो भरनी ही थी, लेकिन
आगे से तौबा कर ली। वही तनख़्वाह थी, सब वही था मगर थोड़ी आदतें बदलने से सब पटरी पर आ गया। वेदांत ने
तो ये भी सोच रखा था कि जब भी थोड़े हालात ठीक हो गए, माँ से लिए पैसे उनके अकाऊंट में डाल देगा। दूसरो को
देखकर अपना घर उजाड़ना और अपनी नींद उड़ाना कहाँ की समझदारी है। और बच्चे तो अभी कच्ची मिट्टी के समान
है, जैसे चाहो ढाल लो, और आगे चलकर अच्छी आदतें भी उन्के ही काम आएगी। दिवाली पर माँ से जो इस प्रकार
का तोहफा मिला वह सबके लिए अनमोल था। पैसा तो आता जाता रता है, लेकिन सूझबूझ, आदते, समझदारी तो
जीवन भर साथ रहती हैं।
विमला गुगलानी