Moral Stories in Hindi : अयान के जाने के बाद वैदेही बिलकुल टूट गई। बार बार उसकी आँखों के सामने वही दृश्य घूम जाता, अस्तव्यस्त हालत में अयान और नजमा…नजमा का बेशर्मी से हँसना, उसकी अलमारी के बिखरे कपड़े…।
वह डिपार्टमेंट क्लास लेने जाती और घर वापस आकर चुपचाप बिना खाये पिये पड़ जाती।
डिपार्टमेंट में भी अयान के अलीगढ़ जाने और नजमा के साथ उसके सम्बन्धों की चर्चा ज़ोरों पर थी। प्रोफ़ेसर अशरफ़ भी वैदेही के सामने अयान और नजमा की खूब बुराई करते क्योंकि उन्हें पता था, वैदेही के ख़िलाफ़ कहा गया एक भी शब्द उन्हें प्रोफ़ेसर दिनकर बैनर्जी की निगाहों से भी गिरा देगा।
एक दिन वैदेही क्लास ले रही थी। अचानक ही उसे चक्कर आया और वह वहीं क्लासरूम में गिर पड़ी । विद्यार्थियों ने ऑफ़िस में आकर ख़बर दी। कुछ छात्राओं ने उसे सहारा देकर उठाया और उसके चेहरे पर पानी के छींटे मारे। वैदेही को थोड़ी ही देर में अपनी तबियत ठीक लगने लगी। उसने कुर्सी पर बैठते हुए कहा,
“कुछ नहीं, शायद लो बीपी की वजह से मुझे चक्कर आ गया था, अब मैं बेहतर महसूस कर रही हूँ, दोबारा गिर न पड़ूँ, इसलिए आज बैठ कर पढ़ाऊँगी”
क्लास के बाद जब वह ऑफ़िस में पहुँची, प्रोफ़ेसर बैनर्जी ने उससे पूछा,
“क्या तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है वैदेही ? सुना आज तुम्हें क्लास में चक्कर आ गया था, तुम अपना ख़्याल क्यों नहीं रखतीं ? अयान तुम्हारी ज़िन्दगी से जा चुका है और अपनी दुनिया में मस्त है, फिर तुम क्यों उसकी याद में अपनी ज़िन्दगी नर्क बना रही हो? मैं नीलिमा को बोल दूँगा, वो कल ही तुम्हें लेकर डॉक्टर के पास जाएगी”
“अरे नहीं सर, शायद मेरा बीपी लो हो गया था, इस वजह से मुझे चक्कर आ गया होगा, चिन्ता की कोई बात नहीं…डॉक्टर को दिखाने का कोई फ़ायदा नहीं”
प्रोफ़ेसर बैनर्जी भी वैदेही के पापा की तरह ही ज़िद्दी थे। अगले दिन नीलिमा जी के साथ वैदेही को डॉक्टर के पास जाना पड़ा।
डॉक्टर ने चेकअप किया और वैदेही से बोलीं,
“कॉन्ग्रैचुलेशन्स…यू आर एक्सपेक्टिंग, आप माँ बनने वाली हैं”
“ओह ! भगवान…तुम कैसी लीलाएँ रचते हो ? जब मैं मानसिक रूप से अयान से दूर जाने की जद्दोजहद में उलझी हूँ, उससे कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहती, तभी तुम उसकी निशानी मेरी कोख़ में डाल देते हो…आख़िर तुम चाहते क्या हो?
वैदेही अपने आप से ही बुदबुदाई। तब तक डॉक्टर ने नीलिमा जी को भी यह ख़ुशख़बरी दे दी थी।
वे भी गम्भीर मुद्रा में बैठी थीं। उन्होंने वैदेही के कंधे पर हाथ रखा और प्यार से बोलीं,
“क्या सोच रही है बेटी? मेरी मान तो तू इस बच्चे को दुनिया में लाने की मूर्खता मत कर…अयान तुझे छोड़ कर जा चुका है, यह समाज तुझे तेरे बच्चे के साथ नहीं अपनाएगा, तू किस किस को सफ़ाई देती फिरेगी कि यह बच्चा अयान का है, आज के समाज में एक तलाकशुदा औरत की ज़िन्दगी बहुत कठिन है, एक तलाकशुदा माँ की तो कहीं अधिक मुश्किल”
“मैं मानती हूँ मैम कि परिस्थितियाँ मेरे लिए प्रतिकूल हैं, भविष्य में मेरा जीवन अत्यन्त कठिन होने वाला है, परन्तु क्या इस डर से मैं अपने अजन्मे शिशु की हत्या कर दूँ ? यदि उसका पिता मुझे छोड़ कर चला गया है तो इसमें उस बच्चे की क्या ग़लती है?
वैदेही का सीधा सपाट सा उत्तर था।
“बेटी, तुम समझती क्यों नहीं ? तुम दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाती हो, लोग तुम्हारे चरित्र पर उँगलियाँ उठायेंगे, छात्र छात्राओं के पैरेन्ट्स भी तुम पर सवाल उठाएँगे…तुम यह सब कैसे झेल पाओगी ?”
नीलिमा जी ने उसे फिर समझाना चाहा।
“मैम, मैं वैदेही हूँ, वैदेही अर्थात् सीता…माँ सीता को भी तो कितने लांछन सहने पड़े थे, अग्निपरीक्षा देनी पड़ी थी…मैं भी दूँगी अपने हिस्से की अग्निपरीक्षाएँ परन्तु मैं अपने भीतर पल रही नन्ही सी जान को पालूँगी”
वैदेही ने दृढ़ स्वर में कहा।
अब वैदेही को यूनिवर्सिटी कैम्पस में ही घर मिल गया था, इसलिए करोलबाग वाले फ़्लैट की चाबी प्रोफ़ेसर दिनकर बैनर्जी को देनी थी।
होली का दिन था। नीलिमा जी ने बड़े प्यार से वैदेही को अपने घर बुलाते हुए कहा था,
“तुम तो बिना बुलाए आती ही नहीं बेटी…कम से कम तीज त्योहार पर तो आ जाया करो, तुम जानती हो..दिनकर कभी कुछ कहते नहीं परन्तु वे हमेशा यही चाहते हैं कि तुम हमारे आसपास ही रहो जिससे हमें अपनी वसु के आसपास होने का अहसास होता रहे। अब तो तुम भी कॉलेज कैम्पस में आ गई हो तो शाम को टहलते हुए भी हमारे घर आ सकती हो…तुम्हारा भी मन बदल जाया करेगा, होली पर ज़रूर आना और त्योहार हमारे साथ ही मनाना”
वैदेही जब प्रोफ़ेसर बैनर्जी के घर पहुँची तो कुहू और अबीर एक दूसरे पर रंगीन पानी से भरे ग़ुब्बारों से निशाना साध रहे थे। पूरा वातावरण कुहू की खिलखिलाहट से गूँज रहा था। वैदेही को देखते ही अबीर ठिठक गया और बड़ी ही शालीनता से हाथ जोड़ कर बोला,
“हैप्पी होली वैदेही…प्लीज़ कम इन”
“हैप्पी होली आंटी…”
कहकर कुहू वैदेही से लिपट गई और अपने रंग भरे हाथ वैदेही के गालों पर मल दिए।
“अर..रे, रंग नहीं लगाओ बेटू…किसी को उसकी मर्ज़ी के बग़ैर रंग नहीं लगाना चाहिए”
अबीर ने कुहू को रोकते हुए कहा।
“अरे कोई बात नहीं कुहू… होली है भई होली है”
कह कर वैदेही ने कुहू के गाल चूम लिये और फिर अबीर की ओर,
“सेम टु यू”
कह कर वैदेही ने भी प्रत्युत्तर में हाथ जोड़े और घर के भीतर चली गई। अंदर प्रोफ़ेसर बैनर्जी और नीलिमा जी डायनिंग टेबल पर पकवान सजाने में व्यस्त थे। उन दोनों को साथ देखकर वैदेही को बहुत अच्छा लगता। जैसे वे दोनों एक दूसरे का सम्मान करते, घर के सारे काम मिलजुल कर करते, बिना कहे ही एक दूसरे की बात समझते, वैदेही सोचने लगी,
“पति-पत्नी का रिश्ता ऐसा ही होना चाहिए, मुझे भी दिनकर सर जैसा कोई साथी क्यों नहीं मिला ?”
फिर उसे अपनी माँ की बात स्मरण हो आई…”हर लड़की अपने प्रेमी में अपने पिता को ढूँढती है”
माँ का ख़्याल आते ही यादों का पंछी फिर उसके लखनऊ के घर के बाहर लगे नीम की शाख़ पर जा बैठा…
वो सखियाँ सहेलियाँ, माँ के हाथ की गुझियाँ, दहीबडे़, पिचकारी लिए उसके पीछे भागते अमित भैया और रंगों से बचने की कोशिश में वैदेही…उसके होठों पर मुस्कुराहट आकर बैठ गई।
“खड़ी खड़ी क्या सोच कर मुस्कुरा रही हो वैदेही ? आओ आकर यहाँ कुर्सी पर बैठो”
दिनकर बैनर्जी ने उससे कहा और डायनिंग टेबल की सामने वाली कुर्सी पर बैठ गये। नीलिमा जी भी प्लेटें लेकर वहीं आ गईं और नाश्ता निकालने लगीं। प्रोफ़ेसर दिनकर ने बात शुरू की,
“नीलिमा ने मुझे बताया कि तुम प्रेग्नेंट हो और अबॉर्शन के लिए तैयार नहीं हो…तुमने अपने भविष्य के बारे में कुछ सोचा है? इन मुश्किलों का अकेले कैसे सामना कर पाओगी ?”
“मैंने सब ईश्वर की मर्ज़ी पर छोड़ दिया है सर”
वैदेही ने बेहद ठंडे स्वर में कहा जैसे उसकी आवाज़ ने बर्फ़ की सिल्लियाँ ओढ़ ली हों।
“परन्तु बेटी, जब हम समाज में रहते हैं तो हमें सामाजिक दायरों में बँधना पड़ता है…हम चाहते हैं कि तुम हमारी ज़िन्दगी में वसु की जगह ले लो, कुहू की माँ बन जाओ”
नीलिमा जी ने बिना किसी लागलपेट के स्पष्ट बात वैदेही के सामने रखी।
तभी कुहू अंदर आई और बोली,
“बड़ी ज़ोरों की भूख लगी है नानू”
“बेटा पहले नहाकर आओ, वरना सारा घर गंदा हो जाएगा”
दिनकर बैनर्जी ने कुहू को बाथरूम की ओर भेज दिया। वैदेही ने इतने ही पल नीलिमा जी की बात का उत्तर सोचने में लगाए। वह गम्भीर होकर बोली,
“माँ पापा के बाद आप दोनों ही मेरे पैरेन्ट्स की तरह हैं, आय ऐम श्योर…आपने यह निर्णय मेरे भले के लिए ही लिया है, मुझे भी कुहू बहुत प्यारी है और मैं उसे अपनी बेटी की तरह ही प्यार करती हूँ परन्तु इसके लिए मैं अबीर से शादी करूँ, यह ज़रूरी नहीं…अभी न मैं अबीर को जानती हूँ न वे मुझे, शादी के लिए एक दूसरे को जानना बेहद ज़रूरी है…”
“तो जान लो न बेटी…हमने कब मना किया है ?”
नीलिमा जी ने उत्साह में भर कर कहा।
“नहीं मैम..अभी मेरा किसी के जानने का मन नहीं…किसी को समझने का मन नहीं…अभी मैं केवल ख़ुद को जानना चाहती हूँ, अपनी ताक़त को पहचानना चाहती हूँ…अभी मुझे किसी सहारे की ज़रूरत नहीं…ख़ासकर किसी पुरुष के सहारे की तो बिलकुल भी नहीं”
दिनकर बैनर्जी और नीलिमा जी दोनों ने अनुभव किया कि जैसे इन वाक्यों में वैदेही की सारी शक्ति सिमट आई हो। अबीर भी बरामदे में खड़ा होकर उनकी सारी बातें सुन रहा था। वह भी अंदर आते हुए बोला,
“आय अप्रिशियेट दैट…मैं भी बड़े असमंजस में था कि क्या करूँ जब कल पापा ने मुझे तुमसे शादी कर लेने को कहा…आय होप, यू डोन्ट माइंड, मैं आपको तुम कह कर सम्बोधित कर रहा हूँ वैदेही जी”
“बिलकुल नहीं अबीर, बिना किसी हिचक के आप अपनी बात कहें”
वैदेही के चेहरे का तनाव अब उसकी मुस्कुराहट में घुलने लगा।
“मैं भी वसु से बेहद प्यार करता था, या कहूँ करता हूँ, उसके स्थान पर किसी और को देखना मेरे लिए भी नामुमकिन सा है…परन्तु कुहू के लिए…उसके भविष्य के लिए मैं आपसे दोस्ती करने के बारे में सोच रहा था”
अबीर के चेहरे की वह मासूम सी मुस्कुराहट वैदेही को बड़ी प्यारी लगी। उसने दिनकर बैनर्जी और नीलिमा जी, दोनों की एक एक हथेलियाँ अपनी दोनों हथेलियों में भींच लीं और बोली,
“अब आप दोनों ही मेरी ज़िन्दगी का सहारा हैं…जब मेरे पास आप जैसे विशाल बरगद की छाँव हो, अबीर जैसा दोस्त हो और कुहू जैसी प्यारी सी बिटिया हो तो बताइये…मैं आपके इस तथाकथित समाज से क्यों डरूँ ? मुझे आप लोगों से बस हौसला और हिम्मत चाहिए”
वह होली वैदेही की यादगार होली बन गई।
क्रमशः
अंशु श्री सक्सेना
अनजाने रास्ते (भाग-11)
अनजाने रास्ते (भाग-9)
अनजाने रास्ते (भाग-9) – अंशु श्री सक्सेना : Moral Stories in Hindi
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