अनजाने रास्ते (भाग-6) – अंशु श्री सक्सेना : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : वैदेही ने जब घर का दरवाज़ा खटखटाया तो एक बूढ़े व्यक्ति ने दरवाज़ा खोला और काँपती सी रूखी आवाज़ में पूछा,

“कहो, किससे मिलना है ?”

“जी, वो….वो अयान यहीं रहते हैं क्या…अयान मलिक”

“हाँ, यहीं रहत हैं…तनिक ठहरो हम बुलात हैं”

बूढ़े ने कहा और भीतर चला गया।

पलक झपकते ही अयान सामने हाज़िर था, वैदेही को देखकर उसकी आँखें आश्चर्य से फैल गईं,

“वैदेही…तुम? याअल्लाह मैं कोई सपना तो नहीं देख रहा हूँ, तुम यहाँ अलीगढ़ तक कैसे…आई मीन…अरे आओ आओ, अंदर आओ”

अयान की आवाज़ से छलक पड़ने आतुर ख़ुशी वैदेही ने महसूस की।

“मैं सब कुछ छोड़ कर आई हूँ अयान…लखनऊ, घर, परिवार…सब”

कहते हुए वैदेही का गला रुँध गया।

“य…य..ये क्या कह रही हो वैदेही..ओके ओके कम इन”

अयान थोड़ा हड़बड़ा सा गया फिर संयत होते हुए उसने वैदेही के कंधे थपथपाए।

वे बूढ़े व्यक्ति, जो अब तक वैदेही और अयान को लगातार अपनी पैनी निगाहों से तौल रहे थे, पूछ बैठे,

“ये मोहतरमा कौन हैं अयान ? पहले कभी इन्हें यहाँ देखा नहीं”

“अब्बू, ये मेरे साथ लखनऊ में पढ़ती थीं”

कहते हुए वैदेही से बोला,

“अंदर आओ वैदेही”

कहते हुए अयान ने वैदेही के सूटकेस का हैंडल पकड़ लिया और एक छोटे से कमरे में ले जाकर बैठाते हुए बोला,

“तुम यहीं बैठो मैं अम्मी को बुला कर लाता हूँ…ऐन्ड चिल, सब ठीक हो जाएगा”

वैदेही ने कमरे का मुआयना किया, छोटा सा दस बाई दस का कमरा, चार कुर्सियाँ, एक चौकी जिस पर गद्दा लगा था और कोने में रखा टेलीविज़न। वह सोचने लगी,

“इससे बड़े तो मेरे घर के बाथरूम हैं…ओह…नहीं…नहीं…मेरा घर कहाँ वो तो पापा का घर है, मुझे हिम्मत से अपने निर्णय को सही साबित करना है, परन्तु कैसे ? अयान ने तो एक बार भी नहीं कहा कि ‘डोन्ट वरी, मैं हूँ तुम्हारे साथ’ कहाँ तो उस दिन पिक्चर हॉल में रो रोकर कह रहा था कि मेरे बिना मर जाएगा, अब मैं सामने हूँ तो…”

तभी एक बूढ़ी सी औरत कमरे में आईं और वैदेही के सिर पर हाथ फेरते हुए बोलीं,

“घबराओ मत बेटी, अयान ने मुझे सब बता दिया है, तुम यहाँ आराम से रह सकती हो…हम दो चार दिनों में अयान के संग तुम्हारा निकाह पढ़वा देंगी”

“निकाह? पर मैं अपना धर्म नहीं बदलूँगी…अयान तुम कुछ बोलते क्यों नहीं? मैंने तो तुमसे पहले ही कहा था कि मैं तुमसे शादी के लिए अपना धर्म नहीं बदलूँगी, हमने तो तय किया था न कि हम कोर्ट मैरेज करेंगे”

वैदेही के सारे सपने उसकी पनीली आँखों में घुलकर गड्डमड्ड होने लगे।

“मुझे अच्छी तरह से याद है कि हमने कोर्ट मैरेज की बात की थी, परन्तु तब मुझे यह नहीं पता था न कि तुम सूटकेस लेकर मेरे घर आ जाओगी, अभी के लिए तो मुझे भी यही सही लगता है कि हम निकाह कर लें, फिर जब हम रिसर्च के लिए दिल्ली चलेंगे तो वहीं कोर्ट मैरेज भी कर लेंगे”

अयान ने वैदेही को समझाया।

“क्यों ? क्या अलीगढ़ में कोर्ट मैरेज नहीं हो सकती?”

वैदेही का स्वर सामान्य से ऊँचा हो गया।

“हो सकती है…बिलकुल हो सकती है, परन्तु यहाँ के सारे लोग अब्बू और हमारे ख़ानदान को जानते हैं, सोचो यदि हम यहाँ कोर्ट मैरेज करेंगे तो हमारे ख़ानदान की कितनी बदनामी होगी”

“वैसे भी तुम दोनों को साथ रहने के लिए शादी तो करनी है न ? जो कि तुम दोनों में से किसी एक धर्म के अनुसार ही होगी, अब हिन्दू धर्म के अनुसार तुम्हारा कन्यादान करने के लिए तुम्हारे माता पिता तो यहाँ हैं नहीं…फिर बताओ तुम्हें निकाह ही तो करना पड़ेगा न?”

अयान के अब्बू अयान की बात काटते हुए बोले।

अयान ने फिर कहा,

“और…तुम इतना नाराज़ क्यों हो रही हो? केवल तीन बार *क़ुबूल है* ही तो बोलना है, तुम्हें तो ख़ुश होना चाहिए कि हमारा निकाह हो जाएगा फिर हम हमेशा साथ रहेंगे”

वैदेही ने देखा कमरे के बाहर अयान के ढेर सारे रिश्तेदारों की भीड़ लगी थी। उसे असमंजस में देख अयान उसकी बग़ल में पड़ी कुर्सी पर बैठते हुए बोला,

“घबराओ मत वैदेही, ये सारे हमारे परिवार के ही लोग हैं…हमारे सभी चचा, ख़ालाएँ और फूफियाँ एक साथ ही रहते हैं, तुम भी कुछ दिनों में इन सभी से घुलमिल जाओगी”

अयान की अम्मी भी उससे प्यार से बोलीं,

“इसे अपना ही घर समझो बेटी, चलो, हाथ मुँह धो लो, मैं खाने का इंतज़ाम करवाती हूँ, अरे आएशा, अपनी होने वाली भाभी को ग़ुसलखाने की ओर ले जाओ”

घर में अयान और वैदेही के निकाह की तैयारियाँ ज़ोर शोर से होने लगीं।

निकाह का दिन था। क़ाज़ी साहब आ चुके थे। अपने रोज़मर्रा के पीले सूट पर लाल रंग का दुपट्टा ओढ़े वैदेही की आँखें बार बार छलक पड़ने को आतुर हो रहीं थीं। वह सोच रही थी,

“पापा और माँ होते तो कितनी धूमधाम और शानदार तरीक़े से मेरी शादी करते, माँ तो न जाने कबसे ही गहने, साड़ियाँ, कपड़े इत्यादि ख़रीद कर उसके विवाह की तैयारियाँ कर रही थीं…और यहाँ शादी के नाम पर एक जोड़ी नया कपड़ा भी नसीब में नहीं…”

अयान की अम्मी ने लाल दुपट्टा उसे देते हुए कहा था,

“बेटी, हमलोग इतने सक्षम नहीं कि तुम्हारे गहनों और कपड़ों पर ख़र्च कर सकें, सारे ख़ानदान को वलीमा खिलाने का ख़र्च ही उठाना मुश्किल हो रहा है, तुम अपने किसी सूट पर यह दुपट्टा ओढ़ लो”

वैदेही का मन पूरी तरह बुझ चुका था। लोगों की भीड़ के बीच अयान से उसकी बात भी नहीं हो पा रही थी।

औरतों से घिरी बैठी वैदेही के समक्ष क़ाज़ी साहब ने आकर मेहर इत्यादि की जानकारी देते हुए निकाह की रस्म अदायगी की और पूछा,

“बेटी तुम्हें निकाह क़ुबूल है?”

‘क़ुबूल है’ कहने में वैदेही का गला बुरी तरह रूँध गया और उसकी आवाज़ गले में फँस कर रह गई।

उसके बग़ल में बैठी आयशा ने ऐलान किया,

“मुबारक हो…हाँ हो गई”

निकाह के बाद जैसे ही अयान कमरे में आया, वैदेही ग़ुस्से में बोली,

“बहुत हो गया अयान, अब मैं यहाँ एक दिन भी नहीं रुकूँगी…तुमने तो कहा था, हम चाचू के पास दिल्ली चलेंगे, वहीं रिसर्च करेंगे…कहाँ हैं तुम्हारे वो चाचू ? हमारी शादी में तो नहीं दिखे”

“अरे शान्त हो जाओ मेरी जान, आज तो हमारी सुहागरात है, यह रात ज़िन्दगी में एक ही बार आती है और तुम हो कि झगड़ा करने पर उतारू हो…हाँ, दिल्ली यूनिवर्सिटी में मेरे चाचू नहीं मेरी रामपुर वाली ख़ाला के देवर प्रोफ़ेसर हैं, हम दो चार दिनों में उन्हीं के पास चलेंगे, थोड़ा सब्र करो”

अयान ने वैदेही को समझाने की कोशिश की।

“शादी भी ज़िन्दगी में एक ही बार होती है अयान और अपनी ऐसी शादी तो मैंने सपने में भी नहीं सोची थी…”

कहते कहते वैदेही के सब्र का बाँध टूट गया और वह बिलख बिलख कर रो पड़ी ।

अयान चुपचाप बग़ल में बैठा उसकी पीठ सहलाता रहा। वह रात वैदेही के आँसुओं के समुंदर में डूब, ख़ामोश ढलती रही।

अगली सुबह अयान की अम्मी कमरे में आईं और बोलीं,

“बेटी, नहा धोकर तैयार हो जाओ हमें अयान की ख़ाला के घर रामपुर चलना है, वे निकाह में नहीं आ पाईं थीं न, इसलिए उन्होंने हमें मिलने के लिए बुलाया है, वैसे भी बेटी, वे बड़े लोग हैं, वे हमारे घर नहीं आते, हम ही उनसे मिलने रामपुर जाया करते हैं…और बेटी, यह रहा तुम्हारा बुरक़ा”

“अम्मी, मैं बुरक़ा तो हरगिज़ नहीं पहनूँगी, आप बाहर जाइये और ज़रा अयान को भीतर भेज दीजिए”

अपनी सारी हिम्मत बटोर कर वैदेही ने दृढ़ स्वर में कहा।

तुरन्त ही अयान कमरे के अन्दर आया। वैदेही ने ठंडे रुखे स्वर में कहा,

“देखो अयान, हम जिस देश में रहते हैं वहाँ का संविधान हमें धार्मिक स्वतंत्रता देता है, मैंने इस्लाम धर्म नहीं अपनाया है इसलिए तुम या तुम्हारा परिवार मुझे बुरक़ा पहनने के लिए बाध्य नहीं कर सकते, मैं किसी भी क़ीमत पर बुरक़ा नहीं पहनने वाली”

“ठीक है, मत पहनो बुरक़ा…लेकिन फिर दिल्ली चलकर रिसर्च करने का सपना भूल जाओ, क्योंकि ये मेरी वही ख़ाला हैं जिनके देवर दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर हैं…यदि तुम हमारे परिवार की औरतों से अलग, बग़ैर बुरक़े के चलोगी तो ख़ाला को लगेगा कि तुम निहायत ही बद् दिमाग़ लड़की हो जिसे अपनी ससुराल की इज़्ज़त की परवाह नहीं…फिर वे अपने देवर से हमारी मदद करने को नहीं कहेंगी, एक बात और है, ख़ाला हमारी शादी से ख़ासी नाराज़ हैं क्योंकि वे अपनी बेटी नजमा का निकाह मेरे साथ करवाना चाहती थीं, इसीलिए वे हमारी शादी में भी नहीं आईं…तुम्हें अच्छी बहू का नाटक कर उन्हें इम्प्रैस करना होगा वरना हमारे लिए दिल्ली दूर ही रहेगी…सोच लो, तुम्हें क्या करना है…और ज़रा जल्दी सोचना क्योंकि रामपुर जाने की बस एक घंटे में यहाँ से निकलने वाली है”

अयान ने लम्बा सा भाषण दिया और कमरे से बाहर चला गया।

*मरता क्या न करता* कहावत आज वैदेही पर पूरी तरह से चरित्रार्थ हो रही थी। उसने स्वयं को इतना असहाय पहले कभी भी महसूस नहीं किया था।

घंटे भर बाद सभी अलीगढ़ बस स्टैंड में खड़े थे। वैदेही की आँखों से गंगा जमुना लगातार बह रही थी परन्तु बुरक़े के भीतर छुपे उसके चेहरे को देखने वाला कोई न था, उसके आँसू पोंछने वाला कोई न था। अब उसे अच्छी बहू होने नाटक भी करना था क्योंकि इसी नाटक पर उसका दिल्ली का टिकट कटने वाला था।

रामपुर पहुँच कर वैदेही *अच्छी बहू* नामक नाटक में मिला अपना पात्र बख़ूबी निभाया। शुरु शुरु में उससे खिंची खिंची सी रहीं ख़ाला ने जल्दी ही अपनी नाराज़गी छोड़ कर वैदेही को गले लगाते हुए अयान की अम्मी से कहा,

“बहू तो तुम्हें बड़ी ज़हीन मिली है आपा…जितनी खूबसूरत उतनी ही बुद्धिमान…मैं अशरफ़ से बोल दूँगी कि अयान और बहू दोनों को दिल्ली यूनिवर्सिटी में सीट दिलाने में मदद कर दे”

तभी दरवाज़ा तेज़ी से खुला और आँधी तूफ़ान की तरह नजमा घर के भीतर घुस आई। वह ड्राइंगरूम में इतने सारे मेहमानों को देख, दो पल को ठिठकी फिर अंदर अपने कमरे में चली गई।

“अभी अभी कॉलेज से लौटी है, बी.ए. फ़ाइनल इयर में है…इस साल की परीक्षाएँ हो जाएँ तो इसे भी पॉलिटिकल साइंस में एम.ए. करने के लिए दिल्ली भेज दूँ…यही सोच कर तो मैं चाह रही थी कि अयान और नजमा का निकाह करा दूँ जिससे फिर दोनों साथ साथ दिल्ली चले जाएँ….पर अब तो…ख़ैर ! अल्लाह को कुछ और ही मंज़ूर था”

कहते हुए ख़ाला ने गहरी साँस ली।

अलीगढ़ वापस लौटकर वैदेही, दिल्ली जाने के सपने देखने लगी। ‘कुछ ही दिन तो ऐडजस्ट करना है’ सोच कर वैदेही भी मुस्कुराने की कोशिश करने लगी।

क्रमशः

अनजाने रास्ते (भाग-7)

अनजाने रास्ते (भाग-5)

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